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Showing posts from April, 2018

जहां स्त्री व्यक्ति नहीं, देह है - ध्रुव गुप्त

जहां स्त्री व्यक्ति नहीं, देह है ! देश के कोने-कोने से जिस तरह नन्ही बच्चियों और किशोरियों के साथ सामूहिक बलात्कार और उनकी नृशंस हत्याओं की खबरें आ रही हैं, उससे पूरा देश सदमे में है। कभी आपने सोचा है कि आज देश में बलात्कार के लिए फांसी सहित कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होने के बावज़ूद स्थिति में कोई बदलाव क्यों नहीं आ रहा है ? शायद बलात्कार को देखने का हमारा नजरिया और उसकी रोकथाम के प्रयासों की हमारी दिशा ही गलत है। हम स्त्रियों के प्रति इस क्रूरतम व्यवहार को सामान्य अपराध के तौर पर ही देखते रहे हैं, जबकि यह सामान्य अपराध से ज्यादा एक मानसिक विकृति, एक भावनात्मक विचलन है। दुर्भाग्य से इस विकृति या विचलन को बढ़ावा देने वाली वज़हों पर किसी का ध्यान नहीं है। पुलिस में तीन दशक के कार्यकाल में मेरा अपना अनुभव रहा है कि देश में नब्बे प्रतिशत बलात्कार की घटनाओं के लिए अश्लील ब्लू फिल्में और नशा ज़िम्मेदार हैं। बलात्कार की मानसिकता बनाने में स्त्री को भोग और मज़े की चीज़ के रूप में परोसने में ऐसी फिल्मों की बड़ी भूमिका है। स्त्रियों के साथ यौन अपराध पहले भी होते रहे थे, लेकिन इन फिल्मों की

कंफेशन (Confession) - शक्ति सार्थ्य

मुझे नहीं मालूम कि कंफेशन कैसे किया जाता है फिर भी कंफेशन कर रहा हूं... हे ईश्वर ! शायद ही आपसे कुछ छूटा हो। किंतु फिर भी मैं आज एक-एक करके अपनी सभी गलतियों को आपके सामने दोहराना चाहता हूं। मैं इस लिए दोहराने की कोशिश नहीं करूंगा कि शायद आप मेरी सभी गलतियों को सुनकर मुझे माफ़ कर देंगे। बल्कि इसलिए कि मुझे भी ठीक-ठीक से पता चल सके कि मैं खुद कितना पापी हूं। मुझे मालूम है कि आज मैं आपके द्वार पर खड़ा हूं। मैं कभी भी धार्मिक स्थलों पर खुद से झूठ नहीं बोल पाता। हां यदि आज मैं यहां खड़ा न होकर कहीं और खड़ा होता तो शायद अपने आप से भी झूठ बोलने से नहीं कतराता। क्योंकि मैं मनुष्य जो ठहरा। मनुष्य की फितरत ही ऐसी होती हैं कि वह न चाहकर भी सच्चाई गटक जाता है। और झूठ को सच की मोहर साबित कर उसे ही हर दस्तावेज पर चस्पा करता जाता है।      मेरी आज आपसे अपनी एक शिकायत है पहले वो पेश करूंगा। फिर अपना इकबाले बयां। मुझे तब ज्यादा दुःख होता है जब कोई आपके नाम का इस्तेमाल कर मोटी रकम कमाता है, और आप भी न उसे उस नीच कुकर्म के लिए खूब साधुवाद भी देते हैं। ये बात आप अच्छे से जानते हैं कि वह मेरे न

हम स्वयं ही अपने दु:ख के निर्माता है - शक्ति सार्थ्य

हमारे दु:खी रहने का हमें कोई भी ऐसा अधिकार प्राप्त न होने के बावजूद भी हमें दु:खी होना पड़ जाता हैं। कई बार हम दूसरों के द्वारा की गई साजिशों के कारण ही दु:ख भरे अवसाद में चलें जाते हैं। अक्सर ये भी होता है कि हम उस साजिश की वजह से दु:खी नहीं होते हैं। बल्कि उस साजिशकर्ता की वजह से दु:खी हो उठते हैं जिसकी हमने शायद ही कोई कल्पना की हो। हम सब इतना तो जानते हैं ही कि यदि हम किसी भी वस्तु को लेकर निराश होकर बैठ जाते हैं तो इससे उस वस्तु में कोई भी बदलाव नहीं होता। उल्टा हमारा मस्तिष्क और क्षतिग्रस्त हो जाता है। जिसका दुष्परिणाम हमें और गहरे अवसाद में ढकेल देता है। फिर सवाल उठता है कि दु:ख से कैसे निपटा जाए?        हमें पहले एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि "दु:ख एक क्रिया है, जिसे हम स्वंय अपनी हानि के द्वारा ही उपजते हैं, यदि हमें कभी भी किसी तरह की हानि न हो तो दु:ख स्वत: ही मृत हो जायेगा।"       अब एक सवाल और जन्म लेता है कि ऐसा कैसे संभव है कि जीवन में कोई भी ऐसा क्षण न आया हो जब हमें हानि का सामना न करना पड़ा हो? इसका मतलब है कि हमें दु:खी रहना ही पड़ेगा?

एक पत्रकार ऐसा भी - अमित धर्मसिंह

एक पत्रकार ऐसा भी... मुज़फ्फर नगर में एक पत्रकार ऐसा भी है जिसके पास न अपनी छपाई मशीन है, न कोई स्टाफ और न सूचना क्रांति के प्रमुख साधन-संसाधन। मात्र कोरी आर्ट शीट और काले स्केज ही उसके पत्रकारिता के साधन हैं। तमाम शहर की दूरी अपनी साईकिल से तय करने वाले और एक-एक हफ्ता बगैर धुले कपड़ों में निकालने वाले इस पत्रकार का नाम है दिनेश। जो गाँधी कालोनी का रहने वाला है। हर रोज अपनी रोजी रोटी चलाने के अलावा दिनेश पिछले सत्रह वर्षों से अपने हस्तलिखित अख़बार "विद्या दर्शन" को चला रहा है। प्रतिदिन अपने अख़बार को लिखने में दिनेश को ढाई-तीन घंटे लग जाते हैं। लिखने के बाद दिनेश अखबार की कई फोटोकॉपी कराकर शहर के प्रमुख स्थानों पर स्वयं चिपकाता है। हर दिन दिनेश अपने अख़बार में किसी न किसी प्रमुख घटना अथवा मुद्दे को उठाता है और उस पर अपनी गहन चिंतनपरक निर्भीक राय रखते हुए खबर लिखता है। पूरा अख़बार उसकी सुन्दर लिखावट से तो सजा ही होता है साथ ही उसमें समाज की प्रमुख समस्याओं और उनके निवारण पर भी ध्यान केंद्रित किया जाता है। सुबह से शाम तक आजीविका के लिये हार्डवर्क करने वाले दिनेश को अख़बार चलान

हंगामा है क्यों बरपा - ध्रुव गुप्त

हंगामा है क्यों बरपा ! एस.सी / एस.टी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के एक संशोधन के बाद कुछ दलित संगठनों द्वारा आज भारत बंद के आह्वान का समर्थन वस्तुतः क़ानून के राज का निषेध है। दलितों के अधिकार और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए बनाया गया यह कानून एक प्रगतिशील और ज़रूरी कदम था, लेकिन सच यह भी है कि इस क़ानून का दुरूपयोग भी बहुत हुआ है। इस क़ानून का ही क्यों, आई.पी.सी की धाराओं सहित लगभग हर कानून का इस देश में खुलकर दुरूपयोग हुआ है। झूठा केस बनाने के लिए भी और बदले की नीयत से निर्दोष लोगों को फंसाने में भी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में वस्तुतः इस क़ानून के साथ कोई छेड़खानी नहीं की है। उसका कहना इतना भर है कि एस.सी / एस.टी एक्ट के मामलों में अभियुक्तों की तुरंत गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए। दूसरे अर्थों में काण्ड के आरोपियों को थानों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। पुलिस का एक सीनियर अफसर पहले मामले की जांच करके घटना और आरोपों की सत्यता के संबंध में आश्वस्त हो ले और उसके बाद ही गिरफ्तारी की कार्रवाई की जाय। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय सही, लेकिन एकांगी है। मेरा मानना है कि उसका यह दिशानि