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गुमशुदा (नज़्म) - प्रणव मिश्र 'तेजस'



नज़्म - गुमशुदा

मुकम्मल दो बरस के बाद पीछे लौटता हूँ मैं।
जहाँ मैं था फ़क़त मैं ही तो बस ये सोचता हूँ मैं।

वफ़ा से इश्क़ तक का ये सफ़र अच्छा रहा शायद।
भले लाखों गिले फिर भी सफ़र सच्चा रहा शायद।

अभी भी याद है पहले पहल का पार्क में मिलना।
मेरी नादान ग़ज़लों को वो तेरा ध्यान से सुनना।

मेरी तारीफ में अश्क़ों का इक दरिया बहा देना।
बहुत कहने पे धीरे से कहीं उसको छिपा लेना।

वो बैठे धूप में रहना गले का सूखते जाना।
फ़िजा का आशिकों से इस तरह से रूठते जाना।

जहां लगता था टम्प्रेचर "हमारी जान लेगा क्या?"
इरादे सब मेरे दिल के समां पहचान लेगा क्या?

मैं उस तस्वीर में चुपचाप तुमको देखता जाता।
फ़क़त मैं देखता जाता फ़क़त मैं सोचता जाता।

मैं कुछ था सोचता ऐसा मैं कुछ था सोचता वैसा।
खुदा  से  डर  के  मैंने  माँगना  चाहा  तेरे  जैसा।

कि ज़ेरे-लब दुआएं थीं मेरी आँखों के आगे तुम।
मेरी चुप्पी पे हल्का सा मेरी जां जाग उट्ठे तुम।

हिला होठों को बोले,"बस बहुत अच्छा लिखा तुमने।"
ये सारे मीरो-ग़ालिब को बहुत पीछे किया तुमने।

मुझे औक़ात अपनी थी पता लेकिन बड़ा खुश था।
कि सहरा में मुझे उस हुस्न ने प्यासा बना डाला।

तुम्हारे होंठ का हिलना तुम्हारे बाल का उड़ना।
मुझे भाया बहुत सब कुछ बुरा था अलविदा कहना।

वो जाते वक्त मुड़-मुड़ के तुम्हारा देखते रहना।
लगा कहता हो जैसे रूह से अब जल्द है मिलना।

इसी पहली दफ़ा के हिज़्र ने इक नींव थी रक्खी।
मेरी भी रूह ने पहली दफ़ा की चाशनी चक्खी।

ये मीठी चाशनी जिसका लगा था स्वाद कुछ ऐसा...!
मगर ऊँहूँ मेरे बस में कहां कुछ भी भला कहना।

मुझे तो इश्क़ का लोगो सुनो 'आ' भी नहीं आता।
कहाँ मुमकिन है रहकर इश्क़ में कुछ इश्क़ पर कहना।

"ग़ज़ल" फिर भी मेरी थी चाहती उसको लिखूँ मैं बस।
क़सीदे कह के उसको हर दफ़ा क़ायल करूँ मैं बस।

कसीदों से अगर वो मान जाती तब तो अच्छा था।
तरस आता है उन पर जिनको सब आसान सा लगता।

मेरे बस में नहीं था इश्क़ का इज़हार कर पाना।
मेरे बस में नहीं था उस हसीं से प्यार कर पाना।

खटकता दिल में था इक डर कहीं उसको न खो दूँ मैं।
कहीं इज़हार के चक्कर में "चुचु चुचु चू" न कर लूँ मैं।

सो सोचा छोड़ दूँ उसकी इबादत वो खुदा कैसा?
जो बन्दे की नहीं सुनता जो बन्दे का नहीं होता।

बढ़ाने लग गया था फाँसले मैं चीर कर सीना।
दिखाने लग गया था रौशनी को हिज़्र का जीना।

मगर तुम भी तो शायद आशना होने लगे मेरे।
मुकम्मल दूर थे लेकिन गले मिलते गये मेरे।

नशा कुछ इश्क़ का तारी हुआ था दिन ब दिन तुम पे।
अचेतन  चेतना  से प्यार  तुम  करने  लगे  मुझसे।

तो तुमको प्यार भी होने लगा था आख़िरश मुझसे।
तो तुमने दिल बदल डाला बिना पूछे बिना जाँचे।

न मुझमें ताब थी इतनी कि दिल को खोल के रख दूँ।
तुम्हारे  हाथ  को  चूमूँ  तुम्हारे  हाथ  को  थामूँ।

बड़ी शिद्दत से अपने इश्क़ का इज़हार मैं कर दूँ।
तुम्हारी उँगलियों में उँगलियों का प्यार मैं भर दूँ।

क़यामत हो गई उस दिन कि जिसदिन रो दिया तुमने।
मेरे  बंजर  से  दिल  में  इश्क़  ही को बो दिया  तुमने।

"लगी कहने कि देखो बात करना छोड़ मत देना।"
तुम्हारे बिन मेरे दिन का गुजारा हो नहीं सकता।

बयाँ कैसे करूँ अपनी खुशी सुन के थी जो आई।
कि  जैसे  लग  रहा  चलती पवन  धीरे से बौराई।

मगर जब आज खुद को आईने में देखता रोता।
यही हर बार मैं कहता, यही क्या इश्क़ में होता?

कि आशिक इसलिए मिलते कि उनको दूर जाना है।
सफ़र  आसान  हो  जाये  बहुत  लंबा  ठिकाना  है।

कहो प्रियवर क्यों अपनापन जताते रोज़ हो हमसे।
बताओ ये भला क्या हक़ तुम्हारा चलता है तुम पे?

मैं बेशक हूँ बहुत ज़ाहिल मैं बेशक हूँ बहुत कुत्ता।
हैं बेहतर लोग दुनिया में जो पढ़ते शे'र भी अच्छा।

कहो  सबसे क्या बेहद  इश्क़  कर वादे  निभाओगे?
सताया जिस क़दर मुझको क्या औरों को सताओगे?

कि नैनीताल की कोई झलक क्या कौंधती दिल में।
मैं रोया किस क़दर था याद कोई झूलती दिल में?

"बड़ा आसान है कहना कि जाओ छोड़ दो मुझको।"
अगर आसान होता तो कसम से छोड़ते तुमको।

नहीं जाते किसी दर पे खुदी के हम ख़ुदा होते।
मियाँ दुनिया में दुनिया से बहुत पहले जुदा होते।

गिला तुमसे नहीं करना कि तुम वरदान से आये।
मुक़द्दर तक मेरे चल के ख़ुदा की शान से आये।

कि नेमत थी ख़ुदा की हुस्न ही खुद इश्क़ बन आया।
मुझे  इश्के-मजाज़ी  में  हक़ीक़त  का  मिला साया।

ये क्या कहने लगे कवि जी ये ऊँची हैं बहुत बातें।
कि  अपने  दिन भी  छोटे हैं  उदासी से भरी रातें।

हमारी उम्र भी उनको हमेशा के लिए मिलती।
हमारी आख़िरी इच्छा हमारी लाश अब उठती।

हमारी लाश का उठना हमारी शायरी मरना।
हमारी लाश का उठना हमारे जख़्म का भरना।

हमारे जख़्म का भरना हमारे दिल का चुप होना।
हमारे दिल का चुप होना हमारी साँस का रोना।

हमारी साँस का रोना हमारे दर्द का होना।
हमारे दर्द का होना कोई जादू कोई टोना।

मुदावा जिसका आखिकार केवल तुम ही हो जाना।
दिलो जाना  बहुत मुश्किल तुम्हारे इश्क़ को पाना।

सुना था हमने तुम तो बात से पीछे नहीं हटती।
लकीरे खैंच देती तो ख़ुदा से भी नहीं डरती।

तो वो लिक्खा जो तुमने था कि मुझसे प्यार हो करती।
उसे अब मान भी जाओ ज़माने से हो क्यों डरती।

कहो नापाक दुनिया से हमारा इश्क़ पाकीज़ा।
तुम्हें है प्यार मुझसे बस तुम्हें मेरे लिए जीना।

तुम्हें मेरे लिए जीना तुम्हें मेरे लिए जीना।
हलाहल आख़िरश तुमको हमारे इश्क़ में पीना।

वगरना है खुदा हाफ़िज वगरना अलविदा यारम.......





© प्रणव मिश्र 'तेजस'

संपर्क-
मो.- 08354922954
लखीमपुर-खीरी (उत्तर प्रदेश)

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