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Showing posts from March, 2018

थायरायड के लक्षण व बचाव

थायरायड के लक्षण व बचाव । गले के मध्य तितली के आकार की एक ग्रंथि होती है , जिसमें थ्रायोक्सीन नामक हार्मोन बनता है । इस हार्मोन का जब संतुलन बिगड़ने लगता है तो थायरायड नामक रोग लग जाता है । जब थ्रायोक्सीन हार्मोन बढ़ जाता है तो उसे हाइपर थायरायड कहा जाता है । जब यह हार्मोन कम हो जाता है तो इसे हाइपो थायरायड कहा जाता है । थायरायड की समस्या औरतों में ज्यादा होती है । दुनियां की हर तीसरी औरत आज इस समस्या से जूझ रही है । पुरुषों में भी यह समस्या देखी जा रही है । मधुमेह , हृदय रोग के बाद थायरायड की समस्या अब आम हो गयी है । थायरायड से प्रजनन क्षमता पर असर पड़ने लगा है । एनीमिया , गर्भपात और उच्च रक्तचाप की समस्या भी बढ़ने लगी है । हाइपर थायरायड के लक्षण - मन किसी काम में नहीं लगना , वजन कम होना , दिल की धड़कन बढ़ जाना , हाथ और पैरों में कपकपी होना , गर्मी ज्यादा लगना । हाइपो थायोरायड के लक्षण - वजन का बढ़ना , कब्ज रहना , भूख न लगना , त्वचा रुखी होना , ठंड ज्यादा लगना , आवाज भारी हो जाना , आंखों व चेहरे पर सूजन , सिर गर्दन व जोड़ जोड़ में दर्द होना । कारण - तनाव, दवाओं का प्रभाव

गुस्सा एक स्वभाविक प्रक्रिया है, जिसका आना कोई नई बात नहीं है - शक्ति सार्थ्य

"गुस्सा, हमारे भीतर उग आई तनाव की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे हम बिना सोचे समझे किसी और पर एक नये और तीखे अंदाज में उड़ेल देते है।" "गुस्सा, आपके भीतर धैर्य की कमी को भी दर्शाता है" अक्सर हमने देखा होगा कि हम गुस्सा करने के तत्पश्चात एक तरह की राहत महसूस करते हैं। हमारे भीतर जो भी अनावश्यक चल रहा होता है, उसे हम अपने गुस्से के माध्यम से ही बाहर निकाल पाते हैं। यदि हम गुस्से के माध्यम से वो बातें जो हमारे लिए हानिकारक हो सकती है को बाहर न निकाले तो हम अवसाद की एक बड़ी गहरी नींद में जा सकते हैं। या फिर हम किसी बड़े नुकसान की ओर भी जा सकते हैं।     हमारे अंदर बढ़ रहे प्रेशर को हम गुस्से से ही रिलीज कर पाते हैं। कभी कभी गुस्सा इतना बढ़ जाता है कि इसकी नुकसान की भरपाई करना भी हमें मुश्किल हो जाता है। *** हमें गुस्सा आता क्यों हैं? 'गुस्सा एक स्वभाविक प्रक्रिया है, जिसका आना कोई नई बात नहीं है, ये स्वत: उत्पन्न होने वाली क्रिया है।' सही मायने में कहा जाए तो गुस्सा धैर्य की कमी का ही एक कारक है। जब हम छोटी-छोटी बातों को लेकर धैर्य नहीं रख पाते हैं तब ग

उम्मीदों पे खरा नहीं है कपिल का नया शो 'फैमिली टाइम विद कपिल शर्मा' - शक्ति सार्थ्य

फैमिली के साथ समय बिताने के लिए आपको "फैमिली टाइम विद कपिल शर्मा" शो की जरूरत नहीं बल्कि फैमिली के साथ यात्राएं करने की जरूरत है/ सोनी टीवी पर २५-०३-२०१८ को कपिल शर्मा के नये शो "फैमिली टाइम विद कपिल शर्मा" की शुरुआत बहुत ही ढीली रही। ये एक गेम शो है जिसे बहुत सारी कंपनियों ने मिलकर सोनी टीवी और और कपिल शर्मा को स्पॉन्सर किया है। ये कोई मनोरंजक फैमिली शो नहीं है। बल्कि मार्केटिंग बेस्ड शो है। जिसे भोले-भाले दर्शकों को उनके प्रॉडक्टों के नाम याद रहे और उनकी मार्केट वैल्यू बढ़ती जाये के उद्देश्य से तैयार किया गया है। इस शो में एक दिलचस्प बात ये है कि यहां कपिल की एक और खूबसूरत-हॉट को-होस्ट नेहा जी को गेम मास्टर के रूप में शामिल किया गया है। जिसका जाहिर-सा उद्देश्य है सोनी टीवी का कि फूहड़ जुगलबंदी के साथ ये जोड़ी उन नवयुवकों को बांधे रखेगी जो कभी इस तरह के शो का हिस्सा बनना पसंद ही नहीं करते हैं।       ये शो अपनी पॉपुलरिटी को हासिल करने के लिए बड़े ही धड़ल्ले से गिफ्ट बांट रहा है शो में शामिल हुए प्रतिद्वंद्वी और दर्शकों को। कोई भी कठिनाई महसूस नहीं हो रही गिफ

हिचकी एक उम्मीद है उन छात्रों के लिए जो भेदभाव वाली दुनिया में जी रहे हैं - शक्ति सार्थ्य

हिचकी एक उम्मीद है उन छात्रों के लिए जो भेदभाव वाली दुनिया में जी रहे हैं हिचकी,,,, मैं पहले इसके बारे में क्लियर कर दूं कि ये है क्या..? हिचकी एक तरह की टॉरेट सिन्ड्रोम है जो न्यूरोलॉजीकल कंडीशन का ही एक रूप है। जब दिमाग के सारे तार आपस में जुड़ नहीं पाते हैं तो व्यक्ति को लगातार हिचकी आती है। और वह व्यक्ति अजीब-सी आवाजें निकालता है। हिचक एक ऐसी ही बीमारी से पीड़ित महिला नैना माथुर (रानी मुखर्जी) की कहानी है जिसे छात्र जीवन से लेकर के टीचर बनने तक कई बार रिजेक्शन का सामना करना पड़ा। इस फिल्म में रानी का किरदार अमेरिकन मोटिवेशनल स्पीकर और टीचर ब्रैड कोहेन से प्रेरित है, जो कि टॉरेट सिन्ड्रोम के चलते तमाम परेशानियां झेलकर भी कामयाब टीचर बने। उन्होंने अपनी लाइफ पर एक किताब भी लिखी, जिस पर 2008 में फ्रंट ऑफ द क्लास नाम से अमेरिकन फिल्म भी आई। अब बात करते हैं फिल्म और जरूरी मुद्दों की- फिल्म में एक ऐसी क्लास 9F को दिखाया गया है जिसमें पढ़ने वाले सभी १४ छात्रों को सिर्फ और सिर्फ इस लिए पढ़ने की परमिशन मिली है कि वे सभी छात्र एक मुन्सीपल्टी स्कूल से है जो उस स्कूल के सामने सिर

प्रेम की दरकार किसे नहीं होती - शक्ति सार्थ्य

प्रेम की दरकार किसे नहीं होती? प्रेम ही तो है जो हमें बांधे रखता है, मैं प्रेम कि इस प्रक्रिया का कायल हूं शायद आप भी? हां, आप कहने से डरते होंगे वो प्रेम ही तो है मां-बाबा का जिसने आपको असंस्कारी नहीं होने दिया वो छोटी बहन का प्रेम जिसने हमेशा दूसरों की बहनों को उजड़ने से बचाया है आजतक हां वो पत्नि का निस्वार्थ प्रेम जिसने हमेशा आपकी मर्यादाओं को मर्यादा में रहने दिया प्रेम कभी कुछ नहीं मांगता हम ऋणी है इसके जिसने हमें हमेशा तर्क-वितर्क को समझने में सहायता की है हां, कुछ लोगों के लिए कुछ वक्त के लिए मजाक तो जरूर रहा है प्रेम जिसने इसके मजाकियेपन से ही सबकुछ एक पल में खो दिया किंतु बाद में महत्व जरूर समझ आया होगा प्रेम का अपराधबोध की अग्नि में जला होगा वो जिसने इसकी पवित्रता को खण्डित किया होगा प्रेम अनुभूति है, अहसास है, एक युग है हां, ये संवेदनशील भी है नाज़ुक है इसे पढ़ पाना उतना कठिन भी नहीं है जितना हम समझते आयें है आजतक प्रेम एक यात्रा हैं, अनंत यात्रा एक अंतहीन छोर प्रेम सात्त्विक है, ध्यान है निश्छल है प्रेम एक ज्ञान है, पहचान है हमार

नवोदित (यंग पोएट्स)

नवोदित (यंग पोएट्स) ___________________ जैसे तुम्हारा मन हो वैसे लिखो किसी भी शैली में जो तुम्हें पसंद हो बहुत खून बह चुका इस पुल के नीचे महज इस भ्रम के नाम पर कि केवल एक ही रास्ता है जो सही है कविता में सबकुछ स्वीकृत है बेशक लेकिन लिखो तो केवल एक शर्त पर कि खाली पन्ने को भरोगे तो बेहतर से भरोगे. _____________ निकानोर पर्रा *** बंदर को कविता लिखना सीखाना ____________________________ उन्हें एक बंदर को कविता लिखना सीखाने में कुछ ज्यादा परेशानी नहीं हुई पहले उन्होंने उसे कुर्सी बिठाया और फिर उसके हाथ में एक पेंसिल बांध दिया (कागज़ पहले से ही वहाँ रख दिया गया था) फिर डॉक्टर ब्लूस्पाइर उसके कंधे पर झुके और उसके कान में फुसफुसा कर कहा : ‘ तुम यूँ लग रहे हो जैसे तुम में दैवी क्षमता है तो तुम कुछ लिखने की कोशिश क्यों नहीं करते? ’ ____________ जेम्स टेट *** कविता की गलती ______________ मौत के बाद भी सुधर थोड़े जाएगी तुम्हारी कविता की ग़लती मौत कोई प्रूफ़ रीडर थोड़े न होती है मौत नहीं होती है कोई महिला सम्पादक जिसे तुम्हारी कविता से सहानुभूति हो एक

राग दरबारी उपन्यास के पचास वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में पढ़िए इस उपन्यास की प्रस्तावना

प्रस्तावना ‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। तब से अब तक इसके दर्जनों संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। 1969 में ही एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी बहुत लम्बी समीक्षा इस वाक्य पर समाप्त की : ‘अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।’ दूसरी ओर इसकी अधिकांश समीक्षाएँ मेरे लिए अत्यन्त उत्साहवर्धक सिद्ध हो रही थीं। कुल मिलाकर, हिन्दी समीक्षा के बारे में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि एक ही कृति पर कितने परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं। उपन्यास को एक जनतांत्रिक विधा माना जाता है। जितनी भिन्न-भिन्न मतोंवाली समीक्षाएँ-आलोचनाएँ इस उपन्यास पर आईं, उससे यह तो प्रकट हुआ ही कि यही बात आलोचना की विधा पर भी लागू की जा सकती है। जो भी हो, यहाँ मेरा अभीष्ट अपनी आलोचनाओं का उत्तर देना या उनका विश्लेषण करना नहीं है। दरअसल, मैं उन लेखकों में नहीं हूँ जो अपने लेखन को सर्वथा दोषरहित मानकर सीधे स्वयं या किसी प्रायोजित आलोचक मित्र द्वारा बताए गए दोषों का जवाब देकर विवा

एक दिन की बादशाहत - ध्रुव गुप्त

एक दिन की बादशाहत ! हमेशा की तरह 'महिला दिवस' की आहट के साथ एक बार फिर स्त्री-शक्ति की स्तुतियों का सिलसिला शुरू हो गया है। हर तरफ भाषण-प्रवचन हैं,यशोगान हैं, कविताई हैं, संकल्प हैं, बड़ी-बड़ी बातें हैं। आप स्त्रियां मानें या न मानें, यह सब आपको बेवकूफ़ बनाने के सदियों पुराने नुस्खे है। आपने अपनी छवि ऐसी बना रखी हैं कि कोई भी आपकी प्रशंसा कर आपको अपने सांचे में ढाल ले जा सकता है। झूठी तारीफें कर हजारों सालों तक धर्मों और संस्कृतियों ने इतने योजनाबद्ध तरीके से आपकी मानसिक कंडीशनिंग की हैं कि अपनी बेड़ियां भी आपको आभूषण नज़र आने लगी हैं। अगर स्त्रियां पुरूषों की नज़र में इतनी ही ख़ास हैं तो आपने यह सवाल कभी क्यों नहीं पूछा कि किसी भी धर्म और संस्कृति में सर्वशक्तिमान ईश्वर केवल पुरूष ही क्यों है ? प्राचीन से लेकर अर्वाचीन तक हमारे तमाम धर्मगुरु, पैगंबर और नीतिकार पुरूष ही क्यों रहे हैं ? क्यों पुरूष ही आजतक तय करते रहे हैं कि स्त्रियां कैसे रहें, कैसे हंसे-बोले, क्या पहने-ओढ़े और किससे बोलें-बतियाएं ? उन्होंने तो यहां तक तय कर रखा है कि मरने के बाद दूसरी दुनिया में आपकी कौन-सी भूमि

स्तनपान : सार्वजनिक अथवा एकान्त - योगी अनुराग

स्तनपान : सार्वजनिक अथवा एकान्त ____________________________________ स्तन ही बालकों के पोषण का आधार क्यों हैं? कदाचित् इसके स्थान पर हाथ की उँगली से दूध प्राप्त होता, तो ये अपेक्षाकृत अधिक सरल था। ऊँगली के विषय में सार्वजनिक अथवा एकान्त जैसा प्रश्न नहीं आता। किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। दूध तो केवल स्तनों से ही प्राप्त होता है। बालकों को स्तनपान ठीक वैसे ही है जैसे पौधों को जल प्रदान करना। पौधे रोपना और उन्हें सींचना, मानव जाति के आरंभिक कार्यों में से एक है। पौधों को सींचने वाले घड़ों की आकृति व बालकों को सींचने वाले स्तनों की आकृति आश्चर्यजनकरूप से समान है। कालिदास कहते हैं : "अतन्द्रिता सा स्वयमेव वृक्षकान् घटस्तनप्रस्रवणैर्व्यवर्धयत्।" [ कुमारसंभवम् 5/14 ] इसका शाब्दिक अर्थ है : "आलस्य त्याग कर उन्होंने वहाँ के छोटे छोटे पौधों को अपने स्तनों जैसे घड़ों से सींचा।" ••• हालाँकि ये अवांतर प्रसंग अथवा क्षेपक प्रसंग है किंतु केवल शाब्दिक अर्थ ही संस्कृत श्लोकों के मूल अर्थ से परिचित नहीं करवा सकता। इसके लिए छन्द और छन्द की चरित्रिक विशेषतायें अवश्

त्रिपुरा में भाजपा की जीत ने असंख्य आशाओं को जन्म दिया है - सर्वेश तिवारी श्रीमुख

त्रिपुरा के चुनाव परिणाम को मैं भाजपा की जीत से अधिक वामपन्थी पार्टियों की हार के रूप में देखता हूँ। भाजपा अभी अपने स्वर्णिम काल में है, जब त्रिपुरा जैसे छोटे राज्य में हार-जीत उसके लिए कोई बड़ा अर्थ नहीं रखती। देश के अस्सी प्रतिशत भाग पर लहराता भाजपा का ध्वज उसकी दशा दिशा बताने के लिए पर्याप्त है, पर किसी समय देश की प्रमुख विपक्षी दल रहीं वामपन्थी पार्टियों का देश से सफाया होना विमर्श का एक बड़ा और आवश्यक मुद्दा छोड़ गया है। भारत जैसे देश में वामपन्थ अपने प्रचारित अर्थों के साथ कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता, पर माणिक सरकार जैसे स्वच्छ और निर्विवाद नेता के होते हुए पराजित होना बताता है कि भारतीय वामपन्थ अपनी राह से पूरी तरह भटक चुका है। गरीब, पिछड़े और मजदूर की बात करना वामपन्थ का मूल सिद्धांत रहा है, पर आप यदि मोन पारें तो पाएंगे कि पिछले तीस पैंतीस वर्षों में वामपन्थियों ने कभी भी गरीब, मजदूर या किसान के मुद्दे पर कोई आंदोलन नहीं किया। उन्होंने यदि आंदोलन किया भी, तो सार्वजनिक रूप से एक दूसरे को चूमने के लिए किया, देश के टुकड़े कर सकने की स्वतंत्रता के लिए किया, एनजीओ के पैसे से शराब प

फिर तुम्हारी याद आई ओ सनम - ध्रुव गुप्त

फिर तुम्हारी याद आई ओ सनम ! सामाजिकता का चलन ख़त्म होने के साथ हमारी उम्र के लोगों के लिए होली अब स्मृतियों और पुराने फिल्मी गीतों में ही बची रह गई है। रंग तो हमारे लिए अब गुज़रे ज़माने की बात है। शाम को पड़ोस से आकर किसी ने पैरों पर अबीर रखकर प्रणाम कर लिया तो कर लिया। अभी शाम को भोले बाबा की बूटी का प्रसाद लेकर यूट्यूब पर अपने मनपसंद पुराने होली गीत सुन रहा था कि गांव में बीती बचपन की कई होलियों की याद आई। तब दिन में हम गांव के कुछ लड़के-लडकियां रंग-अबीर लेकर किसी बगीचे में या तालाब के किनारे एकत्र हो जाते थे। लडकियां अलग, लड़के अलग। हमने नियम बना रखा था कि हर लड़का हर लड़की को रंग नहीं लगाएगा। लड़कियों को स्वयंबर में आज के दिन के लिए अपना पति चुनना होता था। वे अपना दुल्हा चुनतीं और उसके बाद शुरू होता था जोड़ियों में एक दूसरे को रंग और अबीर लगाने का सिलसिला। थक जाने के बाद हम 'पति-पत्नी' अपने-अपने घर से चुराकर लाये पुआ-पूड़ियों और गुझियों का आपस में बंटवारा करके खाते। दशकों पहले के वे तमाम दृश्य एक-एककर आंखों के आगे घूम गए। हिसाब लगाने बैठा तो बचपन की उन भूली-बिसरी पत्नियों की सं