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Showing posts from April, 2017

विनोद खन्ना में एक बेचैन और भटकती आत्मा के दर्शन होते हैं मुझे : ध्रुव गुप्त

मरने वाला कोई ज़िंदगी चाहता हो जैसे ! विनोद खन्ना आज हमारे बीच नहीं रहे। उनके बारे में मैं जब भी सोचता हूं, उनमें एक बेचैन और भटकती आत्मा के दर्शन होते हैं मुझे। जीवन की तमाम उपलब्धियों से परे अज्ञात की तलाश में निकला हुआ एक व्यक्ति। भारत विभाजन बे बाद भारत आये एक संपन्न व्यापारी परिवार की संतान विनोद खन्ना का दिल व्यापार में नहीं था। उनकी तलाश कुछ और थी। 1968 में सुनील दत्त की फिल्म 'मन का मीत' में एक खलनायक के तौर पर उनकी फ़िल्मी पारी शुरू हुई जो खलनायकी के कई-कई मीलस्तंभ पार करते हुए नायकत्व तक पहुंची। सातवे दशक में वे अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और राजेश खन्ना के साथ हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय नायकों की क़तार में शामिल थे। शिखर कुछ दूर नहीं था, लेकिन यहां भी उनकी तलाश ने भटका दिया। 1982 में सब छोड़-छोड़कर वे पहुंच गए ओशो के आश्रम में। ओशो के जूठे बर्तन धोए, उनके बाग़ के माली बने और उनके सबसे अंतरंग शिष्य भी।आश्रम के उनके समकालीन साधक बताते हैं कि आश्रम के पांच सालों में आध्यात्मिक उपलब्धियों का शिखर उनसे दूर नहीं था जब वे आश्रम त्याग कर घर लौट गए। 1987 में फिल्मों में उनकी वाप

तुम्हारी तरह (कविता) : वीरु सोनकर

-तुम्हारी तरह - मुझे एक स्थिर-बिंदु की तरह लो मैं मान लूंगा, यहाँ से आगे जाया जा सकता है मुझे लो अंधकार की तरह मैं खुद को आकाशगंगा के सभी छोरो तक बिखरा मान लूंगा या फिर प्रकाश की तरह लो शायद मैं तुम्हारी आँखों में आ कर बैठ जाऊं तुम मुझे झरना भी मान लेना पर ध्यान रखना मेरे गुप्त-स्रोत में ही मेरा सौंदर्य है एक विचार मानना, जो तुम्हारे पक्ष में आ जाने की हद तक मुलायम है एक विद्रोह की तरह भी, जो सबसे सहमत होने की प्रत्याशा में खुद से किया गया था एक देश ही मान लेना तुम, जो गांवों में बसता था जिसके तमाम नागरिक शहरों में लापता थे एक बीता हुआ बरस समझना, जो बीतने के बाद भी सदी के चेहरे पर ठहरा है जो तुम्हारे इस बरस तक भी बार-बार आ धमकता है नारे की तरह भी ले सकते हो मुझे तुम, सावधानी इस बात में है कि मैं तुम्हारे मुँह से न निकल आऊँ यूं ही किसी बातचीत में, मुझे तुम आयी-गयी बात सा भी ले सकते हो बहुत संभव है मैं किसी गंभीर मुद्दे सा वहीं ठहर जाऊं कविता में चला आया, मेरा आत्मसाक्षात्कार हो सकता है तुम्हारे ही चिंतन का प्रतिरूप हो अगर लेना बहुत अनिवार्य हो मुझे, तो लेना मुझे

GBU 43 Or MOAB (Massive Ordnance Air Blast) : अजीत सिंह

अमरीका के पास एक बम है । उसका technical नाम तो GBU 43 है पर आम बोलचाल की भाषा मे उसे MOAB कहते हैं । MOAB बोले तो Massive Ordnance Air Blast . इसके अलावा MOAB को Mother Of All Bombs भी कहा जाता है । पर मुझे अगर हिंदी में कहना होगा तो मैं इसे सभी बमों का बाप कहूंगा । धरती पे अब तक जितने भी विध्वंसक बम हैं उनमें Atom Bomb के बाद दूसरा नंबर इस MOAB का ही आता है । इसकी खासियत ये है की ये बहुत बड़ा होता है । बड़ा माने बहुते बड़ा । मने इसका वज़न 21,600 पौंड होता है मने 9525 किलो का बम ........ इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि किसी ने एक truck अत्यंत ज्वलनशील बारूद आपके शहर के बीचों बीच फोड़ दिया हो ........ और इसे F16 जैसे किसी लड़ाकू विमान से नही बल्कि भारी भरकम मालवाहक Hercules विमान से गिराया जाता है । गौर कीजिए इसे निशाने पे दागा नही जाता बल्कि गिराया जाता है , वो भी Parachute से । मने आसमान से मौत अचानक नही बल्कि धीरे धीरे टपकती है । मने आप अपनी मौत को अपनी तरफ आते देख सकते हैं ...... धीरे धीरे धीरे ...... इस बम में technology जो प्रयोग में लायी जाती है की bomb जब फटता है तो इससे बड़ी भयं

सुना था कि वो इश्क का खुदा है मगर : शक्ति सार्थ्य

सुना था कि वो इश्क का खुदा है मगर/ ___________ शहरोँ मेँ खेल बही पुराना छोड़ आए उन्हे अब हम खुद से सताना छोड़ आए दिल मेँ उठ रहे कुछ अनबुझे से गुबार क्योँ करके प्यार निभाना छोड़ आए जिक्र था उनसे खुद मेँ मिल जाने का कहता ये बार-बार दिवाना छोड़ आए सुना था कि वो इश्क का खुदा है मगर उसे खुद इश्क का ढूढ़ता ठिकाना छोड़ आए जमाने का हर शख्स यही बोलता है मगर सच से दूर भागता जमाना छोड़ आए ©शक्ति सार्थ्य shaktisarthya@gmail.com

बतख मियां के गांधी : ध्रुव गुप्त

महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर बापू अभी चर्चा में हैं। मैं थोड़ी सी चर्चा उस शख्स की करना चाहता हूं जो अगर न होता तो न गांधी नहीं होते और न भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वैसा होता जैसा हम जानते हैं। वे शख्स थे चंपारण के ही बतख मियां। बात 1917 की है जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद चंपारण के किसान और स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गांधी डॉ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के हाथों नीलहे किसानों की दुर्दशा का ज़ायज़ा लेने चंपारण आए थे। चंपारण प्रवास के दौरान जनता का अपार समर्थन उन्हें मिलने लगा था। लोगों के आंदोलित होने से जिले में विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की आशंका थी। वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में उन्हें रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। तब बतख मियां इरविन के रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के लिए बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। निलहे किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी। उनकी अं

कुछ भी हिला देने जैसा नहीं : शक्ति सार्थ्य

दुनिया मेँ कुछ लोग सिर्फ मरने के लिए ही पैदा नही होते बल्कि मरने के बाद भी जीवित रहने की कूबत रखते है। हाँ, ऐसे न जाने कितने महान व्यक्तित्व है जो आज हमारे बीच नहीँ होते हुए भी हमारे मार्गदर्शक और प्रेरणा-स्त्रोत बने हुए है। मुझे नहीँ लगता कि आपको उन व्यक्तियोँ के नाम गिनायेँ जाए। हम आए दिन उनके व्यक्तित्व से मुख़ातिब होते रहते है। दूसरोँ को भी उनके विचारोँ से अवगत कराते रहते है। हम उनके द्वारा किये गये महान कार्योँ की सराहना करते हुए प्रत्येक बर्ष उनकी याद मेँ एक मेले का आयोजन करते है। जगह-जगह उनकी सभायेँ लगाते है। प्रत्येक बर्ष उनके बतायेँ मार्गदर्शन पर चलने की कसमेँ खाते है। अब सवाल ये है कि ?? वो लोग ऐसा क्या कर गये जिन्हे भुला पाना आसान नहीँ? और हम अब ऐसा क्या कर रहे जो हमेँ लाईन पर लाने के लिए उनके विचारोँ का अनुसरण कराया जाता है? क्योँ हम अपने और उनके बीच सामजंस नही बिठा पाते? क्योँ हम अपनी मानसिकता उनकी जैसी नहीँ कर सकते? क्योँ हम अपना स्वार्थ नहीँ छोड़ते? क्या उनका परिवार नहीँ था? क्या उनका अपना समाज नहीँ था? क्या उन्हे चैन से रहने की अनुमति नहीँ थी? क्या वे एक मानव नहीँ

आप रूठोगे अगर दिल इस तरह बहलाएंगे (ग़ज़ल) : ध्रुव गुप्त

आप रूठोगे अगर दिल इस तरह बहलाएंगे एक दफ़ा खोलेंगे गुत्थी, सौ दफ़ा उलझाएंगे अपने पागल इश्क़ की सोंधी सी खुशबू है यहां हम कहीं भी जाएं, ज्यादा तो यहीं रह जाएंगे भीड़ से थोड़ा जुदा है तेरे आशिक़ का मिज़ाज उठ गए ग़र दर से तेरे, अर्श पर छा जाएंगे फ़ासलों में ख़्वाहिशें जितना भी भटकाएं हमें हम मिले तो उनके सारे पेंचोख़म सुलझाएंगे उतना चलना है कि जितने फ़ासले पर वो मिले देखने हैं ख्वाब, जितने ख्वाब वो दिखलाएंगे रोज़ कम होंगी उम्मीदें, रोज़ घबड़ाएगा दिल रोज़ हम तौबा करेंगे, रोज़ हम आ जाएंगे [फेसबुक से साभार] ©ध्रुव गुप्त dhruva.n.gupta@gmail.com

भागी हुई लड़कियां (कविता) : आलोक धन्वा

एक घर की जंजीरें कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं जब घर से कोई लड़की भागती है क्या उस रात की याद आ रही है जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी जब भी कोई लड़की घर से भगती थी? बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी? और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के आज अपने ही घर में सच निकले! क्या तुम यह सोचते थे कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए रचे गए? और वह खतरनाक अभिनय लैला के ध्वंस का जो मंच से अटूट उठता हुआ दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था? दो तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं कभी वह खत जिसे भागने से पहले वह अपनी मेज पर रख गई तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से उसका संवाद चुराओगे उसका शीशा उसका पारा उसका आबनूस उसकी सात पालों वाली नाव लेकिन कैसे चुराओगे एक भागी हुई लड़की की उम्र जो अभी काफी बची हो सकती है उसके दुपट्टे के झुटपुटे में? उसकी बची-खुची चीजों को जला डालोगे? उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे? जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से बहुत अधिक सन्तूर की तरह केश में तीन उसे मिटाओगे एक भागी हुई लड़की को मिट

मंगर-मंगर आठ (कविता) : शक्ति सार्थ्य

वह फटे लिवास मेँ घास-फूँस के छप्पर निवास मेँ मग्न थी, उसकी भी ख्वाहिशेँ थी पर दबी-दबी सी मृत झाड़ियोँ सी वह थी, खेलती रहती नगेँ पैर धूप मेँ छाँव मेँ जाड़े की कहर बरपाती ठण्ड मेँ काँकती-सी ठिठुरती-सी उसकी एक अजब दुनिया थी, वह थी यहीँ की लेकिन उसने वो दुनिया- अपने धैर्य से जन्मी थी मासूम सी- गुँजटेँ हुए वालोँ की दो चोटी लिए इतराती मिनटोँ.. घण्टोँ... उसके चेहरे की चमक- मानो कुदरत ने कोई चित्रकारी की हो बड़ी-बड़ी आँखे होँठोँ पे गुलाबी मुहर गालोँ पे कली कली मोहिनी मुस्कान माथेँ पर न कोई शिकन नाक की अपनी तलछटी आज सन्न है पूरी बस्ती उसकी विधवा माँ की हस्ती कहीँ दूर से रोज आने वाले परदेशी बाबू ने हथिया लिए उनके ठिकाने गरीबोँ के घास-फूँस के मैले आशियाने पस्त थे सभी छोटे-मोटे लेकिन हसीँ सपने वह शहर की कचरे वाली गली मेँ बू झाड़ते उनमेँ खोज-बीन करते कुत्ते रात को वहीँ कोने मे ढेर होते दर्द भारी अवाजेँ इज़ाद करते शायद दिल से सुना जाये तो वे ईश्वर से अपनी उम्र घटाने की सिफारिशेँ करते मिन्नतेँ करते वहीँ पास मेँ मंगर-मंगर आठ रोज से भूखी वह,

सरप्राईज़ (कहानी) : शक्ति सार्थ्य

आजकल कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहता था विराग। ऑफिस मेँ भी ओवर टाईम करता। और घर पर भी घण्टोँ काम करता। शायद वो अपनी पुरानी यादोँ से पीछा छूड़ाना चाहता था। उसकी और 'सुरभि' की यादें। दरासल बात उन दिनोँ की है जब विराग बी.एस.सी. सेकेण्ड ईयर मेँ था। यूँ तो विराग और सुरभि एक ही कॉलेज मेँ पढ़ते थे पर कॉलेज के सेकेण्ड ईयर तक उनकी कोई मुलाकात तक नहीँ हुई थी। या यूँ कहिये कि अब तक दोनोँ एक दूसरे को जानते तक नहीँ थे। एक दिन जब विराग कॉलेज कैँटीन मेँ अपने दोस्तोँ के साथ खड़ा था, तो वहाँ एक लड़की आयी और कैँटीन वाले से बोली, 'भईया एक कोल्ड्रिँग देना।' कमर तक लम्बे बाल। होँठो पर हल्की लेकिन प्यारी मुस्कान। काजल से गहरी बड़ी आँखे। चेहरे पे एक ऐसा निखार जो पूरी कैँटीन को चमका दे। सीधी। हल्कि सी पतली। उसके कानोँ की बाली से होता हुआ सूर्य का मध्दम प्रकाश उसके गालोँ पे मानोँ अठखेलियाँ खेल रहा हो। सातोँ रंग मानोँ यही हो। विराग उसे देखता ही रह गया। कुछ देर बाद वो लड़की वहाँ से जाने लगी। यूँ तो विराग को शुरु से ही लड़कियोँ मेँ कोई खास दिलचस्पी नहीँ थी, पर उस लड़की को देखकर विराग को न जाने क्या हुआ कि

शक्ति सार्थ्य की कवितायें

१-) गहराई जीवन की/ कविता मुझे पता है कि क्या होगा मेरे इस हाड़-माँस के शरीर का मैँ अपने इस जीवन को सुखमय जीवन देकर गरीबोँ की बद्दुआयेँ एकत्र करना नहीँ चाहता न ही अपने को शून्य समझकर किसी दुःख को बढ़ावा दूँगा मेरा कर्त्तव्य मुझे मनुष्य की परिभाषा मेँ गढ़े रहने की सख्त हिदायत देता- मैँ कर्त्तव्योँ से मुड़कर अपनोँ को दुःख दूँगा और अपने लिए शून्यकाल मेँ व्यतीत होने वाला जीवन, जीवन की रेखा उलागंना जीवन की मय्यत मेँ भाग लेने जैसा- ये संभव नहीँ है मेरे लिए- मैँ दुःखोँ मेँ अगर लिप्त हुआ तो उस दुःख भरे जीवन मेँ अपने लिए एक जीवन तलाश करुगाँ- शायद वो जीवन कागज-कलम के बीच व्यतीत होगा ये जीवन मुझे मरने नहीँ देगा सदा एक ऐसी संतुष्टी देगा कि मैँ अपनोँ के साथ-साथ औरोँ का भी मित्र बन जाऊगाँ बिना किसी शर्त के मित्र की तरह! २-) जीवित होने मेँ मृत्यु-गीत/ कविता जिन्दगीँ यूँ हीँ एक किताब पर दर्ज होती गई... और ढलती गई एक शाम की तरह... मैँ बस, वेबस- उसमेँ शराब के सोडा- सा मिलता गया... 'मरता क्या न करता' शायद यही आलम था मेरे जीवन का मैँ

शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोनकर का निधन भारतीय संगीत के लिए एक सदमे जैसा है : ध्रुव गुप्त

पिछली रात समकालीन शास्त्रीय गायक-गायिकाओं में अग्रणी 84 वर्षीय किशोरी अमोनकर का निधन भारतीय संगीत के लिए एक सदमे जैसा है। बीसवी सदी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो ख्याति किशोरी अमोनकर को मिली, वह किसी और को नसीब नहीं हुई। अपनी यशस्वी गायिका मां मोगुबाई कुर्दिकर और जयपुर घराने के दिग्गज गायक अल्लादिया खान साहब की इस शिष्या की सुरीली आवाज़ ने दशकों तक संगीत प्रेमियों को मंत्रमुग्ध किया है। उन्होंने न केवल जयपुर घराने की गायकी की तकनीक पर पूरा अधिकार प्राप्‍त किया था, बल्‍कि अपने कौशल और कल्‍पना से एक नवीन शैली भी विकसित की थी जिसमें संगीत के अन्‍य घरानों की बारीकियां भी झलकती हैं। वे अपनी गायकी में संगीत के व्याकरण की जगह भावों को ज्यादा अहमियत देती थीं जिसके चलते वे अक्सर घराने की की परंपरा से बाहर भी निकल जाती थीं। किशोरी जी को मुख्य रूप से खयाल गायकी के लिए जाना जाता है, लेकिन उन्होंने ठुमरी,भजन और फिल्मी गाने भी बिल्कुल अलग अंदाज़ में गाए हैं। महान फिल्मकार व्ही शांताराम की फिल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' का टाइटल गीत उन्हीं का गाया हुआ है। इसके अलावा 195

बच्चों में फैल रहीं अवसाद की मूल जड़े उनके घर से ही निकलती है : शक्ति सार्थ्य

एक बात तो हर किसी के समझ तो आती किंतु उसका कोई औचित्य नहीं बन पाता है। वो ये है जब कोई कमजोर बच्चा अपनी कमजोरी की बजह से हर समय अथाह तनाव और अवसाद की स्थिति में रहता है। और उसके चारों ओर का वातावरण उसके अनुरूप भी नहीं होता है। तब वह और अपने आप को हर पल असुरक्षित महसूस करता है। ये जो दुनिया है ना उसे खा लेनी वाली लगती है। वो न चाहकर भी गलती कर बैठता है। ऐसा बचपन से उसके साथ नहीं होता है। कई दफा तो उसके मन में इस बात का कीड़ा बिठा दिया है कि अब ये नहीं उभर पायेगा या फिर कुछ कर पायेगा। मैं जहाँ तक देख पा रहा हूं कि ये क्या है? क्या कोई भी बच्चा जो थोड़ा ढीला है या फिर उसकी समझ उतनी तेज नही जितनी की उसकी उस उम्र में होनी चाहिए? तो फिर वो क्या कुछ हांसिल नहीं कर सकता? कई मायने में तो हम ही उसका मनोबल गिरा रहे होते है जब वह कुछ करना चाह रहा होता है तब हम कह उठते है "कि तुमसे नहीं हो पायेगा बेटा, तुम आराम से बस बैठकर ये देखो" जब ये शब्द उसके कानों मे दस्तक देते है तो वह आराम से बैठ भी नहीं पाता है और मन ही मन अंदर पिसता चला जाता है। वह कहीं और भी मन नही लगा पाता, सिर्फ खाल

नजरदांज : शक्ति सार्थ्य

एक पल के लिए तो मर ही गया था वो उसने ये भी सोंच लिया था कि नहीं मिल पायेगा अब कभी भी प्रेयसी से हां जब वो धुना जा रहा था केवल एक चुंबन को याद कर रहा था और वह सोंच रहा था... अगले चुबंन की तैयारी के लिए ले आया था शहर से दूर उस खंडहर में जहां अक्सर लोग आलिंगन की मुद्रा में पाये जाते, ठीक उससे कुछ ही दूरी पर प्रेयसी का भ्राता आलिंगन की मुद्रा में था [फिर क्या? वह अपने कर्मों को नजरदांज कर.., बरस पड़ा था प्रेयसी का भ्राता] ©शक्ति सार्थ्य shaktisarthya@gmail.com