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Showing posts from July, 2019

प्रेमचंद के फटे जूते - हरिशंकर परसाई

प्रेमचंद के फटे जूते: हरिशंकर परसाई प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूँछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं। पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं। दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है। मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ—फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है। मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तु

वक्त, मैं और किस्मत - शक्ति सार्थ्य

वक्त, मैं और किस्मत/ मैं परेशां हूँ अपने आप से या वक्त के प्रकोप से या फिर किस्मत के चले जाने से यूँ जिन्दगी को जीना किसी बड़े जोखिम से कम नहीं गर वक्त पे पकड़ मजबूत हो या फिर किस्मत का साथ हो, तो कहा जा सकता है सबकुछ इस बंद मुठ्ठी में समाहित है- समाहित है वो स्वप्न, जो अक्सर हमें एक नई दुनिया में ले जाता हमारा आज क्या? कल भी सफल होता है, मैं इसी उधेड़-बुन में हूँ कि वक्त कब आयेगा अपने रंग में कि किस्मत कब लौट आयेगी अपने घर में, मैं एक सकरी सी उम्मीद पर भी औधें-मुहँ मात खाता मेरा आज, आज नहीं कल का क्या भरोसा? कुछ रूठ के चले जाते है किंतु आने की उम्मीद तो छोड़ जाते है- वक्त का रूठना किस्मत का रूठ के जाना अनहोनी को घर का सदस्य होने जैसा- ये कहा जा सकता है कि अनहोनी प्रत्यक्ष रुप से व्युत्क्रमानुपाती होती है वक्त और किस्मत के और जिसका मैं शिकार हूँ ! -शक्ति सार्थ्य [12-July-2014] खूबसूरत पेंटिंग साभार :- Mayank Chhaya सर