[ तस्वीर : 1982 के विश्वकप में ब्राज़ील के ज़ीको और सोक्रेटीज़ : "द ग्रेटेस्ट टीम दैट नेवर वॉन अ वर्ल्डकप"]
यह दुनिया फ़ुटबॉल⚽ की तरह गोल है!
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1950 का "माराकनाज़ो" मैंने अपनी आंखों के सामने घटित होते नहीं देखा था। बशर्ते 16 जुलाई 1950 के उस दिन मराकाना स्टेडियम में जो दो लाख लोग मौजूद थे, उनमें से किसी एक की आत्मा आज मेरी पसलियों के भीतर फ़ानूस की रौशनी की तरह क़ैद हो!
1970 में जब पेले की टीम ने विश्व कप जीता, और फ़ाइनल में किसी नक़्क़ाशी की तरह बुने गए "द ग्रेटेस्ट टीम गोल" की आख़िरी ठोकर कार्लोस एल्बेर्तो के पैरों के नीचे आकर खिल गई, तो वह भी कहां देखा?
1974 में जब नीदरलैंड्स ने "टोटल फ़ुटबॉल" खेला और दुनिया योहान क्रुएफ़ के पैरों के इर्द-गिर्द गेंद की तरह घूमने लगी, तब कौन जाने मैं किस दुनिया में, कौन-सा जीवन जी रहा था?
फ़ाइनल में वेस्ट जर्मनी से हारकर योहान क्रुएफ़ विश्वकप कभी न जीत पाने वाले दुनिया के महानतम फ़ुटबॉलर बने, तब एक डी स्तेफ़ानो ही थे, जिन्हें क्रुएफ़ से रश्क़ हो सकता था। क्योंकि डी स्तेफ़ानो तो कभी विश्वकप खेले भी नहीं थे!
मैं 1982 के साल में जन्मा था, और मुझे केवल दो बातों के लिए इस पर नाज़ है-
पहली, उस साल माइकल जैक्सन का एल्बम "थ्रिलर" आया था और दुनिया ने माइकल को चांद पर चहलक़दमी करते देखा था, "बिली जीन" की सर्पिल लहर में।
दूसरी, उसी साल सोक्रेटीज़ की ब्राज़ीली टीम ने फ़ुटबॉल के इतिहास का सबसे ख़ूबसूरत विश्वकप खेला था।
जी नहीं, सोक्रेटीज़ की टीम ने विश्वकप जीता नहीं था, उल्टे वे तो ग्रुप राउंड में ही बाहर हो गए थे, इसके बावजूद कोई नहीं कहता कि 1982 का विश्वकप इटली और रोस्सी ने जीता था, सभी कहते हैं कि वो "क्लास ऑफ़ 82" का विश्वकप था!
मुझे नाज़ है कि मैं उस साल जन्मा, जिस साल ब्राज़ीलियों ने फ़ुटबॉल को सिम्फ़नियों और कैन्चर्टो के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया था!
लेकिन महज़ तीन माह का बालक मैं भला तब इस बात को कैसे जान पाता?
वर्ष 1986 में जब दिएगो मारादोना ने "गोल ऑफ़ द सेंचुरी" दाग़ा, तब मैं केवल चार बरस का था।
लेकिन लेजेंडरी उरुग्वेयन कमेंटेटर विक्तोर ह्यूगो मोरालेस की उस कमेंट्री को मैं कैसे समझ पाता, जो आज भी सुनें तो रौंगटे खड़े कर देती है- आनंदातिरेक, एक्सटेसी, लगभग एक आध्यात्मिक अनुभूति-
"ख़ेनियो, ख़ेनियो, ख़ेनियो, ता-ता-ता-ता, गोssssssल, गोssssssल, किएरो योरार, दीया सांतोज़, वीवा ए फ़ुतबोल, गोssssssलाssssssज़ो, दिएssssssगो, माराssssssदोना..."
1998 में फ़ाइनल मुक़ाबला देर रात को हुआ था। ज़िनेदिन ज़िदान ने जब दो हेडर दाग़कर फ्रांस को किरनों का मुकुट पहनाया तो मैं नींद में ख़लल पड़ने से नाराज़ था। 16 साल की उम्र के बावजूद मुझे कहां मालूम था कि 1998 का साल केवल सचिन तेंडुलकर का साल नहीं था, वो ज़िनेदिन ज़िदान का भी साल था, जो उस साल "टोस्ट ऑफ़ पेरिस" बन गया था।
1998 में अर्खेंतीनी खेमे में माइकेल ओवेन की दु:साहसी सेंध कहां देखी? 2002 में रोनाल्डिनियो की जादुई फ्री-किक की ख़बर अख़बार में पढ़ी। 2006 के फ़ाइनल में एक भटके लमहे की तरह ज़िनेदिन ज़िदान का रेड कार्ड ज़रूर देखा और होटल की लॉबी में आधी रात को चाय पीते हुए उसका सोग़ बनाया। बुफ़ोन, तोत्ती, पीर्लो, कानावारो उस रात दुश्मनों जैसे मालूम हो रहे थे। 2010 के फ़ाइनल में अंद्रेस इनिएस्ता का विनर देखने से चूक गया, जब स्पेन के "टिकी टाका" ने दक्षिण अफ्रीका के घास के मैदानों को किसी क़शीदे की तरह एक पैटर्न में बुन दिया था।
1998 के विश्वकप का सबसे चमकीला युवा चेहरा था माइकेल ओवेन, 2002 का रोनाल्डिनियो। 2006 में क्रिस्टियानो रोनाल्डो के चर्चे थे, 2014 में हामेस रोद्रिगेज़ के।
हमने इनमें से कुछ देखा, कुछ नहीं देखा, लेकिन इतने सालों में धीरे-धीरे फ़ुटबॉल कब मेरा धर्म, जाति और राष्ट्रीयता बनता चला गया, इसका मुझे ही सबसे कम अहसास था।
और अब, यह 2018 का फ़ीफ़ा विश्वकप है, जिसकी तुरही कल क्रेमलिन की मीनारों वाले शहर में बजेगी!
एक लियोनल मेस्सी ही इस विश्वकप में ऐसा खिलाड़ी है, जिसके पास "लेजेंड" का स्टेटस है, जिसे आने वाली सदियां याद रक्खेंगी। लियो की टीम कमज़ोर है, और ख़िताबी दावेदारों के पासंग भी नहीं ठहरती, लेकिन ये उसी तरह से लियो का आख़िरी विश्वकप है, जैसे 2011 सचिन तेंडुलकर का आख़िरी विश्वकप था।
काश कि लियो मेस्सी यह विश्वकप जीते, और आज से पचास साल बाद मरने से पहले एक बार विश्वकप की ट्रॉफ़ी को चूमने की ख़्वाहिश जताए, जिसके बाद उसके नाती-पोते उसके हाथों में वह सोने की वह जादुई गेंद थमा दे, जो कि खेलों की दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार है, ओलिम्पिक मेडल से भी बड़ा!
फ़ुटबॉल विश्वकप कल से शुरू हो रहा है!
कल से एक जुनून इस दुनिया पर तारी होने वाला है!
इस जुनून का एक लम्बा इतिहास है, जिसमें आंसू, पसीना और ख़ून शामिल है!
आइए, दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत खेल के इस आलातरीन जलसे का इस्तक़बाल करें, घुटनों के बल झुककर उसका ऐहतराम करें, हंसें और रोएं और गुनगुनाएं और सिहरनों से भर जाएं, क्योंकि यह दुनिया आख़िर फ़ुटबॉल की तरह ही गोल है!
[फेसबुक पोस्ट से साभार]
⚽सुशोभित⚽
© सुशोभित सिंह सक्तावत
(असिस्टेंट एडिटर, "अहा! जिंदगी" पत्रिका, दैनिक भास्कर समूह ग्रुप)
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