कविताएं-
1-) उम्मीद की खेती
किसान बोता है बीज
तो संग बोता है उम्मीद भी !
फसल के साथ -साथ
होती है उम्मीद की खेती!
धूप,हवा ,पानी मिट्टी, खाद पा
लहलहाती है फसल !
और उम्मीद की आंच में
पक कर होती है तैयार!
मगर हर साल
जब तय करता है 'तंत्र'
फसल की कीमत!
बिखरती है उम्मीद
दाने सरीखा!
थका-थका किसान
बटोरता उम्मीद के दाने!
लगाता है हिसाब- घाटा-नफा
घर -परिवार के खर्च-वर्च!
बेच देता है फसल!
सहेजता है उम्मीद !!
बीज संग फिर बोने को!!
मगर कई बार
जब नहीं बटोर पाता
उम्मीद के दाने!
लटक जाता है
नाउम्मीदी में
अपने ही रोपे
किसी पेड़ से!
ठीक उसी समय
किसी टी.वी. चैनल पर
आ रहा होता है 'एक्सक्लूसीव'-
"इस संघर्ष के समय में जीने के लिए
उम्मीद बहुत जरूरी है साथियों! !"
2-) ना ! कजरी कौन गाए ?
सावन चढ़ आया है....
पर कजरी के बोल....?
ना ! कजरी कौन गाए ?!
जबकि पानी की आस में
मूंह खोले खेतों की मिट्टी
पड़ी है अब. तक !
और बाबूजी, रखे माथे पर पर हाथ
घंटों निहारते आकाश !
ये सिलसिला बन गया है आजकल.|
सूखते धान के बिचड़े को
बचाने की कोशिश मे
टूट रही उम्मीद की डोर !
और अबकी मँहगाई में
सावन भी आया खाली हाथ !
जबकि रोपनी का गीत- गाना
नहीं हुआ मयस्सर अब तक !
फिर झूले की डोर कौन डाले ? !
कौन भरे पींगें/ कौन झूले ?!
जबकि मन चारो खाने चित्त है !
फिर झूला किसे सुहाय ?!
ना ! कजरी कौन गाए ?!
कौन पहिरे हरी-धानी रंग चुनरी ?!
और. कौन. रचे मेंहदी ?!
जबकि खेत पड़े है परती !
धरती ने नहीं ओढ़ा
खूब गाढ़ा- हरा रंग चादर !
फिर कौन लगाए- ' ए हरि' का टेक !
ना ! कजरी कौन. गाए. ?!
अगर गाना ही पड़े....
तो हो कुछ ऐसा....
कि गाएं ...
रोपनी का गीत
सोहनी का गीत
कटनी का गीत
दंवनी का गीत
बोअनी का गीत
वर्ना...यूं कजरी कौन गाए ?!
ना ! कजरी कौन गाए ?
3-) सलोना स्वप्न और यथार्थ..
गूंजी दूर मंदिर की घंटियां..
तो जैसे बजा हो अलार्म
बुधना के लिए !
जागा हड़बड़ाते हुए
देर हो जाने का डर सवार
जाना है करखाने !
नाचती पुतलियों में नन्ही मुस्कान !
जो भर देती है मरियल सी देह में
जोश-ओ- जान ! कि सब गायब थकान !
आज.पगार का दिन है !
होगा तीस रोज का हिसाब
धर दिए जायेंगे खुरदरी हथेलियों पर
पांच -सात हजार रूपयें |
पांच नियत मज़दूरी के ,दो ओवर टाइम के !
पर इससे पहले और सबसे पहले ..
करखाने के बही-खाता में
मुंशी लगवायेगा ठप्पा अंगूठे का !
मन ही मन लगाता हिसाब
सोचता है बुधना -
'आज खायेंगे जी भर !
घर ले जायेंगे मन पसंद मिठाइयां !
गुड़िया के लिये खरीदना है नए कपड़े -जूते !
कदम बढ़ाता है....वह
करखाने जाने वाली सड़क पर..
कि तभी सुनायी पड़ती है ....गर्जना..
चाल के मालिक की...जल्दी से दे दो पिछला किराया
और अगला एडवांस या कर दो खोली खाली !
ऐन सड़क पर है जो राशन की दुकान
वो मांगता है अपना पिछला उधार..
फिर देता है धमकी ......
.वर्ना रख दो अपनी गुड़िया को मेरे यहां
लग जायेगी काम पर तो खूब चलेगा धंधा !
न....न.$$ नहीं₪... चीखता है बुधना..
मेरे जीते जी हर्गिज नहीं..
और फिर धड़कते दिल ..
दौड़ पड़ा वह खुली सड़क पर बेपरवाह !
संग लिये सलोने स्वप्न !
और य़थार्थ पीछा कर. रहा है...
अभी भी.....कविता के लिखे जाने तक !
4-) जागरण
लैस हैं वे
विध्वंस के हर साजो-सामान से
तंत्र है उनके पास
यंत्र है उनके पास
मंत्र है उनके पास
मगर
जागेगा जिस रोज जन
तंत्र टूटेगा
यंत्र छुटेगा
और मंत्र हो जायेंगे मौन
कि
बस हो फिर से
एकबार
जागरण-जागरण
जन-जागरण
5-) यकीनन...
हां...मुझे यकीन है
सूरज, चांद, सितारों पर
धरती पर, आकाश पर
मां के प्रेम
और पिता के प्यार पर
हां ..यकीन है मुझे
भाई के भरोसे
और बहन के विश्वास पर
जीवन औ' मरण पर
सृष्टि के कण- कण पर
समय के सैलाब पर
जीये हुए अपने क्षण क्षण पर
यकीन तो हर एक शय पर है
ये अलग बात है
कि कुछ धुंधलाए यकीन भी
सहेज रखे हैं मैंने
जटिल जीवन से जूझने के लिए!
आखिरकार
यकीन तो है मनुष्य पर
मनुष्य की जीवटता पर!
यकीन चाहे भले हो धुंधलाया हुआ
कि छंटेंगे बादल धुंध के
देर- सबेर यकीनन !
ग़ज़लें-
ग़ज़ल
1-)
अपने घर में भी बेघर सा रहा
उम्र भर मैं दर-बदर सा रहा
मंजिलें दूर जो होतीं कोई बात न थी
करीब ऐसीं कि खोने का डर सा रहा
क्या बताऊं कब से चला हूं मैं यारों
होश जब से रहा इक सफर सा रहा
मुझको परवाह नहीं थी दुनिया की
तेरी बातों का पर असर सा रहा
जब से गुजरा है मौसम तेरे जाने का
भूल कर सब कुछ मैं बेखबर सा रहा
ग़ज़ल
2-)
तेरे इश्क का ऐसा असर रहा बस जिक्र तेरा हर बातों में
तुझे सोचता रहता हूं शबभर तारें गिनता मैं रातो में
ये बात भला कैसे जानूं तुम य़ाद हमें भी करते हो
तेरा कौन भला मैं लगता हूं क्या कहते हो तुम नातों में
तुम क्या जानो मैं क्या माँगूं हर मन्दिर मस्जिद जा जाकर
मेरे हाथ में तेरा हाथ रहे हो गर सात जन्म तो सातों में
ग़ज़ल
3-)
तेरा जब जिक्र होता है कहीं भी
मेरा फिर नाम आता है वहीं भी
मुझे गर छोड़ भी जाओ तो क्या हो
रहेंगे याद सुबहो- शाम कहीं भी
पुरानी याद की कोई चादर निकालो
उसी तह में पड़ी होगी मेरी सिलवट कहीं भी
जीया जो वक्त हमने साथ होकर
कसक मीठी सी है दिल मे कहीं भी
कभी फुर्सत से आना रंजो-गम लेकर
सफर लंबा है मिल जायेगे फिर कहीं भी
ग़ज़ल
4-)
सर पे इल्जाम है तो ढोना है
इश्क में क्या पाना और खोना है
उलझनें हैं बहुत सी दुनियां की
पर किसी बात का क्या रोना है
आओगे मेरी उम्र की दहलीज पे जब
तो कुछ हाल तेरा भी यही होना है
कह भी दूं तो उसे यकीं नहीं शायद
उसकी हस्ती से मेरा होना है
कसमें वादों पे ही है ऐतबार अगर
घर चल मेरे तुलसी का एक कोना है
ग़ज़ल
5-)
जाएं तो कहां जाएं ,सोचना जरूरी है
साथ कौन है अपने आंकना जरूरी है
पास है वो अपने और दुरियां बनी सी है
फासलें सिमट जाएं ये बड़ा जरूरी है
मुझसे मांगता वो गर दिलों जां लुटा देते
जो मौन न समझ पाये क्या बोलना जरूरी है
इश्क कोयी बाजी क्या जो जीत हार होनी है
अरे इश्क वो तजुर्बा है जो जानना जरूरी है
राह ए जिन्दगी में तो काफिले मिलेंगे ही
हमराह कैसा हो ये देखना जरूरी है
संक्षिप्त परिचय-
नाम- डॉ.कुन्दन सिंह
पिता- अशोक कुमार सिंह
माता- मनोरमा देवी
जन्म तिथि- 10/02/1988
शिक्षा- एम.ए.,(हिन्दी) पी-एच.डी./बी.एड.,/पी.जी.डी.आर. पी.,/सी.बी.एल,/यु.एल.सी.,/
डी.सी.ए/ यु.जी.सी- नेट/ सी.टेट/ बीटेट/
अभिरूचि- लेखन सहित अध्ययन- अध्यापन,साहित्यिक - सांस्कृतिक व सामाजिक सरोकार से गहरा जुड़ाव, पत्रकारिता व सोशल मीडिया में सक्रिय | प्रकाशन - विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में कविताएं, गजलें हाइकू व आलेख प्रकाशित |
उल्लेखनीय- हिंदी आंदोलन और नागरी प्रचारिणी सभा,/भोजपुरी लोकगीतों का बहुआयामी अध्ययन,/चंद्रभूषण तिवारी: जीवन और साहित्य साधना /शीर्षक रूप मे शोधपरक पुस्तकाकार कार्य |
संप्रति - अध्यापन व रेडियो सहित विभिन्न संचार माध्यमों के लिए स्वतंत्र लेखन |
संपर्क - डॉ.कुन्दन सिंह
C/o विनोद प्रसाद सिंह
'कैलाश भवन',संगत रोड,भवानो खाप,
नबीनगर,औरंगाबाद बिहार-824301
मो.9472088771
ई.मेल- dr.kundansankrit@gmail.com
शुक्रिया
ReplyDeleteस्वागत !
Delete