कुछ भी कहना ये साबित नहीँ करता कि मैँ वो हूँ… मेरा होना स्वाभाविक है… अक्सर उदास हो जाता हूँ… ये मेरे लिए होना… आप समझ लो कि मैँ स्वंय से नाराज हूँ… मैँ अपने आप से झगड़ता हूँ… जब कभी मैँ बहस मेँ अपने मन से हार जाता हूँ… ये बड़ा जिद्दी है… इसकी बातेँ माननी पड़ती हैँ… ये कुछ भी करा लेता है मुझसे… मैँ इसका दास बने सब किये जाता हूँ… मैँ लिखना नहीँ चाहता पर ये न जाने कहाँ से विचार ढूँढ़ लाता है और अपनी मनमानी या योँ मान ले धौँस दिखाता है… मुझको बीमारी लगाने की जद्दोजहद मेँ हैँ… हाँ, लेखन की बीमारी और मैँ न जाने क्योँ इसकी बात मान बैठता हूँ… मैँ भी अब कहीँ लिप्त हूँ इसमेँ… मेरा लिप्त होना मेरा नहीँ है… ये तो मैँ मन का गुलाम हूँ… मैँ चाहकर भी ठोकर नहीँ मार सकता अपने मन को… या योँ कह ले मैँ अक्सर इसके जाल मेँ फँस जाता हूँ… मैँ लालची हूँ… और ये लालच देने वाला… लेकिन कुछ भी कह लो फायदा इसमेँ मेरा ही है… बस मुझे कुछ बक्त देना होता है अपने मन को… और ये दे जाता है मुझे अनगिनत लम्होँ को जोड़ने वाला फार्मूला… मैँ लिखता हूँ… ये लिखवाता है… अपना क्रेडित भी मुझे दे जाता… कुछ भी कहो ये मुझसे भिन्न है…
(डायरी से...)
अप्रैल २०१४
© शक्ति सार्थ्य
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