बेवजह यूँ परेशां नही हुआ जाता… ये जिंदगानी है… आनी है… जानी है… क्या हुआ जो वो मेरे पास नहीँ है… मैँ अपने लहजे से जी सकता हूँ… पहुँच रहा हूँ गाँव के खेत खलिहानोँ मेँ… वो पगडण्डी जो सीधे दिल से जोड़ती थी… सरसोँ के पीले फूलोँ का उगना… भवरोँ का उनमेँ गुनगुनाना… किसी पवन का उनमेँ लहर दे जाना… उसकी लचक… मन की हलचल… सूर्य का अपने रंगो से उसमेँ मिल जाना… मेरा ठहर के सब निहारना… किसानोँ की रखवाली का… खेत की सरसोँ का निश्चित होना… फूलोँ का खिल-खिलाना… कहाँ रहा जा सकता है… कुछ यादेँ है… सरसोँ से खेलती तितली… तितली से खेलता किसान का बच्चा… वो जो अभी अपने पर निकाल सीधा हुआ… दौड़ता… भागता… सरसोँ मेँ रास्ता इज़ाद करता… किसान का अपने बच्चे को यूँ नजर अंदाज करना… मन ही मन बच्चे को निहारना… उनमेँ सपनोँ का बुनना… किसान का स्वप्न… बच्चे का भविष्य… उसका तितली का पकड़ लेना… कहा जा सकता है… लेकिन न मुमकिन है ये… किसान अंधकार मेँ… स्वप्न का धूमिल हो जाना… तितली का अचानक छूट जाना… बच्चे की खुशी का खतरे मेँ होना… किसे दोष देँ… कहना… न कहना… एक जैसा… जो दोषी हैँ… उन्हे समझना भी… अब क्या कहेँ…
(डायरी से...)
अप्रैल २०१४
© शक्ति सार्थ्य
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