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Showing posts from February, 2018

आजादी का नायक 'आजाद' - सर्वेश तिवारी श्रीमुख

जब कि नफरत के दरख्तों पे बहार आई है, आ चल मेरे यार फरिश्तों से उजड़ना सीखें। भारत के पतन के उस कालखण्ड में, जब किसी आतंकवादी बन चुके युवक के लिए स्वघोषित बुद्धिजीवियों द्वारा देश को वर्षों से गाली दी जा रही हो, जब सरकारी अनुदान के पैसे से शराब पी कर मर जाने वाले रोहित वेमुलाओं को महानायक घोषित करने के प्रयास हो रहे हों, जब देश की राजधानी में ब्यभिचार का अड्डा बन चुके कथित विश्वविद्यालय में राष्ट्र की बर्बादी का स्वप्न पोसा जा रहा हो और संसद को छलनी करने वालों को नायक बनाया जा रहा हो, और जब इंकलाब के नाम पर भारत की बेटियों का सामूहिक बलात्कार हो रहा है, तो नई पीढ़ी के बच्चों के लिए यह कल्पना भी कठिन है कि भारत में ऐसा भी एक समय था जब बीस बाइस वर्ष के युवा इस देश के लिए मृत्यु से विवाह कर रहे थे। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राष्ट्रद्रोह की आजादी मांगने वालों ने क्या कभी सोचा होगा कि इस आजादी के लिए कितने आजादों को अपने सर में गोली मार लेनी पड़ी थी? लंबे लंबे बैनरों और नारों के बल पर किसी कायर को नायक बनाने वाले अगर आजाद की जीवनी पढ़ें, तो पता चलेगा कि राष्ट्र नायक किस तरह बनते

अगर अगला कोई जन्म होता है तो आप फिर फिल्मों की नायिका बनकर ही आना - ध्रुव गुप्त

लो आज मैं कहता हूं - आई लव यू ! श्री देवी जवानी के दिनों में मेरी क्रश रही थी। अपना पूरा बचपन और किशोरावस्था मधुबाला के सपने देखते बीता था। उन सपनों पर कब श्री देवी काबिज़ हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। उनकी फिल्म 'हिम्मतवाला' मैंने ग्यारह बार देखी थी। उनके स्वप्निल सौंदर्य, उनकी बड़ी-बड़ी आंखों और उनकी चंचल मासूमियत का जादू कुछ ऐसा सर चढ़ा कि उसके बाद मैंने ख़ुद से वादा ही कर लिया कि उनकी जो भी फिल्म लगेगी, उसका पहला शो मैं देखूंगा। 'नगीना' सात बार, 'मिस्टर इंडिया' पांच बार, 'सदमा' नौ बार. 'लम्हे' चार बार और 'चांदनी' तीन बार देखी थी। सामाजिक मर्यादाओं की वजह से बार-बार सिनेमा हॉल जाना संभव नहीं हो पाता तो घर में वी.सी.डी मंगाकर उन्हें देख लिया करता था। उनके प्रति दीवानगी ऐसी कि उनकी फिल्मों के किसी भी नायक को उनके साथ परदे पर देखना तक मुझे गवारा नहीं था। उन अभिनेताओं की जगह नायक के तौर पर खुद की कल्पना करके उनकी फिल्में देखता था। जिस दिन बोनी कपूर से उन्होंने शादी की, उस दिन सचमुच मेरा दिल टूटा था। यह सब बचपना था, लेकिन श्री देवी जैसी गिनी

IIT कोचिंग संस्थान A.S. Classes Pvt. Ltd. के सफलता की जुनूनी कहानी

बहुत समय लगता है किसी एक Institute को खड़ा करने में, इसके पीछे की मेहनत का अंदाजा वही लगा सकता है जो आज के दौर की व्यवसायिक शिक्षा से अलग समाज में बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए जुनूनी हो.. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही अखंड सिंह को शिक्षा के क्षेत्र में कुछ बेहतर करने का आइडिया आया.. पढ़ाई के दौरान ही होम-ट्यूशन से छात्रों को लाभान्वित करने का दृढ़ निश्चय लेकर निकल पड़े इस अभियान की ओर.. अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अपने द्वारा पढ़ाये जाने वाले छात्रों की पढ़ाई की जिम्मेदारी ने इन्हें जुनूनी और मेहनतकश के ढांचे में ढलने में देर ही नहीं लगने दी... परिणामस्वरूप इंजीनियरिंग की जॉब न करने का फैसला लेकर किसी Institute में एक कोच की भांति नौकरी करने लगे... कुछ वक्त वहां जॉब करने के पश्चात ही अपने Institute को खोलने का प्रयास चालू हो गया... और अंततः अपने अथक प्रयासों और परिवार के सपोर्ट से A.S Classes Pvt. Ltd. नामक IIT-JEE और मेडिकल की पढ़ाई के लिए एक Institute जन्म ले गया... अब शुरू होता है बेहतर शिक्षा को लेकर संघर्ष... जहां दिल्ली जैसे बड़े शहर में बड़े और नामी Institute की प्रचार प्रक्रिय

बा की मौत के बाद वो चिट्ठी जो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने बापू को लिखी

बा की मौत के बाद वो चिट्ठी जो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने बापू को लिखी थी श्रीमती कस्तूरबा गांधी नहीं रहीं. 74 वर्ष की आयु में पूना में अंग्रेजों के कारागार में उनकी मृत्यु हुई. कस्तूरबा की मृत्यु पर देश के अड़तीस करोड़ अस्सी लाख और विदेशों में रहने वाले मेरे देशवासियों के गहरे शोक में मैं उनके साथ शामिल हूं. उनकी मृत्यु दुखद परिस्थितियों में हुई. लेकिन एक ग़ुलाम देश के वासी के लिए कोई भी मौत इतनी सम्मानजनक और इतनी गौरवशाली नहीं हो सकती. हिन्दुस्तान को एक निजी क्षति हुई है. डेढ़ साल पहले जब महात्मा गांधी पूना में बंदी बनाए गए तो उसके बाद से उनके साथ की वह दूसरी कैदी हैं, जिनकी मृत्यु उनकी आंखों के सामने हुई. पहले कैदी महादेव देसाई थे, जो उनके आजीवन सहकर्मी और निजी सचिव थे. यह दूसरी व्यक्तिगत क्षति है जो महात्मा गांधी ने अपने इस कारावास के दौरान झेला है. इस महान महिला को जो हिन्दुस्तानियों के लिए मां की तरह थी, मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं. और इस शोक की घड़ी में मैं गांधीजी के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करता हूं. मेरा यह सौभाग्य था कि मैं अनेक बार

स्त्री की ख़ूबसूरती पर सोनम कपूर के आर्टिकल का अनुवाद

(स्त्री की ख़ूबसूरती पर सोनम कपूर के आर्टिकल का अनुवाद) टीनएज लड़कियो, अगर सुबह जगकर अपने बेडरूम के शीशे में खुद को जब देखती हो और ये सोचती हो कि आख़िर तुम उन तमाम सेलिब्रिटीज़ की तरह क्यों नहीं दिखती, तो ये जान लो कि कोई भी लड़की बिस्तर छोड़ते ही वैसी नहीं दिखती। मैं तो नहीं दिखती, न ही कोई भी और हिरोइनें जिन्हें तुम फ़िल्मों में देखती हो। (बियॉन्से भी नहीं, मैं कसम खाकर कह रही हूँ।) अब असली बात जान लो: हर पब्लिक आयोजन में जाने से पहले, मैं अपने मेकअप की कुर्सी में बैठकर 90 मिनट का समय देती हूँ। तीन से छः लोग मेरे बाल और मेकअप पर काम करते हैं, जबकि एक आदमी मेरे नाख़ून तराशता रहता है। हर सप्ताह मेरी भवें सँवारी जाती हैं, उनकी थ्रेडिंग और ट्वीज़िंग की जाती है। मेरे शरीर के कई हिस्सों पर 'कन्सीलर' लगा होता है जिसके बारे में मैं कभी सोच नहीं सकती थी कि इन्हें छुपाने की ज़रूरत होती होगी! मैं हर रोज सुबह 6 बजे जग जाती हूँ, और 7:30 बजे तक जिम में होती हूँ। लगभग 90 मिनट का समय हर सुबह, और कई शाम सोने से पहले भी, व्यायाम के लिए होता है। मैं क्या खाऊँ, क्या नहीं खाऊँ, ये बतान

मेरा पहला साहित्यिक पन्ना - शक्ति सार्थ्य

पन्ना पलटते-पलटते जब मैँ उस पन्ने पर पहुँचा... सहसा रुक गया... धड़कने मानोँ साथ देने से कतराने लगी हो... सहम गयी होँ... आँखेँ एक दम से सन्न... चौँड़ी... स्थिर... नम... उनमेँ शील आ गयी हो... कुछ तैरने लगा दिमाग की रील से आँखोँ के सहारे... वो पन्ना इतना विचित्र था... मेरा लिखा पहला पन्ना... साहित्य का शुरुआती पन्ना... जिसे मैँने अपनी रफ कापी से बीच से फाड़कर लिखा था... मुझे नहीँ पता था कि मैँ क्या लिखने जा रहा हूँ... फिर भी कलम उठाकर चलाने लगा... वो पन्ना जितना सुरक्षित नहीँ था... जितना की वो पल... सहसा याद आ गया वो पल... पन्ने पे लिखे कुछ हर्फ़... कुछ शब्द... लीक से हठकर चौतरफा अपनी सीमा से निकल कहीँ और सेँधमारी करते मेँरे शब्द... न तो लय थी... न तो कोई अर्थ... था तो वो मेरा सिर्फ पहला साहित्यिक पन्ना... पहली रचना... जो सबसे हसीँ... सबसे यादगार... मेरे आज होने का पहला प्रमाण... वो पन्ना आज मेँरे पास सुरक्षित नहीँ... अधेड़... गंदा... कुछ अजीब सी महक... गुजला हुआ... कमजोर... पर है मेरी ताकत... खुशबु... उजाला... पहचान का पहला प्रमाण... मेरे होने मेँ जितना उसका योगदान है... शायद किसी और का ह

बेवजह यूं परेशां नहीं हुआ जाता - शक्ति सार्थ्य

बेवजह यूँ परेशां नही हुआ जाता… ये जिंदगानी है… आनी है… जानी है… क्या हुआ जो वो मेरे पास नहीँ है… मैँ अपने लहजे से जी सकता हूँ… पहुँच रहा हूँ गाँव के खेत खलिहानोँ मेँ… वो पगडण्डी जो सीधे दिल से जोड़ती थी… सरसोँ के पीले फूलोँ का उगना… भवरोँ का उनमेँ गुनगुनाना… किसी पवन का उनमेँ लहर दे जाना… उसकी लचक… मन की हलचल… सूर्य का अपने रंगो से उसमेँ मिल जाना… मेरा ठहर के सब निहारना… किसानोँ की रखवाली का… खेत की सरसोँ का निश्चित होना… फूलोँ का खिल-खिलाना… कहाँ रहा जा सकता है… कुछ यादेँ है… सरसोँ से खेलती तितली… तितली से खेलता किसान का बच्चा… वो जो अभी अपने पर निकाल सीधा हुआ… दौड़ता… भागता… सरसोँ मेँ रास्ता इज़ाद करता… किसान का अपने बच्चे को यूँ नजर अंदाज करना… मन ही मन बच्चे को निहारना… उनमेँ सपनोँ का बुनना… किसान का स्वप्न… बच्चे का भविष्य… उसका तितली का पकड़ लेना… कहा जा सकता है… लेकिन न मुमकिन है ये… किसान अंधकार मेँ… स्वप्न का धूमिल हो जाना… तितली का अचानक छूट जाना… बच्चे की खुशी का खतरे मेँ होना… किसे दोष देँ… कहना… न कहना… एक जैसा… जो दोषी हैँ… उन्हे समझना भी… अब क्या कहेँ… (डायरी से...) अ

कुछ भी निश्चित नहीं है - शक्ति सार्थ्य

कुछ भी निश्चित नहीँ है… खासकर हमारे मन का होना… ये अनिश्चित्ताओँ का एक पुलिँदा है… अथाह समुंद्र… उसी समुंद्र मेँ एक खारापन है… जो स्वप्न को दर्शाता है… ये एक पूरा निकाय है… हम इसकी पारदर्शिता (मूल रुप से प्रकृति को) को चाहकर भी भेद नहीँ सकते… न ही इस पर काबू पा सकते… ये हमारी गलत सोँच का परिणाम है कि हममेँ इसे भेदने की पूर्ण शक्ति है… कुछ भी आदर्श नहीँ है… परन्तु ये कहा जा सकता है कि हम अध्यात्म से कुछ हद  तक अपने मन पर काबू पा सकते है… पूर्णतयः अध्यात्मिक होना… पूर्ण रुप से दोषमुक्त होना… ये संभव नहीँ है… पहली बात तो ये कि पूर्णतयः अध्यात्मिक होना किसी ईश्वरीय का होना है… सो तो हम है नहीँ… अध्यात्म हमेँ एकाग्र की ओर ले जाता है… जिसकी यात्रा हमेँ ईश्वरीय दर्शन तक… लेकिन इतनी सामर्थ्य हम मेँ हैँ कहाँ… हमेँ स्वंय मेँ कुछ खोजना होगा… जो हमारे लिए है… जिसमेँ हम निपुण भी होँ… बस यही एक रास्ता है… मन को अपने मेँ नियन्त्रित कर आध्यात्मिक प्रवृति से प्रभु के दर्शन का… (डायरी से...) अप्रैल २०१४ © शक्ति सार्थ्य

मन का भय - शक्ति सार्थ्य

चलने के मूड से उठा… फिर अचानक बैठ गया… समझ नहीँ आ रहा था… वो कल रात मेँ आये स्वप्न का क्या मतलब था… बस कुछ धुआँ उड़ता हुआ दिखाई दिया और एक धुंधली-धुंधली-सी लम्बी चीज जिसमेँ छड़ीनुमा एक चमक भी थी… लेकिन ये एक स्वप्न था… फिर भी ये मुझे अजीब क्योँ लगा… कुछ तो कनेक्शन था इसका मुझसे… चलो यार भूलोँ भी… स्वप्न तो स्वप्न है… हाँ वो स्वप्न था लेकिन कुछ अजीब सा… मैँ आज तक डरा नहीँ था किसी स्वप्न से… फिर न जाने क्योँ ये भयभीत कर रहा था मुझेँ… मन का एकांत मानोँ कही चला गया हो… दिल मेँ धड़कने अब सामान्य नहीँ थी… डेढ़ गुना से भी ज्यादा थी… कभी इतना मन हलचला नहीँ हुआ… अब तो शरीर भी अपने सामान्य ताप पर पसीजे जा रहा था… कुछ भी हो मैँ एक शिकार मेँ फंस चुका था… वो था मन का भय… जिसे निकाल पाना किसी आम काम से बने खास काम से भी आसान था… फिर भी जमेँ हुए था… अपनी मूल स्थिति से बढ़ता हुआ… मेरे कामोँ मेँ विघ्न डाले दूर कोनेँ मेँ भय का टाण्डब अपने मेँ मग्न था… और मैँ उसमेँ वशीभूत… (डायरी से...) ०५अप्रेल२०१४ © शक्ति सार्थ्य

जिद्दी मन - शक्ति सार्थ्य

कुछ भी कहना ये साबित नहीँ करता कि मैँ वो हूँ… मेरा होना स्वाभाविक है… अक्सर उदास हो जाता हूँ… ये मेरे लिए होना… आप समझ लो कि मैँ स्वंय से नाराज हूँ… मैँ अपने आप से झगड़ता हूँ… जब कभी मैँ बहस मेँ अपने मन से हार जाता हूँ… ये बड़ा जिद्दी है… इसकी बातेँ माननी पड़ती हैँ… ये कुछ भी करा लेता है मुझसे… मैँ इसका दास बने सब किये जाता हूँ… मैँ लिखना नहीँ चाहता पर ये न जाने कहाँ से विचार ढूँढ़ लाता है और अपनी मनमानी या योँ मान ले धौँस दिखाता है… मुझको बीमारी लगाने की जद्दोजहद मेँ हैँ… हाँ, लेखन की बीमारी और मैँ न जाने क्योँ इसकी बात मान बैठता हूँ… मैँ भी अब कहीँ लिप्त हूँ इसमेँ… मेरा लिप्त होना मेरा नहीँ है… ये तो मैँ मन का गुलाम हूँ… मैँ चाहकर भी ठोकर नहीँ मार सकता अपने मन को… या योँ कह ले मैँ अक्सर इसके जाल मेँ फँस जाता हूँ… मैँ लालची हूँ… और ये लालच देने वाला… लेकिन कुछ भी कह लो फायदा इसमेँ मेरा ही है… बस मुझे कुछ बक्त देना होता है अपने मन को… और ये दे जाता है मुझे अनगिनत लम्होँ को जोड़ने वाला फार्मूला… मैँ लिखता हूँ… ये लिखवाता है… अपना क्रेडित भी मुझे दे जाता… कुछ भी कहो ये मुझसे भिन्न है… (

हम अपनी ब्रेन पर इन्वेस्टमेंट क्यों और कैसे करें - शक्ति सार्थ्य

मित्रों आज के दौर को देखते हुए मैं आप सभी पर अपनी एक सलाह थोपना चाहूंगा। मुझे ये सलाह थोपने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी ये आप लेख को अंत तक पढ़ते पढ़ते समझ ही जायेंगे। पिछले कुछ दिनों से मेरा एक परम-मित्र बड़ी ही भंयकर समस्या में उलझा हुआ था। उसके खिलाफ न जाने किन-किन तरहों से साजिशें रची जा रही थी, कि वह अपने मुख्य-मार्ग से भटक जाये। उसका एकमात्र पहला लक्ष्य ये है कि वह अपनी पढ़ाई को बेहतर ढंग से सम्पन्न करे। कुछ हासिल करें। समाज में बेहतर संदेश प्रसारित करें। वो मित्र अभी विद्यार्थी जीवन निर्वाह कर रह रहा है। वह अपने परिवार और समाज को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य के प्रति वचनबद्ध है। उसकी सोच सिर्फ अपने को जागरूक करने तक ही सीमित नहीं है अपितु समाज को भी जागृत करने की है। जिससे कुछ भोले-भाले अभ्यर्थियों को सही दिशा-निर्देश के साथ-साथ उन्हें अपने कर्त्तव्यों का सही-सही पालन भी करना आ जाए। किंतु इसी समाज के कई असमाजिक सोंच रखने व्यक्ति जो सिर्फ दिखावे की समाजिक संस्था में गुप्त रूप से उनके संदेशों को मात्र कुछ रूपयों के लालच में आम जनों तक फैलाने में कार्यरत हैं। जिससे वह व्यक्त

प्रेम के ताले - योगी अनुराग

                          (चित्र साभार गूगल) प्रेम के ताले : फ़रवरी 13 __________________________ एक वो जो लगे हैं उसके ओष्ठों पर, दूसरे जो वो लगाती है अपने ओष्ठों से। वो "ताले" जिनके कारक भी ओष्ठ हैं और लक्ष्य भी ओष्ठ। प्रेम में बंधन हैं या है मुक्ति, शोध का अनुसंधान का पृथक् विषय हो सकता है। बहरहाल, "ताले" अवश्य हैं प्रेम में। ## प्रेम में "तालों" से ही प्रगाढ़ता का आरंभ होता है। पर्वत शिखर-से सुबोधगम्य ललाट पर लगता है प्रथम "ताला"। और फिर कपोल, फिर ओष्ठ, फिर ग्रीवा पर वो उत्सुकता मानो ओष्ठ से "मन्या" को स्पर्श करने की तीव्र इच्छा लिए हैं जन्मों से। डॉ कुमार की "मधुयामिनी", जीवंत हो गयी मानो : "सुर्ख़ होठों से झरना सा झरता रहा।" कंठ से कुच, कुचाग्र, कुक्ष और कुक्षि तक, वक्ष से पृष्ठ तक, प्रदेशिनी से स्कन्ध और फिर अवलग्न तक ओष्ठों का साम्राज्य, और पीड़ा भी होगी दंत से। जिह्वा शहद से युक्त हुयी और गुलज़ार याद आ गये : जब से तेरे जिस्म की मिश्री होंठों से लगाई है, मीठा मीठा सा ग़म है और मीठी सी तन्

जनकृति पत्रिका का नया अंक (अंक 33, जनवरी 2018)

#जनकृति_का_नवीन_अंक_प्रकाशित आप सभी पाठकों के समक्ष जनकृति का नया अंक (अंक 33, जनवरी 2018)  प्रस्तुत है। यह अंक आप पत्रिका की वेबसाइट www.jankritipatrika.in पर पढ़ सकते हैं। अंक को ऑनलाइन एवं पीडीएफ दोनों प्रारूप में प्रकाशित किया गया है। अंक के संदर्भ में आप अपने विचार पत्रिका की वेबसाइट पर विषय सूची के नीचे दे सकते हैं। कृपया नवीन अंक की सूचना को फेसबुक से साझा भी करें। वर्तमान अंक की विषय सूची- साहित्यिक विमर्श/ Literature Discourse कविता मनोज कुमार वर्मा, भूपेंद्र भावुक, धर्मपाल महेंद्र जैन, खेमकरण ‘सोमन’, रामबचन यादव, पिंकी कुमारी बागमार, वंदना गुप्ता, राहुल प्रसाद, रीना पारीक, प्रगति गुप्ता हाईकु • आमिर सिद्दीकी • आनन्द बाला शर्मा नवगीत • सुधेश ग़ज़ल • संदीप सरस कहानी • वो तुम्हारे साथ नहीं आएगी: भारत दोसी लघुकथा • डॉ. मधु त्रिवेदी • विजयानंद विजय • अमरेश गौतम पुस्तक  समीक्षा • बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार [लेखक- डॉ. अमरीश सिन्हा] समीक्षक: डॉ. प्रमोद पाण्डेय व्यंग्य • पालिटिशियन और पब्लिक: ओमवीर करन • स्वास्थ्य की माँगे खैर, करे सुबह की सैर: अमि

अतीत का नगर - मुअन जोदड़ो - इंजी. एस डी ओझा

अतीत का नगर - मुअन जोदड़ो । मुअन जोदड़ों का अर्थ है - मुर्दों का टीला । इस मुर्दे के टीले को जब खोदा गया तो संसार की प्राचीनतम सभ्यता का पता चला । सरस्वती व सिंध नदियों के तट पर बसे हड़प्पा और उसके हीं एक अंग मुअनजोदड़ों के बारे में बहुत हीं तथ्य परक जानकारी मिली । ये दोनों नगर विश्व के सबसे नियोजित नगर थे । सिंधु घाटी की सभ्यता का सबसे बड़ा नगर मुअन जोदड़ो है । इस सभ्यता को सिंधु सरस्वती सभ्यता भी कहते हैं । कुछ विद्वान इसे हड़प्पा सभ्यता का हीं एक रूप मानते हैं । वैसे यह निर्विवाद सत्य है कि यह सभ्यता विश्व की महान सभ्यताओं में से एक है , जिसने मानव का क्रमिक विकास देखा है । सिंधु घाटी की सभ्यता 13 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली हुई थी । यह सभ्यता न राज पोषित थी न धर्म पोषित । अगर थी तो केवल समाज पोषित । इसमें रंच मात्र का भी आडम्बर नहीं था । यही कारण था कि घर लगभग एक जैसे हीं थे । खुदाई से किसी राजा का राज महल नहीं मिला । एक छोटा मुकुट पहने किसी दाढ़ी वाले नरेश की मूर्ति जरूर मिली है , जो साबित करती है कि यहां राज तंत्र था , पर राजशाही बिल्कुल भी नहीं थी । नगर में सुख शांति थी । नगर क

क्या आज हम समाज के प्रति जिम्मेदार है? - शक्ति सार्थ्य

           आज के दौर को देखते हुए ये कहना बिल्कुल भी ग़लत नहीं होगा कि हम सभी लोग अपने-अपने मूल कर्त्तव्यों से भटकते जा रहे हैं। समाज के प्रति हमारी जो ज़िम्मेदारियां बनती है हम उन जिम्मेदारी से मुंह फेरे बैठे हुए हैं। आज के समाज का हर तबके का एक व्यक्ति कहीं न कहीं किसी भी तौर से उसी तबके के दूसरे व्यक्ति को छलने की योजना बना रहा होता है। ऐसा लगता है कि मानों यहां छल-कपट की आंधी-ब्यार सी चल पड़ी है। हम लोग चंद लाभ (लालच) के लिए अपने ईमान तक को हाशिये पर रखने से भी नहीं चूकते। जबकि हम सब ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि हम जिन दूसरें लोगों का हक छीन रहे हैं न वह भी तो हमारे ही लोग हैं। उन्हे शायद हमसे ज्यादा आवश्यकता हो इस लाभ की। किंतु नहीं। आज इस समाज का ये मूल चलन बन चुका है कि यदि आपको यहां टिके रहना है तो अपनी शक्तियों का गलत तरीके से प्रयोग कर इन सीधे-सादे शक्तिविहीन लोगों को कैसे भी करके अपने कब्जे में रखना हैं। नहीं तो आपकी जो बची हुई पहचान है न मिट सकने की कगार पर पहुंच सकती है। आप कहीं गुम से हो सकते हैं। शायद कोई आपको भाव तक न दें। आपको राह चलते कोई नजरंदाज न कर दे। या

आखिर क्यों? (कविता) - शक्ति सार्थ्य

क्यों? अब सुनाई नहीं देती किलकारी बेमतलब की हँसी न दिखाई देती हैँ अब वो हरकतें हरपल की शरारतें कितना बुरा लगता था मुझे तेरा होना तू खलता था मुझे खटकता था पल दर पल वक्त बेवक्त तेरा मिल जाना न जानें क्यों तड़पता हूँ अब न जाने क्यों तकता हूँ अब कहीं किसी रास्ते से तू आ जाये कहीं से भी सुनाई दे जाये तेरी आवाज- कहाँ चला गया तू क्यों चला गया तू मैं तुझे कहाँ तलाश करुं कहाँ से लाऊँ तुझे मैं घुट रहा हूँ यहाँ तेरी यादें भी सताती है मुझे तेरे साथ किया वो झगड़ा- तेरी डिक्सनरी में तो नाराजगी नामक शब्द था ही नहीं फिर क्यों मुहँ मोड़ लिया क्यों चला गया इतनी दूर जहाँ से आने की इजाजत नही दी जाती तू तो बैठ गया वहाँ गोद में उनकी और मुझे छोड़ गया काटों पर हमेशा तुझसे शिकायत रही आज भी है फिर क्यों सफाई नहीं देता तू पहले की तरह क्यों नहीं पकड़ता कान अपने क्यों नहीं चूमता मुझे क्यों नहीं वश में करता मुझे क्यों ? क्यों ? आखिर क्यों? [१८मई२०१४] © शक्ति सार्थ्य shaktisarthya@gmail.com

ये दीवाने कहां जाएं - ध्रुव गुप्त

ये दीवाने कहां जाएं ! वसंत प्यार का मौसम है। दुनिया की तमाम संस्कृतियां अपने युवाओं को इस मौसम में प्रेम की अभिव्यक्ति का अवसर देती है। इसका आरंभ हमारे देश ने ही किया था। प्राचीन भारत में बसंत उत्सव और मदनोत्सव की लंबी परंपरा रही है जिसमें प्रेमी जोड़े एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम और आकर्षण का सार्वजनिक रूप से इज़हार करते थे। कथित सभ्य समाजों में धीरे-धीरे वह परंपरा तो विलुप्त हो गई, लेकिन हमारी आदिवासी संस्कृतियां अपने युवाओं को प्रेम की अभिव्यक्ति का यह अवसर आज भी प्रदान करता है। यह एक स्वस्थ और यौन कुंठारहित समाज की निशानी है। युवाओं को अपनी रूमानी भावनाओं की अभिव्यक्ति का ऐसा ही अवसर पश्चिम से आयातित 'वैलेंटाइन डे' देता है। बाज़ार ने इसका विस्तार कर अब 'वैलेंटाइन वीक' बना डाला है। प्रेम का संदेश दुनिया के किसी कोने से आए, नफरतों से सहमें इस दौर में ताज़ा हवा के झोंके की तरह ही है। दुर्भाग्य से हमारे देश में प्रेम का विरोध भी बहुत है। यहां के हिन्दू और मुस्लिम दोनों प्रमुख धर्मों के स्वघोषित ठेकेदारों का मानना है कि प्रेम उनकी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। अंतर्धा

बजट समीक्षा २०१८-२०१९ - सर्वेश तिवारी श्रीमुख

सत्ता समर्थक हप्ते भर पहले से बजट की अच्छाइयां गिनाने की प्रैक्टिस करते हैं, तो विपक्षी दल के समर्थक डेढ़ हप्ते पहले से ही बजट की कमियां गिनाने की प्रैक्टिस करते हैं। आप किसी सत्ता विरोधी से पूछिए- भइया बजट कैसा रहा?वह पूरे गर्व के साथ उत्तर देगा- भाई यह सरकार लोगों का खून चूस रही है। ऐसा विनाशकारी बजट तो आज तक नहीं आया। बस समझ लो कि आम आदमी को चक्की में पीस देने वाला बजट है यह। हालांकि इस बात की भी साढ़े निन्यानवे दशमलव सन्तानवे प्रतिशत सम्भावना है कि महोदय को बजट का 'ब' तक समझ मे नहीं आया होगा, और बजट पर दिया जाने वाला उनका बयान भी किसी दूसरे ने लिखा होगा।  वहीं सत्ता समर्थक बजट के लिए कहेंगे- अद्भुत, अद्वितीय, अतृतीय, अचतुर्थ, अविस्मरणीय, अकल्पनीय, अवर्णनीय, अकथनीय, अफेकनीय... हरामखोर इतने शब्द गढ़ देंगे कि सुनने वाला इस शब्द प्रहार से बचने के लिए ही मान लेगा की बजट सनी लियोनी के सतीत्व, आमिर खान की राष्ट्रभक्ति, राहुल गांधी के हिंदुत्व, भारतीय न्यायपालिका की न्यायप्रियता, अमिताभ बच्चन के महानायकत्व, कुमार विश्वास के कवित्व, चेतन भगत के साहित्य,  राखी सावंत के सौंदर्य, उ

गुमशुदा (नज़्म) - प्रणव मिश्र 'तेजस'

नज़्म - गुमशुदा मुकम्मल दो बरस के बाद पीछे लौटता हूँ मैं। जहाँ मैं था फ़क़त मैं ही तो बस ये सोचता हूँ मैं। वफ़ा से इश्क़ तक का ये सफ़र अच्छा रहा शायद। भले लाखों गिले फिर भी सफ़र सच्चा रहा शायद। अभी भी याद है पहले पहल का पार्क में मिलना। मेरी नादान ग़ज़लों को वो तेरा ध्यान से सुनना। मेरी तारीफ में अश्क़ों का इक दरिया बहा देना। बहुत कहने पे धीरे से कहीं उसको छिपा लेना। वो बैठे धूप में रहना गले का सूखते जाना। फ़िजा का आशिकों से इस तरह से रूठते जाना। जहां लगता था टम्प्रेचर "हमारी जान लेगा क्या?" इरादे सब मेरे दिल के समां पहचान लेगा क्या? मैं उस तस्वीर में चुपचाप तुमको देखता जाता। फ़क़त मैं देखता जाता फ़क़त मैं सोचता जाता। मैं कुछ था सोचता ऐसा मैं कुछ था सोचता वैसा। खुदा  से  डर  के  मैंने  माँगना  चाहा  तेरे  जैसा। कि ज़ेरे-लब दुआएं थीं मेरी आँखों के आगे तुम। मेरी चुप्पी पे हल्का सा मेरी जां जाग उट्ठे तुम। हिला होठों को बोले,"बस बहुत अच्छा लिखा तुमने।" ये सारे मीरो-ग़ालिब को बहुत पीछे किया तुमने। मुझे औक़ात अपनी थी पता लेकिन बड़ा खुश था। कि सहरा में म

पुस्तक चर्चा - लौटती नहीँ जो हंसी (उपन्यास)

पुस्तक- लौटती नहीँ जो हंसी (उपन्यास) लेखक- तरुण भटनागर प्रकाशन- आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा) पुस्तक चर्चा- शक्ति सार्थ्य ____________________________________ विश्व पुस्तक मेले मेँ आये इस सजीव उपन्यास को मुझसे ज्यादा पढ़ने की आवश्यकता तो नेताओँ को होनी चाहिए... खैर कोई बात नहीँ ! एक आदमी जो कहीँ दूर जगह से आकर किसी ऐसी जगह (गाँव, जहाँ के लोग थोड़े भोले और अनपढ़ भी) पर आकर बस गया जहाँ पर उसे शुरु मेँ अपनी बोल चाल की शैली पल दर पल शिँकजा कसना पड़ता है... फिर जब वह वहाँ पर अपने पैर जमा लेता है... तो फिर क्या कहने... उसकी बात वोले तो 'पत्थर की लकीर' वह गाँव का सरपंच बन जाता है और उस गाँव मेँ उसके मुकाबले पर एक और शख्स है जिसे वह हरसंभव नीचा दिखाना चाहता है! गाँव मेँ एक मोड़ जब आता है जब गाँव की सीट निचले वर्ग के लिए आरक्षित है, तभी गाँव मेँ आकर बसे वो शख्स जंगलो मेँ रहने वाले एक आदिवासी को अपने यहाँ बसा लेते है... सत्ता आदिवासी की हुकुम हमारा... ये खेल तो राजनीति मेँ आये दिन खेले जाते है... इसमेँ कोई दोहराये नहीँ लेकिन लेखक ने जिस गहन शैली का प्रयोग किया है वो

पुस्तक चर्चा - मेरी आँखों में मुहब्बत के मंजर है (काव्य संग्रह)

पुस्तक- मेरी आँखों में मुहब्बत के मंजर है (काव्य संग्रह) कवि- दिनेश गुप्ता 'दिन' मो.+91-9028299524, ईमेल- dinesh.gupta28@gmail.com पुस्तक चर्चा - शक्ति सार्थ्य __________________________________________ इश्क-विश्क, प्यार-व्यार पर न जाने कितनोँ ने लिखा और उनके अन्दाज, अल्फाज़, जज्बात आदि को स्वीकारा भी गया... इसी परम्परा को लेकर अपने नये अन्दाज, नयेँ अल्फाज़ और जज्बातोँ को लेकर हाजिर हुए हमारे जमाने के उभरते हुए युवा कवि दिनेश गुप्ता जी। इन्हे शायर की संज्ञा देने से तनिक भी परहेज़ नहीँ किया जा सकता क्योँकि ये अपनी लेखनी को शायरी के मायनों में 'ढलने' में महारथी भी हैँ.... ...प्यार उस पर अमल या फिर दिल का दर्द जो आज के संमलैँगिग होते हुए जमाने पर कुछ फीका सा होता जा रहा है... कुछ राजनीतिक षणयंत्रों या फिर प्यार को दागदार करते रिस्ते, चंद बेरुखे अल्फाज़ लिए तेजाब का इस्तमाल करतेँ असफल प्रेमी जो प्यार की कीमत को सेक्स (ये सार्वजनिक करना जरुरी है) मेँ तौलते हैँ... सभी युगल जोड़ी को दागदार बनाने मेँ लगे हुए जिससे प्यार अपनी मूल पहचान खोते हुए घीसे-पिटे रास्

पुस्तक चर्चा - संवेदना के स्वर (काव्य संग्रह)

पुस्तक- संवेदना के स्वर (काव्य संग्रह) कवि- उमाशंकर चौबे 'संवेद' प्रकाशन- उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ (उप्र) मूल्य- ₹१५०/- पुस्तक चर्चा- शक्ति सार्थ्य _____________________________________________ कवि ने अपने पहले काव्य संग्रह 'संवेदना के स्वर' से लोगोँ की अंर्तमन संरचना उनका मर्म, संवेदना और ह्रदय मेँ निश्छल प्रेम के बीज बोने की सफलतम कोशिश की है। मुझे लगता है कि ये महज कोशिश  ही नहीँ सफल प्रयास भी है, जिसमेँ कवि चारोँ खानोँ से सफल दिखाई देता है।  कवि के अनुसार- सोये ह्रदय को स्पंदित करना, एक शांत सरोवर मेँ लहर पैदा करना, पत्थर मन मेँ विचारोँ को आरोपित करना या बजंर धरती पर संवेदनाओँ के बीज लगाना और उस बीज का अंकुरण ही संवेदना का स्वर है। इसी को केन्द्र मानकर बड़ी खूबसूरती से वुना गया है ये काव्य संग्रह! आइये अब चर्चा करते है इसके अंदर बसी रचनाओँ की-  इस पुस्तक की दूसरी कविता जिसका शीर्षक 'आ मैँ तुझको गीत सिखा दूँ' से कवि एक ऐसी भावना उकेरने की कोशिश करता है, जिसमेँ एक ऐसे युग की कल्पना है कि स्त्री के पायल की धुन पर पक्षियोँ का करलव जागृति होगा जो अब

पुस्तक चर्चा - दिल्ली दरबार (उपन्यास)

पुस्तक - दिल्ली दरबार (उपन्यास) लेखक- सत्य व्यास प्रकाशन - हिंदयुग्म - वेस्टलैंड मूल्य - ₹१५०/- दिल्ली दरबार अमेज़न लिंक पुस्तक चर्चा - शक्ति सार्थ्य _____________________________________________ दिल्ली दरबार दो दोस्तों की कहानी है। नहीं-नहीं। सिर्फ एक ही की। दूसरा तो बेचारा कथावाचक है। राहुल मिश्रा की कहानी। मोहित उर्फ झाड़ी की जुवानी। राहुल मिश्रा के बहुत से किस्से है। उन किस्सों का साक्षी है मोहित। राहुल मिश्रा जब पढ़ने के लिए झारखण्ड से दिल्ली पहुंचता है तो वो उसकी चकाचौंध में घुल जाना चाहता है। जैसे:- दो-चार गर्लफ्रैण्ड होनी चाहिए एक की अनुपस्थित में दूसरे का साथ। मतलब अकेलापन नहीं चाहिए। हर पल मौज-मस्ती। अच्छा पहनना। अच्छा खाना। घूमना। वगैरह-वगैरह। राहुल मिश्रा के तो वैसे कई सारे अफेयर रहे लेकिन दो अफेयर कुछ ज्यादा ही खास रहे। एक तो मकान मालिक बटुक शर्मा की इकलौती बेटी परिधि शर्मा। और दूसरा महिका रायजादा के साथ। महिका रायजादा के साथ वाला अफेयर महिका का अकेले हो जाने की वजह से अपना अकेलापन दूर करने के लिए ही राहुल मिश्रा से हुआ था। परिधि शर्मा के साथ वाला अफ

पुस्तक चर्चा - इश्क़ तुम्हें हो जायेगा (काव्य संग्रह)

पुस्तक- "इश्क़ तुम्हेँ हो जाएगा" (काव्य संग्रह) कवियत्री- अनुलता राज नायर प्रकाशक- हिन्द-युग्म प्रकाशन मूल्य - ₹ १००/- पुस्तक चर्चा - शक्ति सार्थ्य ------------------------------------------------------------ कविता मन मेँ चल रहे उन मापदण्डोँ का मापन करने मेँ पूर्णतया खरी उतरने के लिए प्रतिबध्द है जिसे किसी और माध्यम से सुलझाने मेँ कठिनता के साथ वक्त भी गवाँना पड़ता है। कविता एक माध्यम ही नही वरन् एक युक्ति भी है जिसे अपनाकर किसी भी शून्यता को जो अनायस ही आपके जीवन मेँ फैल पड़ी है को छाँटने मेँ सक्षम है। इश्क़ तुम्हे हो जाएगा... ऐसी कल्पनायेँ जो मिथ्या तो हो ही नहीँ सकती किन्तु सच्चाई के साथ चलने पर जरुर डगमगा जाती है। इश्क़ हरेक के नसीब मेँ नहीँ होता और न ही हरेक इसके नियमोँ का पालन कर पाता है, ग़र इश्क़ को इश्क़ तक ही सीमित रखा जाए तो शायद दुनिया मेँ इसके मुरीद कम ही रह जाए... कहने का तात्पर्य ये है कि इश्क़ की वदिँश मेँ उसके पालने मेँ पल रहे इश्क़-पुत्र का थोड़ा टकराव समाज के साथ होना लाज़िमी है, यही टकराव इश्क़ के पुख्तापन और गहराई का प्रतीक है... 'नाकाम इश्क़'