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Showing posts from November, 2018

चीन और अंतरिक्ष में कृत्रिम चाँद - विजय सिंह ठकुराय

चीन और अंतरिक्ष में कृत्रिम चाँँद ●Few Insights About China's Artificial Moon● . पिछले दिनों आपने पढ़ा होगा कि चीन रात में शहरों को रोशन रखने के लिए 2020 तक पृथ्वी की कक्षा में एक कृत्रिम चांद स्थापित करने की सोच रहा है। बचपन में आप सभी ने शीशे से प्रकाश को परावर्तित करके रोशनी के गोले को दूसरों के मुंह पर मारकर उन्हें परेशान करने का खेल काफी किया होगा। अलुमिनियम से कोटेड प्लास्टिक शीट से बना यह चाँदरूपी रिफ्लेक्टर भी इसी सिद्धांत पर कार्य करेगा। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस तकनीक से चीन 5 वर्षों में 2 अरब डॉलर तक की बिजली खपत बचाने में कामयाब होगा। बहरहाल समस्या इस प्रोजेक्ट में नही... समस्या इस चांद की पृथ्वी से ऊंचाई यानी ऑर्बिट में है। . चीन से पहले रूस भी इसी तरह के एक प्रोजेक्ट "ज़िनमया" का सफल परीक्षण कर चुका है जिसके अंतर्गत 4 फरवरी, 1993 को रूस ने एक 20 मीटर के दर्पण को पृथ्वी की कक्षा में 500 किमी की ऊंचाई पर स्थापित किया था। इस ऊंचाई से आप आधे डिग्री की कोन (Cone) की जद में आने वाले क्षेत्र को रोशन कर सकते हैं यानी लगभग 10 किमी। पृथ्वी के ऑर्बिट में आ

पिपलांत्री : एक अनोखे गाँव की दास्ताँ

(Logo : पिपलांत्री गाँव) आज मैं एक ऐसे आदर्श ग्राम पंचायत की बात करने जा रहा हूँ, जिसकी चर्चा न सिर्फ अपने भारत देश में होती है, बल्कि विदेशों में भी होती है। जिसका मॉडल अपना कर बहुत से गाँव आज तरक्की की नई-नई इमारतें खड़ी कर रहे हैं। जिस पर सैकड़ों डाक्यूमेंट्री फिल्में बन चुकी है। जिसे डेनमार्क की प्राइमरी पाठशालाओं में पढ़ाया जाता है। जहाँ बेटी का जन्म होने पर उत्सव मनाया जाता है उसके नाम पर 31हजार रूपये की एफडी की जाती है जिसमें पंचायत 21हजार और परिवार 10हजार रूपये का सहयोग करते है। और साथ ही साथ बेटी के जन्म पर गाँव में 111 वृक्षारोपण किया जाता है। वहाँ की बेटियाँ इन वृक्षों को अपना भाई मानती है और रक्षाबंधन के दिन उन्हें राखियां भी बांधती है। गाँव मे किसी की मृत्यु हो जाने पर भी 11 वृक्षारोपण का भी रिवाज है। जो गाँव कभी संगमरमर की खादानों से निकलने वाले मलबे के कारण सफेद चादर से ढक चुका था।  जहाँ पीने के पानी को तरसते लोगों का निरंतर पलायन जारी था। जहाँ की अवो-हवा में सांस लेना दूभर हो गया था। जो सिर्फ अपनी मृत्यु के अंतिम दिन गिन रहा था। जी हां, मैं आज राजस्थान के राजसमंद ज

रासायनिक खेती की तुलना में जैविक खेती एंव उसका महत्व

भारत में जैविक खेती एक अत्यंत पुरानी विधा है। किंतु कुछ लालची भारतीयों ने पश्चिमी देशों की नकल करके एंव खेती को लाभ का साधन मानते हुए, अंधाधुंध रासायनिक खादों एंव कीटनाशकों के प्रयोग से उपजाऊ भूमि को बंजर बना दिया। जबकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि ही है। और कृषकों की मुख्य आय का स्त्रोत भी कृषि ही है।   (चित्र साभार : गूगल, सब्जियां) जनसंख्या में वृद्धि को देखते हुए पहली हरित क्रांति सन् 1966-67 में हुई। जो रसायनों (कीटनाशी, खरपतवारनाशी, फफूँदनाशी), उर्वरकों, उच्च उपज़ प्रजातियों के गेहूँ, धान, मक्का आदि पर आधारित होने से कृषि उत्पादकता में बढ़ोत्तरी का कारण तो बनी, लेकिन आगे चलकर इससे हमारे पारिस्थितिकीय-तंत्र पर इन रसायनों से नकारात्मक प्रभाव पड़ा और मृदा स्थिति में गिरावट एंव नये-नये कीटरोग पनपने लगे। जिससे सीमांत एंव छोटे कृषकों को अत्याधिक उर्वरकों एंव कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ा। जिसके चलते उनको कम खेती होने के साथ साथ अत्याधिक लागत का सामना करना पड़ा। जिसने उनकी आय के साथ साथ उनकी खेती-बाड़ी पर भी भारी असर पड़ा। जिसके प्रभाव में ना जाने कितने किसानों

गाँव-देहात और उनका महत्व - शक्ति सार्थ्य

[चित्र साभार-गूगल]  जब भी बात होती है 'गाँव-देहात' की तो गाँव के रहने वाले लोग अक्सर गवांर नज़र आने लगते है। हां ये सच है कि वह 'देहाती' जरूर होते है, किंतु गवांर तो बिल्कुल भी नहीं।  गाँवों से सुदूर शहर में रहने वाले लोग उन्हें हमेशा ओछी नज़रों से देखते आये हैं। उन्हें लगता है कि ये अभी भी पिछड़े हुए है। हां हम ये जरूर कह सकते है कि एक-दो अपवाद को छोड़ दे तो गाँवों के लोग अब भी बेहतर जीवन व्यतीत कर रहे है। जिस तरह से वे लोग प्रकृति से जुड़े हुए है, "कहा जाता है कि प्रकृति इन्हीं के संरक्षण में है"। यदि इन्होंने प्रकृति की चिंता करनी बंद कर दी तो लालची-कार्पोरेट इस प्रकृति को हमसे पलभर में ही छीन ले जायेंगे। उन्हें सिर्फ धन कमाने से मतलब है। वो सिर्फ कृत्रित जीवनशैली पर ही निर्भर है और इसी को प्रमोट करते आये है। कृत्रित जीवनशैली सिर्फ बिमारियां ही तैयार करती है, और इन बीमारियों से लड़ने का साहस निम्न आये वाले व्यक्तियों के बस में बिल्कुल भी नहीं है।  यहाँ एक बात तो स्पष्ट होती है कि कार्पोरेट-घराने बिल्कुल भी नहीं चाहते कि प्रकृति को बढ़ावा दिया जाए। हालां

भाग, दलिदर भाग - ध्रुव गुप्त

भाग, दलिदर भाग ! बिहार और उत्तर प्रदेश के भोजपुरी भाषी क्षेत्र में दिवाली की अगली सुबह घर से दलिदर भगाने की प्राचीन परंपरा है। गांव की स्त्रियां टोली बनाकर ब्रह्म बेला में हाथ में सूप और छड़ी लेकर घरों से निकलती हैं और सूप बजाते हुए दलिदर को दूसरे गांव की सीमा तक खदेड़ आती हैं। दलिदर भगाने की यह लोक परंपरा की जड़ें पुराणों में खोजी जा सकती हैं। पुराणों में समुद्र मंथन में कई रत्नों के साथ सुख और वैभव की देवी लक्ष्मी के पहले समुद्र से लक्ष्मी की बड़ी बहन दरिद्रता और दुर्भाग्य की देवी अलक्ष्मी के अवतरित होने की कथा है। वृद्धा और कुरूप अलक्ष्मी को देवताओं ने उन घरों में जाकर रहने को कहा जिन घरों में कलह होता रहता है। लिंगपुराण की कथा के अनुसार अलक्षमी का विवाह ब्राह्मण दु:सह से हुआ जिसके पाताल चले जाने के बाद वह अकेली एक पीपल के वृक्ष के नीचे रहने लगीं। वहीं हर शनिवार को लक्ष्मी उससे मिलने आती हैं। यही कारण है कि शनिवार को पीपल का स्पर्श समृद्धि तथा अन्य दिनों में दरिद्रता देनेवाला माना जाता है। लक्ष्मी को मिष्ठान्न प्रिय है, अलक्ष्मी को खट्टी और कड़वी चीज़ें। इसी वजह से मिठाई घर के भीतर

सबकी अपनी दिवाली - ध्रुव गुप्त

सबकी अपनी दिवाली ! कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाने वाली दिवाली देश का अकेला पर्व है जिसकी उत्पति के बारे में भारतीय धर्म-संस्कृति में सबसे ज्यादा मत-भिन्नताएं रही हैं। ज्यादा लोग इस दिन को लंका विजय कर चौदह वर्षों के बनवास के बाद राम की अयोध्या वापसी के उत्सव के रूप में देखते हैं। कुछ लोग इस दिन को महाभारत युद्ध के बाद विजेता पांडवों के कृष्ण के साथ हस्तिनापुर लौटने की घटना का उत्सव मानते हैं। पूर्वी भारत के बंगाल और उड़ीसा की शक्ति-पूजक संस्कृति दिवाली को काली पूजा के रूप में मनाती है। बौद्धों के लिए यह दिन कलिंग युद्ध के रक्तपात से विचलित सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का दिन है। जैन इसे तीर्थंकर महावीर के निर्वाण दिवस के तौर पर देखते हैं। इतनी मान्यताओं के बीच अजीब यह है कि इस दिन राम, कृष्ण, काली, बुद्ध या महावीर की नहीं, परंपरागत रूप से देवी लक्ष्मी और गणेश की पूजा होती रही है। दीवाली की एक प्रमुख कथा देवी लक्ष्मी से भी जुड़ती है। समुंद्र-मंथन में लक्ष्मी के प्रकट होने के बाद उन्हें पाने के लिए देवों और असुरों के बीच संघर्ष हुआ था। आज ही की रात लक्ष्मी ने पति

'मैं से मांँ तक' यह सिर्फ एक "स्त्री" की नहीं बल्कि आपकी-मेरी हम सबकी माँ की कहानी है - अंकिता जैन

दिवाली पर प्रकाशक (राजपाल एंड सन्स) ने तोहफ़ा दिया है... और किताब अब आप सबके हाथ में है... यह सिर्फ एक "स्त्री" की नहीं बल्कि आपकी-मेरी हम सबकी माँ की कहानी है किताब ऑर्डर करने के लिए लिंक :  अमेज़न प्री-बुकिंग लिंक पुस्तक 'मैं से मांँ तक' हम सभी ने अपनी माँ को माँ बने हुए देखा... माँ बनते हुए नहीं। बच्चे के जन्म के बाद से लेकर उसके परिपक्व हो जाने और उसके भी बच्चे हो जाने तक की यात्रा आजीवन चलती है। घर-परिवार, माहौल, समाज सभी इसमें सहयोगी होते हैं। मगर वे नौ माह जब बच्चा माँ के भीतर उसी का अंग बनकर पलता है, वे दोनों एक ही शरीर की तरह जीते हैं, कैसे होते हैं वे नौ माह? ख़ुशख़बरी मिलने के पहले दिन से लेकर बच्चे के जन्म तक के नौ माह एक बेहद अनोखी और एहसासों के अलग-अलग रंगों से सराबोर यात्रा रहती है। हिंदुस्तान में आज भी स्त्री के लिए माँ बनना वैसा ही है जैसे जीने के लिए साँस लेना। कोई भी स्त्री माँ 'न बनना' न ख़ुद चुनती है न चुन सकती है। अब बदलते ज़माने में आत्मनिर्भर स्त्री शादी न करना चुनने की हिम्मत जुटाने लगी है, मगर वह अकेली स्त्री भी

परछाई और अंधेरे से जुड़ा एक अद्भुत रहस्य - विजय सिंह ठकुराय

                         (चित्र साभार : गूगल) परछाई और अंधेरे से जुड़ा एक अद्भुत रहस्य ●Is A Shadow Completely Dark?● . अगर मैं आपसे कहूँ कि गोल वस्तु की परछाई के केंद्र का हिस्सा काला नही बल्कि चमकदार होता है तो आप विश्वास करेंगे? आज से 200 साल पहले, ये वो वक़्त था जब वैज्ञानिक जगत में प्रकाश के वेव अथवा पदार्थ होने की बहस छिड़ी हुई थी। ज्यादातर वैज्ञानिकों का न्यूटन की तर्ज पर मानना था कि प्रकाश छोटे-छोटे कणों "फोटॉन्स" से मिलकर बना हुआ है। तभी 1818 में फ्रेंच विज्ञान अकादमी ने प्रकाश से जुड़ी गुत्थी सुलझाने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें फ्रेंच वैज्ञानिक "ऑगस्टीन फ्रनाल" ने प्रकाश के वेव होने को लेकर एक व्याख्यान प्रस्तुत किया। निर्णायकों के पैनल में मौजूद एक जज 'सिमीयन पौसान" को यह वेव नेचर ऑफ लाइट की थ्योरी बेहद नागवार गुजरी और उन्होने कैलकुलेशन के सहारे यह प्रस्तुत किया कि अगर... अगर प्रकाश एक वेव है और चूंकि एक वेव सामने किसी अवरोध के आने पर उसके किनारों पर से मुड़ती है (This is called diffraction) तो... तकनीकी तौर पर यह प्रक्रिया क

'भय' कानून का - डॉ विदुषी शर्मा

'भय' कानून का  आज बात करते हैं भय की, कानून के भय की। आज अखबार के मुख्य पृष्ठ पर ही यह खबर थी कि एक शख्स ने दूसरे शख्स को केवल गाड़ी ठीक से चलाने की नसीहत दी तो उन्होंने उसे गोली मार दी। उस इंसान की मदद को कोई नहीं आया ।परिणाम , उसकी मौत मौत हो गई। (विनोद मेहरा , 48 वर्ष जी टी करनाल रोड भलस्वा फ्लाईओवर) घर से जब किसी की असामयिक मृत्यु हो जाती है  तो उस परिवार पर क्या बीतती है, यह सब शब्दों में बयान कर पाना मुश्किल है क्योंकि यह ऐसा दर्द है जो उसके परिवार को, उस शख्स से जुड़े हर इंसान को जिंदगी भर झेलना पड़ता है। कई लोग यहां सोचेंगे कि यह खबर तो पुरानी है। तो हफ्ते, 10 दिन में किसी की जिंदगी नहीं बदलती ।जिस घर से एक इंसान की मौत हुई है 10 दिन में उनका कुछ भी नहीं बदलता और जिंदगी की असलियत सामने आने लगती है। और खुदा ना खास्ता यदि वह इंसान पूरे घर का इकलौता ही कमाने वाला हो तो 10 दिन में नजारे दिखाई देने लग जाते हैं। कौन अपना है कौन पराया है, सब की पहचान हो जाती है। खैर यह बात हुई  भावनाओं की। और भी तरह-तरह की खबरें देख कर मन बहुत उद्वेलित ,खिन्न और परेशान हो जाता  है। रो

रूठना-मनाना - शक्ति सार्थ्य

(चित्र साभार : गूगल) रूठना-मनाना जब तक वो कुछ कहता, वह वहाँ से जा चुकी थी। ये आज पहली बार ऐसा नहीं हुआ था उसके साथ। जब भी वह उससे नाराज हो जाती, ठीक ऐसे ही बिना सफाई सुने चली जाती। प्रेम में ऐसे रूठने-मनाने के किस्से चलते ही रहते है। अक्सर देखा गया है प्रेम में स्त्रियाँ ही ज्यादा रूठती है, और देर तक मानती भी नहीं है। किंतु ये सच है स्त्रियाँ पुरूषों जितनी कठोर नहीं होती। वो सिर्फ कठोरता का दिखावा करती है। उनका कोमल हृदय किसी से आज तक छिपा नहीं है।  पुरूष हमेशा से कठोरवादी रहा है। वो रूठा तो समझो वह वापस आने के सभी रास्ते लॉक कर चुका होता है। अक्सर ये भी सच है पुरूषों में दिखावे का रूठना मनाना आता ही नहीं है। वो इस रूठने-मनाने की कला को हमेशा से बकवास मानता आया है। उसका अपना मत है कि इन छोटी छोटी बातों पर रूठने मनाने में समय की व्यर्थता है। स्त्रियाँ कभी-कभी समान्य से चल रही जीवनशैली में जानबूझकर रूठने के बहाने तलाश करती रहती है, जिससे उनकी जीवनशैली में कुछ ऐसा हो जिससे वह बोरियत भूलकर मनाने की प्रक्रिया को जी सकें, आनंदित हो सकें। और वे एक दिन अपने इस चक्रव्यूह क

ब से बटुआ - इंजी. एस. डी. ओझा

(चित्र साभार : गूगल) ब से बटुआ । धर्मयुग के दिनों में हम धर्मयुग को उल्टा खोलते थे । पहले आबीद सुरती की कार्टून कोना ढब्बूजी पढ़ते थे । पहले हंसते थे , फिर पूरा धर्मयुग यहां वहां करते हुए टुकड़ों में पढ़ते थे । ढब्बूजी का एक चुटकुला याद आ रहा है ।  चंदूलाल पूछते हैं - ढब्बूजी , आजकल आपका बटुआ हमेशा गर्म हीं रहता है ।  ढब्बूजी बोले - क्योंकि मैं पुराना उधार नहीं चुकाता । चंदूलाल ने उत्सुक होकर पूछा - और नया उधार चुकाते हैं? ढब्बूजी हंसकर बोले - नहीं , नये को भी पुराना होने देता हूं । ऐसे में तो बटुआ हमेशा हीं गर्म हीं रहेगा । वैसे उधार लेना  एक कला है तो उधार न लौटाना उससे भी बढ़कर कला है । यदि उधार लेना बी ए की डिग्री है तो उधार न चुकता करना एम ए की डिग्री है । ऐसा मैंने नहीं बल्कि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री शरद जोशी ने कहा था । बटुआ फ्रेंच के बाजेट से बना है । बाजेट का मतलब चमड़े का पर्स । इसी चमड़े के पर्स को हीं बटुआ कहा जाता है । बाजेट से बजट भी बना है । बटुए कई तरह के कई डिजाइन में मिलते हैं । बटुए को अंटी भी कहा जाता है । अंटी को ठेठ भोजपुरी में