पुस्तक- लौटती नहीँ जो हंसी (उपन्यास)
लेखक- तरुण भटनागर
प्रकाशन- आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा)
पुस्तक चर्चा- शक्ति सार्थ्य
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विश्व पुस्तक मेले मेँ आये इस सजीव उपन्यास को मुझसे ज्यादा पढ़ने की आवश्यकता तो नेताओँ को होनी चाहिए...
खैर कोई बात नहीँ !
एक आदमी जो कहीँ दूर जगह से आकर किसी ऐसी जगह (गाँव, जहाँ के लोग थोड़े भोले और अनपढ़ भी) पर आकर बस गया जहाँ पर उसे शुरु मेँ अपनी बोल चाल की शैली पल दर पल शिँकजा कसना पड़ता है... फिर जब वह वहाँ पर अपने पैर जमा लेता है... तो फिर क्या कहने... उसकी बात वोले तो 'पत्थर की लकीर'
वह गाँव का सरपंच बन जाता है और उस गाँव मेँ उसके मुकाबले पर एक और शख्स है जिसे वह हरसंभव नीचा दिखाना चाहता है!
गाँव मेँ एक मोड़ जब आता है जब गाँव की सीट निचले वर्ग के लिए आरक्षित है,
तभी गाँव मेँ आकर बसे वो शख्स जंगलो मेँ रहने वाले एक आदिवासी को अपने यहाँ बसा लेते है...
सत्ता आदिवासी की हुकुम हमारा...
ये खेल तो राजनीति मेँ आये दिन खेले जाते है... इसमेँ कोई दोहराये नहीँ लेकिन लेखक ने जिस गहन शैली का प्रयोग किया है वो देखने योग्य है...
अब अपने नजरिये से सीधा उपन्यास पर आते हैँ-
बाबू जी का लोरमी। लोरमी एक गाँव। गाँव के मुखिया बाबू जी। बाबू जी की हंसी। लोरमी की पहचान। बाबू जी का एक छोटा सा परिवार। बाबू जी, उनका बेटा और उनकी पत्नी। बट्टू, बाबू जी की इकलौती संतान। बाबू जी बिहार से आकर बसे थे लोरमी। मिसरीबाई एक आदिवासी महिला। बाबू जी लेकर आये थे मिसरीबाई को अपने फायदे के लिए। रामा, मिसरीबाई की कुल एक जमा पुँजी, यानी मिसरीबाई का बेटा। शास्त्री जी, बाबू जी के काम मेँ अड़ने बाली टाँग। लड़ईय्या गाँव मेँ घातक खतरा। जिसने बारी बारी उन लोँगो को खा लिया जिसने बाबू जी के काम मेँ विघ्न डाला। बाबू फेमस होना चाहते थे। हुए। मन्त्री बनना चाहते थे। बनेँ। गाँव मेँ हंसी नामक रोग फैलाने चाहते थे। फैलाया। लेकिन हंसी की पहचान बाबू जी की समझ से परे। रामा हंसी का असली पारखी। उसे ये परख माँ से विरासत मेँ मिली। रामा और बट्टू बचपन के मित्र। मिसरीबाई रामा के लिए महुआ लाती। दारु के भट्टे की लकड़ी लाती। मछली मकौड़े लाती। पकाती। जिसे रामा और बट्टू मिल बाटकर शेयर करते।
लड़ईय्ये का सबसे पहला शिकार मिसरीबाई। फिर दूसरा शिकार शास्त्री। जिसे रामा ने टपकाया। लोँग अभी भी कहते है कि इन दोनो को लड़ईय्ये ने टपकाया। पर हकीकत क्या है ये तो बाबू जी जानेँ। एक जाल। शास्त्री ने मिसरीबाई को मारा। रामा ने शास्त्री को। ये जाल बाबू जी का। बट्टू सब जानता है। रामा की जान को खतरा। बट्टू रोकता है। रामा जंगल न जाए। बाबू जी को डर। कहीँ उनके किये कराये पर पानी न फिर जाए। लड़ईय्ये का अगला शिकार बट्टू।
ये उपन्यास राजनीतिक पेँच को दर्शता हुआ आगे बढ़ता है और अंत तक बाबू जी अपनी प्रतिष्ठा पर अड़े रहे। मान सम्मान और अपने अहोदे पर टिके रहे। क्या पाया बाबू जी। विधायकी। मिली। सांसदी। मिली। मन्त्री पद। मिला। मुख्यमंत्री पद। वो भी मिला। गाँव मेँ हंसोड़। वो भी मिले। हंसी के पारखी न हो पाये। न हीँ खुद सच्ची हंसी हंस पाये। पर क्या था जो नहीँ मिला। शायद- वो हंसी जो मिलनी चाहिए थी। अंत मेँ इस कथा का अंत का एक प्रश्न छोड़ जाता है कि क्या जरुरत थी अपनी विरासत हांसिल करने की जिसने सबकुछ झीन लिया। वो हंसी जो लौटती नहीँ !
[२२मार्च२०१४]
© शक्ति सार्थ्य
shaktisarthya@gmail.com
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