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Showing posts from January, 2018

कसाईबाड़े की कटार - सुशोभित सक्तावत

"कसाईबाड़े" की "कटार" ________________________________________________ भारत में "धर्मनिरपेक्षता" का जो स्वरूप प्रचलित है, उसमें न्यस्त विडंबनाओं और सहानुभूतियों के डावांडोल केंद्रीयकरणों के बारे में टिप्पणी करते हुए इन पंक्तियों का विनयी लेखक अकसर यह परिभाषा दिया करता है : "कसाईबाड़े" में जिसकी सहानुभूति "कटार" के प्रति हो, वह "धर्मनिरपेक्ष!" "पंडित" जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक पूर्व छात्रा, जो कि सम्भवतया एक "अभिनेत्री" भी है, ने फ़िल्मकार संजय लीला भंसाली के नाम जो खुला पत्र लिखा है, उसको मैं भारतीय इतिहास के रक्तरंजित "कसाईबाड़े" में "कटारों" के प्रति सहानुभूति दर्शाने का एक ऐसा जघन्य प्रयास मानता हूं, जो अपने तात्पर्यों में अगर इतना कुत्सित, इतना आपराधिक नहीं होता, तो निश्चित ही उसे अत्यंत उपहास्य माना जा सकता था। बावजूद इसके, वह पत्र इतना मूढ़तापूर्ण तो है ही कि मेरे विनम्र मत में उसको लिखने के लिए "पंडित" जवाहरलाल नेहरू की अंतरात्मा को उस "पूर्व छात्रा

क्या जानवर भी इंसानों की तरह लड़ते हैं - विजय सिंह ठकुराय

क्या जानवर भी इंसानों की तरह लड़ते हैं? ●Do Animals Have War Like Humans?● . मुख्यतः एशिया में पाये जाने वाले कीड़े "हार्नेट" को प्रकृति के "क्रूरतम शिकारियों" में से एक कहना अतिशयोक्ति नही होगी। हार्नेट के बेहद महबूत जबड़े इसे अपने शिकार को चीर-फाड़ने तथा तीन इंच लंबे मजबूत पंख 25 मील/घण्टा की रफ़्तार से शिकार का पीछा करने की क्षमता प्रदान करते हैं। यूरोप में इन हार्नेटो का मुख्य शिकार मधुमक्खियां होती है। छत्ते को देख, छत्ते के प्रवेशदार पर हार्नेट फेरोमोन नामक केमिकल की बूंदे चुआते हैं जो शिकार के लिए घूम रहे अन्य हार्नेटो के लिए "बुलावे की घण्टी" होती है और इस प्रकार 20-30 हार्नेटो की फ़ौज मधुमक्खियों पर कहर बरपाने के लिए तैयार खड़ी होती है। . संख्या में तीस हजार होने के बावजूद मधुमक्खियों के लिए यह जंग एक औपचारिकता मात्र होती है। प्रति मिनट 40 से ज़्यादा मधुमक्खियों को चीर-फाड़ते हार्नेटो के लिए यह मात्र कुछ देर का खेल होता है। कुछ ही देर में छत्ता मधुमक्खियों के छत-विक्षत मृतावशेषों से पटा हुआ होता है। कुछ दिन हार्नेटो की फ़ौज छत्ते में रहते हुए मजे स

अच्छा सोचो, अच्छा करो, अच्छा बनो - पुंज प्रकाश

आज भी बौद्ध लामाओं को बचपन से यही शिक्षा दी जाती है कि अच्छा सोचो, अच्छा करो, अच्छा बनो। हमारे हिंदी रंगमंच को भी इस बात पर ग़ौर करना चाहिए, क्योंकि अच्छी सोच से ही सार्थक कला और स्वास्थ्य वातावरण का निर्माण हो सकता है। कुछ भी गढ़ने के लिए आशावादिता और नवाचार (experiments) का भरपूर होना एक अति-आवश्यक सोच है। अभी कुछ पढ़ रहा था कि विंस्टन चर्चिल का एक वक्तव्य पढ़ने को मिला। वो कहते हैं - "निराशावादी को हर अवसर में समस्या दिखती है; आशावादी को हर समस्या में अवसर दिखता है।" वर्जिन ग्रुप के फाउंडर और सफल उद्दमी रिचर्ड ब्रेन्सन कहते हैं - "सकारात्मक लोगों के लिए दिन अच्छा होता नहीं है बल्कि वे दिन को अच्छा बनाते हैं। दुनियां के सभी प्रभावशाली और सफल व्यक्ति सकारात्मक सोचवाले हैं, ना कि नकारात्मक।" बात बिल्कुल सही है क्योंकि सकरात्मकता आपके लिए असीम संभावनाएं का द्वार खोलता है, जबकि निराशा और नाकारात्मक सोच खुले द्वार भी बंद कर देता है। सकारात्मकता से सकारात्मकता का जन्म होता है, नकारात्मकता से नहीं। इसलिए जीवन में सफल जीवन के बने बनाए दुनियावी मान्यताओं से बाहर निकालकर र

बापू जी के अनमोल विचार

2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने भारत को आज़ाद कराने के साथ-साथ भारतीयों को अहिंसा के मार्ग पर चलना सिखाया। ‘हिंद स्वराज’ से लेकर ‘सत्य के मेरे प्रयोग’ जैसी महत्वपूर्ण कृतियों में अपने जीवन की समझ को बयां करने वाले बापू की इन रचनाओं को सिर्फ़ भारत के ही नहीं दुनिया भर के लोग पढ़ते हैं। बापू की रचनाओं को पढ़ने के बाद आप इस बात से बिलकुल इत्तेफ़ाक रखेंगे कि उनका जीवन ही एक संदेश है। भले ही आज बापू के विचार लोगों के साथ न हों लेकिन भारत की मुद्रा पर उनकी तस्वीर होने की वजह से लोग कम से कम उनके बारे में जानते तो हैं। अगर आप सही में बापू को जानना व समझना चाहते हैं तो उनके विचारों को अपने जीवन में उतारिए, जिसे लोगों ने गांधीगिरी का नाम दिया है। महात्मा गांधी की बातें भले ही छोटी हों लेकिन उनकी सीख बेहद बड़ी है! आज ही के दिन ३० जनवरी १९४८ को बापूजी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। आइये आज बाबू जी की पुण्यतिथि पर हम उनके द्वारा कहे गए अनमोल विचारों को पढ़ते हुए उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित करते हैं... 1. भूल करने में पाप तो है ही, परन्तु उ

बजट की उम्मीदों के बीच एक किसान का दर्द, बजट हमारे लिए बस शब्द है - गिरीन्द्र नाथ झा

खेत में मक्का अभी पौधे के रूप में है। पटवन और खाद आदि की चिंता के साथ फ़िलहाल हम किसानों की दैनिक दिनचर्या का आरम्भ होता है। ऐसे में जब कोई जागरूक इंसान गाँव के चौपाल पर सरकार के आम बजट की बात आरंभ करता है तो उसे किसान का गुस्साया चेहरा ही नसीब होता है। बिहार के पूर्णिया जिला के चनका गाँव के इस किसान से यदि कोई बजट के बारे में पूछता है तो उसका सीधा जवाब है कि हम जिस लागत में फ़सल उपजाते हैं, उस हिसाब से यदि हमें आमदनी हो जाए तो हम सरकार के बजट पर बात कर पाएँगे। जबकि सच्चाई यह है कि आम बजट में हर साल किसान और किसानी की जो आँकड़ों वाली बात होती है वह बस किताबी बात है। देश की 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है। ऐसे में किसानों की खुशहाली की बात सभी करते हैं, सरकार से लेकर कृषि वैज्ञानिक तक, किंतु उनकी मूलभूत समस्याएं वैसी की वैसी ही बनी हुई हैं। एक किसान के तौर पर मेरा मानना है कि जो देश की व्यवस्था है, उसमें जागरूक किसान का कोई स्थान नहीं है। यदि होता तो हमारी बात सुनी जाती। जंतर-मंतर तक किसान पहुँचे, लेकिन बात वहीं की वहीं है। आख़िर हम पढ़ाई की तरह न्यूनतम

अंतिम पत्र प्रेमिका के नाम - शक्ति सार्थ्य

सुनो प्रिये,               शायद तुम्हें ये मालूम न हो कि मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूं। मेरा प्रेम देह की बुनियाद पर टिका न होकर सीधे हमारी आत्मा के मिलन का प्रतीक है। हां, मैंने जरुर कुछ बंधनों में बंधे होने के कारण हमारे प्रेम को अभिव्यक्त नहीं होने दिया। हां, मैंने उन बंधनों के कारण ही हमारे प्रेम को सिर्फ मूक प्रेम ही रहने दिया। हां, मैं कह सकता हूं कि मेरे इस प्रेम में प्रेम जैसा कुछ भी तुम्हें प्रतीत न हुआ हो। किन्तु ये प्रेम आत्मा की उस गहराई तक लिप्त है जिसका प्रेम-बंधन भले ही इस जन्म में न हो पाए, किन्तु ये हमारे अगले आने वाले अनन्त जन्मों का साक्षी अवश्य होगा।              मैं कह सकता हूं कि ये जन्म हमारे प्रेम की एक झलक मात्र था। जिसका हमारी आत्मा में विलीन होना अनिवार्य था। हमारे गहरे आत्मबोध के लिए इस जन्म में न मिलना ही बेहतर था। ये महसूस कराने के लिए कि प्रेम में बिछुड़ने का महत्व क्या होता है? क्या असर पड़ता है जुदाई का हमारे भीतर? क्या हम औरों की तरह वियोगी हो जायेंगे? या फिर हम भी उनकी तरह ही आत्मदाह की बेवकूफियां करेंगे।           नहीं! हम उन जैसी बेवकूफाना ह

पर मरना मत यार! (कविता) - उषा राजश्री राठौड़

टूट जाना बिखर जाना , किरच किरच हो जाना कोई कबाड़ी आएगा और तुम में से बेस्ट आउट ऑफ़ वेस्ट निकाल ही लेगा! मिट्टी में मिल जाना ,कोई आवारा बादल बरसेगा एक दिन और तुम मिटटी में दबे बीज की तरह अंकुरित हो जाओगे! ऐसा जल्दी न भी हो  कायनात तक इंतजार करना पर मरना मत ! मौत को हँसने का मौका न देना दोस्त ! जिंदगी को  चाहना महबूबा की तरह ! जब तक की वो खुद तुम्हे न छोड़ दे , तुम उसे न छोड़ना ! मौत काली गुफा हैं , अँधेरा घना अँधेरा , जटायु के जैसे लड़ना अपनी साँस को सीता समझना आखिर तक लड़ना ! जिंदगी आकाश ...उड़ना खूब उड़ना , सूरज तक उड़ना ! पँख झुलस जाये तो भी उड़ना , सम्पाती की तरह गिर जाना किसी चट्टान पर और इंतजार करना किसी राम के आने का ! पर मरना मत दोस्त ! जिंदगी बहुत खूबसूरत हैं मेरे यार अपने ही शक करे तो सीता का वनवास वर्ष हो आना ! अपना मत रखना अग्निपरीक्षा देना! अपमान हो कभी तो महाभारत में पांडवो को पढ़ना ! निःसहाय हो तो द्रौपदी का चीरहरण याद करना ! पर मरना मत यार ! ( काली रातें , स्यूसाइड वाली फीलिंग ) © उषा राजश्री राठौड़ [चित्र साभार गूगल] _____________

दुनिया के पहले गणतंत्र की स्मृतियां - ध्रुव गुप्त

दुनिया के पहले गणतंत्र की स्मृतियां ! भारत अपने गणतंत्र का अडसठ साल पूरे कर रहा है। राष्ट्रीय गौरव के इस मौके पर आईए आज हम याद करते हैं दुनिया के उस पहले गणतंत्र की जिसने मानवता को लोकशाही की राह दिखाई थी ! छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जब सारी दुनिया में वंश पर आधारित राजतंत्र अपने चरमोत्कर्ष पर था, वर्तमान बिहार का वैशाली वह एकमात्र राज्य था जहां का शासन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करते थे। वैसे वैशाली की चर्चा पुराणो और महाभारत में भी है। इसका नामकरण महाभारत काल के ईक्ष्वाकु-वंशीय राजा विशाल के नाम पर हुआ था। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र पर राज करने वाले चौतीस राजाओं के उल्लेख हैं। ईसा पूर्व सातवीं सदी के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान महत्त्वपूर्ण था। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व में नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ अष्टकुल द्वारा यहां गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरूआत की गयी थी। यहां का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाने लगा। आज दुनिया भर में जिस गणतंत्र को अपनाया जा रहा है, वह वैशाली के ल

पद्मावत और सेकुलर मंडल - सचिन गुर्जर

मेरी एक कॉलेज फ्रेंड सेकुलर मंडल का कल रात msg आया, हेलो सचिन, आज पदमावत मूवी देखने गए थे। मैंने कहा-नहीं,जिस मूवी में माँ पद्मिनि के गौरवशाली इतिहास के साथ छेड़छाड़ की गयी हो और खिलजी जैसे क्रूर आतातायी लुटेरे का महिमामंडन किया गया हो, भला ऐसी मूवी देखने मैं क्यों जाऊँगा। सेकूलर मंडल-ओह्ह! सॉरी आप तो विरोध करने वालो में से है,आप तो राजपूतो के साथ विरोध करने गए होगे। मुझ पर कटाक्ष करते हुए उसका ये msg आया। मैं-हां हम विरोध करने वालो में से है,और ये राजपूत के साथ और अलग का विरोध नहीं है। विरोध तो उस मानसिकता का है जो निजी जीवन में प्रेमी और प्रेमिका है उन्हें ही क्यों पद्मिनि और खिलजी के रूप में दिखाया, खिलजी को महिमामंडित करने के लिए ही लोकप्रिय धारा के नायक को चुना। सेकूलर मंडल- एक बात बताऊँ सचिन, rss वालो की तरह  तुम्हारी सोच भी  बहुत सीमित हो गयी है और पूरी तरह कम्युनल हो गए, हर चीज को धर्म के चश्मे से देखने लगे हो, तुम्हारी पिछली पोस्ट में भी मैंने देखा क़ि कैसे एक धर्म विशेष को टारगेट करके लिखते हो। सेंसर बोर्ड ने मूवी पास कर दी और सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्यो के वैन को हटा दिया

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा ली गयी सिविल सेवा परीक्षा में 2010 से लेकर 2015 की भर्तियों पर सवाल खड़े किए गए हैं - कुमार प्रियांक

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा ली गयी सिविल सेवा परीक्षा में 2010 से लेकर 2015 की भर्तियों पर सवाल खड़े किए गए हैं..अब यह तो तय है कि बिना आग के धुआँ होता नहीं.. मेरी जानकारी में एकाध लोग ऐसे रहे हैं जो खुलेआम बोलते नज़र आये कि हमने खेत बेच कर पैसे जुटाए..और फिर मुख्य परीक्षा में अंकों में टेबुलेशन में खेल हुआ और कुछ अभ्यर्थियों के स्केलिंग में एक ही पेपर में 30 से 35 मार्क्स तक अनापशनाप ढंग से बढ़ गए..!! और ऐसे अधिकाँश अभ्यर्थियों को इंटरव्यू में ही आश्चर्यजनक रूप से अच्छे मार्क्स आये..!! और तय धारणा के विपरीत ऐसा नहीं था कि केवल एक जाति विशेष या किसी समुदाय विशेष को ही फ़ायदा पहुँचाया गया..कुछ ऐसे अभ्यर्थी भी रहे चाहे वह किसी भी जाति के रहे हों, जिनकी सेटिंग अगर किसी तगड़े दलाल से हो गयी तो उनका काम बन गया..तो कुछ ऐसे भी रहे जो पैसा भी गंवा दिए, नौकरी भी नहीं मिली क्योंकि उन्हें सही लिंक नहीं मिला और ठगी के शिकार हो गए..!! हाँ, यह भी रहा कि कुछ योग्य अभ्यर्थी इन सबके बावजूद चयनित हुए पर जो कुछ मार्क्स से रह गए वह बेचारे तो इस बड़ी धांधली में बाहर हो गए या उनका चयन अपेक्षाकृत नी

पद्मावती/पद्मावत विवाद के वास्तविक पहलू - देवेंद्र शिकरवार

1- इतिहास से खिलवाड़ :--  जिन लोगों ने कभी इतिहास को उठाकर देखा तक नहीं है वे भी जब विशेषज्ञों की तरह जब राय देते हैं कि फ़िल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है तो मेरा भी कहना है कि करणी सेना द्वारा किये गये  विरोध भी कुछ आपत्तिजनक नहीं  है , सिवाय उलूल जुलूल बयानों और राष्ट्रीय संपत्ति को क्षति पहुंचाने के अलावा और वो भी अगर वाकई करणी सेना ने किया हो तो । यहां तक कि अगर करणी सेना का कोई उग्र युवा अर्णव गोस्वामी जैसे  एकाध बिकाऊ पत्रकार जिसे अलाउददीन व पद्मिनी के पूर्व प्रस्तावित व बाद में हटाये गये ड्रीम सॉंग तक में कुछ गलत नहीं लगता और अशोक पंडित जैसे भगोड़े बेशर्म चापलूस को तबीयत से धुन देता तो और ज्यादा सही सबक होता इस  सैकुलर गिरोह को । इस फ़िल्म में सबसे बड़ा खिलवाड़ तो यही है कि फ़िल्म महारानी पद्मिनी , रत्नसेन और गोरा बादल जैसे हिंदू गर्व प्रतीकों पर नहीं बल्कि खिलजी पर केंद्रित है ।  आज आधुनिकता की चकाचौंध में खोये कूल ड्यूड्स को कैसे पता लगेगा कि बादल नाम का 16 वर्षीय किशोर भी था जिसने इन कूल ड्यूडस की उम्र में दुर्दांत अफगान तुर्क खिलजियों की सेना में हाहाकार मचा दिया । क्या

अधिकारों का राष्ट्रीय पर्व : गणतंत्र दिवस - शक्ति सार्थ्य

आज २६ जनवरी है। और इस दिन को हम सब गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। क्योंकि आज ही के दिन हमारे देश में नागरिकों के अधिकारों के हित में संविधान को लागू किया गया था। जब हमारा देश १५ अगस्त १९४७ को आज़ाद हुआ था तब हमारे देश का अपना कोई मौलिक संविधान नहीं था। हमारे देश में नागरिकों के अधिकार के लिए संविधान निर्माण कार्य की एक कमेटी का गठन किया गया। जिसकी अध्यक्षता की कमान डॉ भीमराव अंबेडकर जी ने संभाली। और अंततः दो वर्ष ग्यारह माह अठारह दिन के तत्पश्चात २६ जनवरी १९५० को हमारे देश में संविधान को लागू कर दिया गया। जिसके परिणामस्वरूप हम-सब तब से लेकर आजतक २६ जनवरी को राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते चले आ रहे है। आज इस पर्व की महत्ता सिर्फ इतनी सी रह गई है कि हम इस दिन केवल और केवल अपनी औपचारिकता मात्र दिखाकर भारत की आज़ादी के शिखर पुरुषों का गुणगान करके, उन्हे सिर्फ अपने लाभकारी हितों के लिए ही याद करना है। जिसके चलते उनकी साख भी बनी रहे और नागरिकों के अधिकारों का भी मुख्य उद्देश्य भी नागरिकों को पता भी न चलने पाये। कायदे में इस पर्व को आज़ादी के शिखर पुरुषों की शाहादत के

हिन्दुस्तान तेरी मिट्टी को (कविता) - शक्ति सार्थ्य

हिन्दुस्तान तेरी मिट्टी को विखरने नहीँ देगे हम तेरे परि-त्राण को हम त्यागेगेँ प्राण, आहत होगेँ तात-मात का वचन होगा नहीँ मिथ्या तेरे परि-त्राण को हम त्यागेगेँ प्राण, आहत होगेँ शहीदोँ की परम्परा पर लगेगी नहीँ लगाम तेरे परि-त्राण को हम त्यागेगेँ प्राण, आहत होगेँ हम बचेँ या नहीँ, गम नहीँ आजाद रखेगेँ तुझे तेरे परि-त्राण को हम त्यागेगेँ प्राण, आहत होगेँ [२५जनवरी२०१३] © शक्ति सार्थ्य shaktisarthya@gmail.com [चित्र साभार गूगल]

मुक्ति (कहानी) - अबीर आंनद

 आपूर्ति भवन के सामने वाले बस अड्डे पर, वह रोजाना की तरह अपनी बस का इंतज़ार कर रहा था ।  वह सुयोग राणा था ।  राज्य सरकार के आपूर्ति विभाग में एक अधिकारी ।  हाथ में एक छोटा सा पर्स नुमा बैग था ।  शायद किसी परिचित दुकानदार ने दिया था ।  थोक व्यापारियों को अक्सर ऐसे बैग, गुटखा और खैनी बनाने वाली कम्पनियाँ उपहारस्वरूप दे देती हैं ।  और ये व्यापारी फिर इन्हें अपने परिचितों को हस्तांतरित कर देते हैं ।  शक्ल सूरत कोई खास नहीं थी ।  पर कद काठी लुभावनी थी ।  उसका सादा पहनावा ,  उसके पौने छः फुट के आस पास के कद ,  और चौड़े सीने पर बिलकुल भी नहीं फबता था ।  क्रीम रंग की शर्ट उसके गहरे हरे रंग की पतलून के ऊपर बाहर से ही लटक रही थी ।  आम तौर पर लोग ,  और विशेषतः अधिकारी लोग, शर्ट को पतलून के अन्दर ठूँस कर पहनते हैं ।  खैर ,  राजधानी में राज्य सरकारों के मुख्य भवनों पर बैठने वाले अधिकारी तो, यूँ सुयोग राणा की तरह सिटी बस में भी सफ़र नहीं करते ।  ऐसे कई मामलों में वह अन्य अधिकारियों से एकदम अलग था ।  और पैरों में सफ़ेद भक्क स्पोर्ट्स शूज ।  दूर से देखने पर भी उसके पहनावे का विन्यास एकदम अलहदा