आनंद मरा नही। आनंद कभी मरते नही।
ऋषिकेष मुखर्जी के राजेश खन्ना के निभायें किरदार आनंद को जीवन की तमाम मुश्किलों के बीच भी उसके प्रति असीम प्रेम के लिये याद किया जाता है। देवदास जहां जीवन के प्रति शोक और विलाप का अनुपम उदाहरण है तो इसके ठीक उलट तो आनंद भरपूर जिंदादिली का। देवदास जहां अपनी जिंदगी को बिखेरने में मजा लेता है तो वही आनंद अपनी बची-खुची जिंदगी के बिखरे हर पल को समेट कर जी रहा था। देवदास खारिज होने और खारिज करने में व्यस्त है तो आनन्द बचे हुए अपने हर पल को समेट कर उसे अंगीकार करने में। देवदास और आनंद दो अलग किरदार है पर शायद ये दोनों किरदार ही हमारे मन की ही दशा है। हम बदल बदल कर देवदास और आनन्द का चोला पहनते रहते है। हम सब किश्तों में थोड़े थोड़े देवदास और थोड़े थोड़े आनन्द है।
ऋषिकेश मुखर्जी का आनंद हंसोड है। जहां जाता है, खुशियां बिखेरता है। उसे घूलने मिलने में ज्यादा समय नही लगता है और अपनी हाजिरजवाबी से सबको दंग कर देता है और फिर किसी शाम एकांत में कुर्सी पर बैठे डूबते सूरज को निहारते कही दूर जब दिन ढल जाए भी गाता है। ये एक गीत आनन्द के किरदार को पूरा खोलता है। गीतकार योगेश ने यहां गीतकार से ज्यादा स्क्रिप्ट राइटर का काम किया है। ये दिखाना बहुत जरूरी था कि जीवन में खुलकर हंसने का माद्दा वही रखते है जो भीतर से बहुत गहरे होते है। जिनके जीवन को देखने का कैनवास बहुत बड़ा होता है। राजेश खन्ना का जब भी जिक्र होगा, आनंद के बिना अधूरा रहेगा। ऋषिकेश मुखर्जी की इस क्लासिक फिल्म में लिम्फोसर्कोमा ऑफ इंटेस्टाइनस नाम के कैंसर से पीडीत किरदार को जिस तरह से सोचा और लिखा गया वो हम सब के लिये अब तक नजीर है। आनंद सब की जिंदगी में अचानक से छूकर गुजरता है और सभी को चौकाते हुए जिंदगी के नये मायने समझाता जाता है। ये आनंद की जिंदादिली ही होती है कि वो हर नये आदमी के कंधे पर हाथ मारकर कहता है, कैसे हो मुरारी लाल, पहचाना कि नहीं और स्क्रिप्ट की खूबसूरती देखियें कि एक दिन सच में कोई उसको उसके जैसा मिलता तो पलटकर उसे ही चकित कर देता है। आनंद को देखना और उसमें भावनात्मक रूप से तर-बतर हो जाना भी जीवन का आनंद है। आनंद ने सिखाया कि मौत तो आनी है, लेकिन हम जीना नहीं छोड़ सकते। बकौल आनन्द जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। फिल्म में एक जगह आनंद डा0 भास्कर बने अमिताभ को कहता भी है कि कोई भी आदमी अपनी मौत को देखना नही चाहता पर मैं वो अभागा हूं जो हर पल आपकी आंखो में अपनी आती हुई मौत को देख रहा हूं। फिल्म की स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखे थे गुलजार ने और जिस किसी को गुलजार के पटकथा लेखक के तौर पर बेहतरीन काम को देखना समझना हो उसके लिये आनंद से बेहतर कुछ नही। जब गुलजार लिखते है कि मौत तो बस एक पल है, जब तक जिंदा हूं, तब तक मरा नही जब मर गया साला मैं ही नही तो ये उस ठीक समय उस एक फिल्म का डायलॉग नही होकर हम सब के लिये जीवनआदर्श के रूप में लिखी हुई बात बन जाती है। सिनेमा और साहित्य की यही खासियत होनी चाहिए। उसे देश, काल और स्थितियों से आगे हर उस मानव मन की आवाज बननी चाहिए जहां वो किसी भी आदमी की संवेदना से एकाकार हो सके।
जिस फिल्म आनंद को आज राजेश खन्ना के बगैर हम सोच नही पाते, वो राजेश खन्ना फिल्म के लिये ऋषिकेष मुखर्जी की पहली पसंद थे ही नही। ऋषिकेश मुखर्जी ने दरअसल ये फिल्म राजकपूर को ध्यान में रखकर लिखी थी। एक बार राजकूपर को लगा था कि उन्हे एक गंभीर बीमारी हो गई है और अब वो ज्यादा दिन जिन्दा नही रहने वाले है। यही से ऋषि दा को इस फिल्म का विचार आया और जब तक इस विचार को मूर्त रूप देते राजकपूर की उम्र इस रोल के लिये ज्यादा हो चुकी थी लिहाजा ऋषि दा को दूसरे अभिनेताओ पर गौर करना पडा। राजकपूर के बाद इस रोल के लिये शशि कपूर ऋषि दा की पसंद थे पर उन दिनो शशि कपूर बहुत सारी फिल्मों में एक साथ व्यस्त थे तो उनकी तरफ से भी इस रोल के लिये मना हो गया। शशि कपूर कैरियर के अपने चरम पर रात-दिन शूटिंग करते थे और रविवार को पूरा दिन आराम। इस नियम को उन्होने केवल अपने भाई राजकपूर की फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम के लिये टाला और रविवार को भी काम किया। शशि कपूर के बाद कॉमेडियन महमूद पर भी विचार किया गया पर बाद में सब लोग किशोर कुमार के नाम पर एकराय हुए। तो फिर एक दिन ऋषि दा आनंद की स्क्रिप्ट लेकर किशोर कुमार से मिलने उनके घर पहुचें पर किशोर तो किशोर। तब उन दिनो किसी बंगाली सज्जन के साथ किशोर कुमार का झगडा चल रहा था। मनमौजी किशोर कुमार ने अपने घर के चौकीदार को हिदायत दे दी कि कोई भी बंगाली उनसे मिलने आयें तो उसे गेट से ही भगा देना। ऋषि दा आये तो चौकीदार ने मिली हिदायत के अनुसार बंगाली बाबू ऋषि दा को बाहर से ही रवाना कर दिया। ऋषि दा को बात चुभ गई पर उन्होने फिर भी किशोर कुमार से बात जारी रखी। अब बात अटकी स्क्रिप्ट में बदलाव को लेकर। किशोर कुमार स्क्रिप्ट में काफी बदलाव चाहते थे जिसके लिये ऋषि दा तैयार नही थे। इन्ही असहमतियों के बीच भी फिल्म की शूटिंग शुरू इुई। किशोर कुमार पर शशिकांत किनीकर द्वारा लिखी गई बायोग्राफी के मुताबिक किशोर कुमार फिल्म के सैट पर अपना सिर मुंडवाकर पहुंच गए थे। किशोर कुमार को इस रूप में देखकर ऋषिकेश मुखर्जी ने माथा पकड लिया उन्होने सोच लिया कि इस जिद्दी एक्टर को समझाने से कोई फायदा नहीं और फिर आखिरकार आनंद को राजेश खन्ना मिलें और आज लगता है कि ये स्क्रिप्ट उन्ही के लिये बनी थी। राजेश खन्ना कोई बेहतरीन अभिनेता नही थे पर कुछ फिल्में, कुछ किरदार और कुछ स्क्रिप्ट अपने अभिनेता को खुद चुनती है। आनंद के किरदार को राजेश खन्ना का मिलना शायद यही था।
जैसे गाइड से परे देव नही वैसे ही आनन्द से परे राजेश खन्ना नही। इन दो साधारण अभिनेताओं को अपने समय के दो असाधारण निर्देशको ने अपनी दो असाधारण स्क्रिप्ट अर्पित की। जय हो।
© नवल किशोर व्यास
navalkvyas@gmail.com
Comments
Post a Comment