चलने के मूड से उठा… फिर अचानक बैठ गया… समझ नहीँ आ रहा था… वो कल रात मेँ आये स्वप्न का क्या मतलब था… बस कुछ धुआँ उड़ता हुआ दिखाई दिया और एक धुंधली-धुंधली-सी लम्बी चीज जिसमेँ छड़ीनुमा एक चमक भी थी… लेकिन ये एक स्वप्न था… फिर भी ये मुझे अजीब क्योँ लगा… कुछ तो कनेक्शन था इसका मुझसे… चलो यार भूलोँ भी… स्वप्न तो स्वप्न है… हाँ वो स्वप्न था लेकिन कुछ अजीब सा… मैँ आज तक डरा नहीँ था किसी स्वप्न से… फिर न जाने क्योँ ये भयभीत कर रहा था मुझेँ… मन का एकांत मानोँ कही चला गया हो… दिल मेँ धड़कने अब सामान्य नहीँ थी… डेढ़ गुना से भी ज्यादा थी… कभी इतना मन हलचला नहीँ हुआ… अब तो शरीर भी अपने सामान्य ताप पर पसीजे जा रहा था… कुछ भी हो मैँ एक शिकार मेँ फंस चुका था… वो था मन का भय… जिसे निकाल पाना किसी आम काम से बने खास काम से भी आसान था… फिर भी जमेँ हुए था… अपनी मूल स्थिति से बढ़ता हुआ… मेरे कामोँ मेँ विघ्न डाले दूर कोनेँ मेँ भय का टाण्डब अपने मेँ मग्न था… और मैँ उसमेँ वशीभूत…
(डायरी से...)
०५अप्रेल२०१४
© शक्ति सार्थ्य
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