Skip to main content

अवसाद, ख़ुदकुशी कैसे रोकें - डॉ. अव्यक्त अग्रवाल


अवसाद, ख़ुदकुशी कैसे रोकें :

हमारे देश वासियों में अवसाद ग्रस्त व्यक्ति के प्रति बहुत जजमेंटल होने की प्रवृत्ति, उस व्यक्ति की मौत के बाद तक नहीं खत्म होती।

उसके अवसाद को न परिवारजन समझते हैं न ही बाहर के लोग।  मदद तो बहुत दूर की बात है।

भैय्यू जी महाराज पर जैसी जैसी पोस्ट और अखबार में लेख आये उससे ये बात और बलवती होती है।

कोई उन्हें कायर कह रहा है, कोई ड्रामेबाज़ थे, आध्यात्मिक गुरु काहे के थे (बनाया भी अनभिग्य भीड़ ने ही),

कोई अखबार उनके बेड रूम में तो कोई उनके मोबाइल में झांकना चाह रहा है।

ज़िया खान, आनंदी  के सुसाइड के बाद वो बदचलन थीं ये थीं वो थीं के लेख।

अब समझिए सच:

अवसाद एक रासायनिक बीमारी है मस्तिष्क की जो कि डेंगू, मलेरिया , टाइफाइड की ही तरह हममें से किसी को भी हो सकती है। अवसाद पर  ये लेख लिखने वाले मुझे भी।

और ज़िया  को बदचलन थी, आनंदी नशेड़ी थी, भैय्यू जी  फ़र्ज़ी गुरु थे कहने वालों को भी।

डोपामिन, सेरोटोनिन,एवं अन्य रसायनों की मात्रा में नानोग्राम परिवर्तन और  अनुपात में गड़बड़ी की वजह से
ही हमारी क्षमता बाहरी तनावों से लड़ने की बेहद कम कर हमें अवसाद का शिकार बना सकती है।

बाइपोलर डिसऑर्डर या endogenous depression में तो बिना किसी खास वजह के भी आत्महत्या कर लेने तक का दुख मन को महसूस हो सकता है।

इन रसायनों का सही होना हमारे मस्तिष्क में मात्र और मात्र किस्मत है। बाहरी कंट्रोल न के बराबर है। हमारा अपना योगदान नगण्य ही है। इसलिए दूसरे पर हंसिये मत न ही कोई लेबल लगाइए उन पर जिनके मस्तिष्क की कोशिकाएं इन रसायनों को नहीं बना पा रहीं।

क्या आप किसी अँधे व्यक्ति पर हंसेंगे न देख पाने के लिए? फिर अवसाद में क्यों जज किया उस व्यक्ति को?

नींद, व्यायाम, मैडिटेशन, जीवन को हल्के से लेना जैसे कुछ उपाय सभांवना को कम करते हैं मात्र।

अधिकतर पुरुष अवसाद होने पर , अल्कोहल लेते हैं। और ऐसा माना जाता है कि अल्कोहल दुख  को कम कर देता है।
किन्तु, अल्कोहल अवसाद की अवस्था में आत्महत्या को प्रेरित करने वाला सबसे प्रमुख कारक है।

अधिकांश पुरुष आत्महत्या में अल्कोहल पोस्टमॉर्टम में मिलेगा।

क्योंकि अल्कोहल भावनाओं की बढ़ा देता है। अब दुखी हैं तो और दुखी हो जाएंगे। क्रोधित हैं तो और क्रोधित हो जाएंगे। साथ ही डर खत्म कर inhibition खत्म कर देता है
जिससे व्यक्ति परिवार का क्या होगा जैसी बातों का त्याग कर ख़ुदकुशी का क़दम उठा सकता है।

सभी पुरुषों को सलाह है। अवसाद होने पर कभी अल्कोहल न लें। बेहतर तीन तरीके नीचे लिख रहा हूँ। बेहद कारगर होंगे।

1. Vigourous exercise करें।  तुरंत खूब सारे डिप्स मार लें। एक बोरी पर ढेरों मुक्के बरसा लें। 1 किलोमीटर तेज़ दौड़ लगा लें। ऐसा कुछ।

Vigorous muscle contraction और exercise से रक्त में endorphins और cortisol नामक हॉर्मोन्स का स्त्राव होता है। ये हॉरमोन स्ट्रेस से लड़ने और अच्छा फील कराने का काम करते हैं। तुरंत ही व्यक्ति तकलीफ़ें सहने, लड़ने को लेकर अधिक निडर हो जाता है। आंतरिक खुशी बाहरी दुखों की पीड़ा को बेहद कम कर देती है। इस तरह समस्या से लड़ने का समय आपको मिल जाएगा।

2. Depression तीन दिन से अधिक महसूस होने पर
Antidepressent मेडिसिन डॉक्टर से लिखवा कर रेगुलर खाएं। ये बेहद सुरक्षित होती हैं , आदत नहीं डालतीं और बेहद प्रभावी होती हैं मस्तिष्क के रसायनों को सही अनुपात में ला कर नई सोच विकसित करने में।

कुछ कॉमन antidepressant हैं

Etizolam, Escetallopram, Fluoxeitin, Sertalin..

महिलाएं भी उपरोक्त उपाय कर सकती हैं।

अवसाद के समय व्यायाम करने का ज़रा भी मन नहीं करेगा।

लेकिन इसे कभी पढ़ा है तो आपको उठना ही होगा।

3. अपनी समस्या से भागिए नहीं उसका सामना करिये।
अधिकतर समस्याएँ जितनी बड़ी हमारा दिमाग बना दे रहा होता है, उतनी बड़ी होती नहीं।

ठीक वैसे ही जैसे अंधेरे में दीवार पर आपको एक इंसानी काली, डरावनी, आकृति दिखती थी बचपन में आप डरते डरते लेटे  रहते थे।

लेकिन उसे छूते ही आप देखते हैं कि वो तो खूंटे पर लटकी एक शर्ट है।

अपनों से सलाह लीजिये।

जैसे मम्मी आ कर लाइट जला दें कमरे में तो वो आकृति तुरंत छू मंतर। और सामने शर्ट ही टंगी दिखेगी।

उपरोक्त तीन उपाय फॉलो करने , किसी अवसाद ग्रस्त मित्र, परिवारजन को प्रेरित करें।

किशोरों को भी ये बात बताएं।

फिर न कहना कि हम तो सोच भी न सकते थे कि वो ये कदम उठा लेगा।


[फेसबुक पोस्ट से साभार]

© Dr. Avyact Agrawal (Psychiatrist)
[आप बड़ा काम कर रहे है , आपके YouTube (Dr. Avyact Agrawal YouTube Channel) चैनल पे बहुत से उपयोगी वीडियोज़ भी है,, जो हमें हमेशा जागरूक करते हैं]
Dr. Avyact Agrawal YouTube Channel

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

गजानन माधव मुक्तिबोध की कालजयी कविताएं एवं जीवन परिचय

ब्रह्मराक्षस गजाननमाधव मुक्तिबोध   शहर के उस ओर खंडहर की तरफ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठंडे अँधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन बात गहरी हो। बावड़ी को घेर डालें खूब उलझी हैं, खड़े हैं मौन औदुंबर। व शाखों पर लटकते घुग्घुओं के घोंसले परित्यक्त भूरे गोल। विद्युत शत पुण्य का आभास जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर हवा में तैर बनता है गहन संदेह अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि दिल में एक खटके सी लगी रहती। बावड़ी की इन मुँडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक बैठी है टगर ले पुष्प तारे-श्वेत उसके पास लाल फूलों का लहकता झौंर - मेरी वह कन्हेर... वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का शून्य अंबर ताकता है। बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य ब्रह्मराक्षस एक पैठा है, व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज, हड़बड़ाहट शब्द पागल से। गहन अनुमानिता तन की मलिनता दूर करने के लिए प्रतिपल पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात स्वच्छ करने - ब्रह्मराक्षस घि

भागी हुई लड़कियां (कविता) : आलोक धन्वा

एक घर की जंजीरें कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं जब घर से कोई लड़की भागती है क्या उस रात की याद आ रही है जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी जब भी कोई लड़की घर से भगती थी? बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी? और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के आज अपने ही घर में सच निकले! क्या तुम यह सोचते थे कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए रचे गए? और वह खतरनाक अभिनय लैला के ध्वंस का जो मंच से अटूट उठता हुआ दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था? दो तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं कभी वह खत जिसे भागने से पहले वह अपनी मेज पर रख गई तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से उसका संवाद चुराओगे उसका शीशा उसका पारा उसका आबनूस उसकी सात पालों वाली नाव लेकिन कैसे चुराओगे एक भागी हुई लड़की की उम्र जो अभी काफी बची हो सकती है उसके दुपट्टे के झुटपुटे में? उसकी बची-खुची चीजों को जला डालोगे? उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे? जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से बहुत अधिक सन्तूर की तरह केश में तीन उसे मिटाओगे एक भागी हुई लड़की को मिट

जनकृति पत्रिका का नया अंक (अंक 33, जनवरी 2018)

#जनकृति_का_नवीन_अंक_प्रकाशित आप सभी पाठकों के समक्ष जनकृति का नया अंक (अंक 33, जनवरी 2018)  प्रस्तुत है। यह अंक आप पत्रिका की वेबसाइट www.jankritipatrika.in पर पढ़ सकते हैं। अंक को ऑनलाइन एवं पीडीएफ दोनों प्रारूप में प्रकाशित किया गया है। अंक के संदर्भ में आप अपने विचार पत्रिका की वेबसाइट पर विषय सूची के नीचे दे सकते हैं। कृपया नवीन अंक की सूचना को फेसबुक से साझा भी करें। वर्तमान अंक की विषय सूची- साहित्यिक विमर्श/ Literature Discourse कविता मनोज कुमार वर्मा, भूपेंद्र भावुक, धर्मपाल महेंद्र जैन, खेमकरण ‘सोमन’, रामबचन यादव, पिंकी कुमारी बागमार, वंदना गुप्ता, राहुल प्रसाद, रीना पारीक, प्रगति गुप्ता हाईकु • आमिर सिद्दीकी • आनन्द बाला शर्मा नवगीत • सुधेश ग़ज़ल • संदीप सरस कहानी • वो तुम्हारे साथ नहीं आएगी: भारत दोसी लघुकथा • डॉ. मधु त्रिवेदी • विजयानंद विजय • अमरेश गौतम पुस्तक  समीक्षा • बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार [लेखक- डॉ. अमरीश सिन्हा] समीक्षक: डॉ. प्रमोद पाण्डेय व्यंग्य • पालिटिशियन और पब्लिक: ओमवीर करन • स्वास्थ्य की माँगे खैर, करे सुबह की सैर: अमि

भारतीय शिक्षा प्रणाली - शक्ति सार्थ्य

[चित्र साभार - गूगल] कहा जाता है कि मानसिक विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य होता है, जिससे वह व्यक्ति अपने विकास के साथ साथ देश के विकास में भी मुख्य भूमिका अदा कर सके। अब सवाल उठता है कि- क्या भारत की शिक्षा प्रणाली हमारे मानसिक विकास के लिए फिट बैठती है? क्या हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय या फिर स्कूल छात्रों के मानसिक विकास पर खरा उतर रहे है?  क्या वह छात्रों को उस तरह से शिक्षित कर रहे है जिसकी छात्रों को आवश्यकता है? क्या छात्र आज की इस शिक्षा प्रणाली से खुश है? क्या आज का छात्र रोजगार पाने के लिए पूर्णतया योग्य है? असर (ASER- Annual Status Of Education Report) 2017 की रिपोर्ट बताती है कि 83% Student Not Employable है। इसका सीधा सीधा अर्थ ये है कि 83% छात्रों के पास जॉब पाने की Skill ही नहीं है। ये रिपोर्ट दर्शाती है कि हमारे देश में Youth Literacy भले ही 92% प्रतिशत है जो अपने आप में एक बड़ी बात है, लेकिन हमारी यही 83% Youth Unskilled भी है। जहाँ हमारा देश शिक्षा देने के मामले में हमेशा अग्रणी रहा है, और उसमें भी दिन-प्रतिदिन शिक्षा को ब

तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड (कहानी) - तरुण भटनागर

तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड (कहानी)/                              कहते हैं यह एक सच वाकया है जो यूरोप के किसी शहर में हुआ था।          बताया यूँ गया कि एक बुजुर्ग औरत थी। वह शहर के पुराने इलाके में अपने फ्लैट में रहती थी। शायद बुडापेस्ट में, शायद एम्सटर्डम में या शायद कहीं और ठीक-ठीक मालुमात नहीं हैं। पर इससे क्या अंतर पडता है। सारे शहर तो एक से दीखते हैं। क्या तो बुडापेस्ट और क्या एम्सटर्डम। बस वहाँ के बाशिंदों की ज़बाने मुख्तलिफ हैं, बाकी सब एक सा दीखता है। ज़बानें मुख्तलिफ हों तब भी शहर एक से दीखते रहते हैं।             वह बुजुर्ग औरत ऐसे ही किसी शहर के पुराने इलाके में रहती थी, अकेली और दुनियादारी से बहुत दूर। यूँ उसकी चार औलादें थीं, तीन बेटे और एक बेटी, पर इससे क्या होता है ? सबकी अपनी-अपनी दुनिया है, सबकी अपनी अपनी आज़ादियाँ, सबकी अपनी-अपनी जवाबदारियाँ, ठीक उसी तरह जैसे खुद उस बुजुर्ग औरत की अपनी दुनिया है, उसकी अपनी आज़ादी। सो साथ रहने का कहीं कोई खयाल नहीं। साथ रहना दिक्कत देता है। इससे जिंदगी में खलल पडता है। पर उम्र को क्या कीजिये। वह बढती रहती है और एक समय के बा

हम अपनी ब्रेन पर इन्वेस्टमेंट क्यों और कैसे करें - शक्ति सार्थ्य

मित्रों आज के दौर को देखते हुए मैं आप सभी पर अपनी एक सलाह थोपना चाहूंगा। मुझे ये सलाह थोपने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी ये आप लेख को अंत तक पढ़ते पढ़ते समझ ही जायेंगे। पिछले कुछ दिनों से मेरा एक परम-मित्र बड़ी ही भंयकर समस्या में उलझा हुआ था। उसके खिलाफ न जाने किन-किन तरहों से साजिशें रची जा रही थी, कि वह अपने मुख्य-मार्ग से भटक जाये। उसका एकमात्र पहला लक्ष्य ये है कि वह अपनी पढ़ाई को बेहतर ढंग से सम्पन्न करे। कुछ हासिल करें। समाज में बेहतर संदेश प्रसारित करें। वो मित्र अभी विद्यार्थी जीवन निर्वाह कर रह रहा है। वह अपने परिवार और समाज को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य के प्रति वचनबद्ध है। उसकी सोच सिर्फ अपने को जागरूक करने तक ही सीमित नहीं है अपितु समाज को भी जागृत करने की है। जिससे कुछ भोले-भाले अभ्यर्थियों को सही दिशा-निर्देश के साथ-साथ उन्हें अपने कर्त्तव्यों का सही-सही पालन भी करना आ जाए। किंतु इसी समाज के कई असमाजिक सोंच रखने व्यक्ति जो सिर्फ दिखावे की समाजिक संस्था में गुप्त रूप से उनके संदेशों को मात्र कुछ रूपयों के लालच में आम जनों तक फैलाने में कार्यरत हैं। जिससे वह व्यक्त

कुकुरमुत्ता (कविता) - सुर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

कुकुरमुत्ता- एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए देशी पौधे भी उगाए रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता पहाड़ी से उ