आज के दौर को देखते हुए ये कहना बिल्कुल भी ग़लत नहीं होगा कि हम सभी लोग अपने-अपने मूल कर्त्तव्यों से भटकते जा रहे हैं। समाज के प्रति हमारी जो ज़िम्मेदारियां बनती है हम उन जिम्मेदारी से मुंह फेरे बैठे हुए हैं। आज के समाज का हर तबके का एक व्यक्ति कहीं न कहीं किसी भी तौर से उसी तबके के दूसरे व्यक्ति को छलने की योजना बना रहा होता है। ऐसा लगता है कि मानों यहां छल-कपट की आंधी-ब्यार सी चल पड़ी है। हम लोग चंद लाभ (लालच) के लिए अपने ईमान तक को हाशिये पर रखने से भी नहीं चूकते। जबकि हम सब ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि हम जिन दूसरें लोगों का हक छीन रहे हैं न वह भी तो हमारे ही लोग हैं। उन्हे शायद हमसे ज्यादा आवश्यकता हो इस लाभ की। किंतु नहीं। आज इस समाज का ये मूल चलन बन चुका है कि यदि आपको यहां टिके रहना है तो अपनी शक्तियों का गलत तरीके से प्रयोग कर इन सीधे-सादे शक्तिविहीन लोगों को कैसे भी करके अपने कब्जे में रखना हैं। नहीं तो आपकी जो बची हुई पहचान है न मिट सकने की कगार पर पहुंच सकती है। आप कहीं गुम से हो सकते हैं। शायद कोई आपको भाव तक न दें। आपको राह चलते कोई नजरंदाज न कर दे। या ये भी हो सकता है कि आपको ही कोई गुलाम न बना बैठें।
न जाने क्यों हम विभिन्न प्रकारों वाली लूट-घसूट, अत्याचार, बलात्कार, शोषण आदि की सोंच अपने दिमाग में लिए बैठे रहते हैं? और न जाने क्यों हम कई-कई घंटों तक इसी सोच-विचार में डूबे रहते हैं? इसी से संबंधित अपने आसपास इन्हीं घटनाओं पर चर्चा करते हैं। इन्हीं तरहों की घटनाओं को हम टेलीविजन पर भी देखने की प्राथमिकता बना लेते हैं। अपने भीतर हम हर वक्त वैसा आयाम तैयार करने की कोशिश करते हैं। इसे ही अपना सशक्त और निष्पक्ष फैसला घोषित करते हैं। इसी पे अडिग रहने का दृढ़ संकल्प तक ले लेते हैं। इसे ही अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बना लेते हैं। हमारे अंह और स्वंय में भी यही सम्मलित होता है।
मुझे याद है कि मैंने बचपन में पढ़ा था- "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में होने वाले नित्य गतिविधियों का साथी हैं। समाजिक जिम्मेदारी निभाना उसका फर्ज है। समाज के कल्याण हेतु चिंताये करना एवं उसके लिए योजनाएं तैयार करना उसका मुख्य उद्देश्य हैं।" फिर न जाने क्यों आज का मनुष्य इन सब बातों से भिन्न होता जा रहा है? समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भूलता जा रहा है। समाजिक माहौल को बिगाड़ने की कोशिशें करता जा रहा हैं। संप्रदायिक माहौल तैयार करने की कोशिशों में लगा हुआ हैं।
हमें आये दिन जातिवाद और धर्म संप्रदायिकता के दंगों से जूझना पड़ रहा है। हम लोग आपस में ही जाति-धर्म के नाम पर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गयें है। बलात्कारियों की नई जमात हर दिन उभर कर सामने आ रही। शोषण और ठगी तो मानों बायें हाथ का खेल हो चला है। बड़े तो बड़े क्या छोटे-छोटे बच्चों को भी शिकार बनाया जा रहा है। जिन नन्हे मासूमों को कुछ भी मालूम नहीं है उन्हें भी बहला फुसलाकर इसी कुकर्म में जानबूझकर कर झोंका जा रहा है। हमारे देश में आने वाली पीढ़ी को कमजोर करने की साजिशें रची जा रही हैं। जिससे आने वाले वक्त में नई पीढ़ी को गुलाम बनाने की आवश्यकता ही न पड़े वे खुद-ब-खुद गुलाम बनते चले जायें। इन सब के पीछे विदेशी ताकतों के साथ साथ देशी लोभियों की भी मुख्य भूमिका है। ये देशी लोभी एक तरह की मानसिक बीमारी के शिकार हो चुके हैं। इन्हे बिना शारीरिक मेहनत किए बिना ही अत्याधिक धन कमाने की लत लग चुकी है। मुख्य रूप से नशा और सेक्स ही इन्हें मानसिक रूप से बीमार किए हुए हैं। जिसके चलते इन्हें अत्याधिक धन की आवश्यकता होती है। और धन अर्जित करने के लिए ये किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जातें हैं। पूरी मानवजाति और अपने ईमान तक को बेच डालते हैं। फिर यही से शुरू होता है मानवजाति की त्रासदी का सिलसिला। जो निरंतर एक चेन में चलता हैं। जिसमें नाकारों की संख्या बढ़ती ही जाती हैं। जो हमारे लिए किसी परमाणु खतरे से कम नहीं है। जिसके माध्यम से ही देश निरंतर खोखला और संप्रदायिक होता जा रहा है।
आज एक गहन चिंतन की आवश्यकता आन पड़ी है। हमें इन असामाजिक गतिविधियों वाली ताकतों को रोकना होगा। अपने आसपास पल रहे ऐसे माहौल पर प्रतिबंध लगाना होगा। सरकारों से ज्यादा हमें जागरूक होने की आवश्यकता है। सरकारें स्वंय ही ऐसे माहौल पैदा के लिए जिम्मेदार रही हैं। गर हम आज नहीं संभलें, इनके खिलाफ बेहतर मुहिम नहीं चालू की, तो आने वाले दिनों में इन लोगो की संख्या इतनी बढ़ जायेगी जिसे संभाल पाना मुश्किल हो जायेगा। और हम एक पतन की ओर मुड़ चुके होंगे। मैं और आप कल्पना तक भी नही कर सकते कि आने वाले दिनों में इस खूबसूरत दुनिया का क्या हाल होगा?
© शक्ति सार्थ्य
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