सत्ता समर्थक हप्ते भर पहले से बजट की अच्छाइयां गिनाने की प्रैक्टिस करते हैं, तो विपक्षी दल के समर्थक डेढ़ हप्ते पहले से ही बजट की कमियां गिनाने की प्रैक्टिस करते हैं। आप किसी सत्ता विरोधी से पूछिए- भइया बजट कैसा रहा?वह पूरे गर्व के साथ उत्तर देगा- भाई यह सरकार लोगों का खून चूस रही है। ऐसा विनाशकारी बजट तो आज तक नहीं आया। बस समझ लो कि आम आदमी को चक्की में पीस देने वाला बजट है यह। हालांकि इस बात की भी साढ़े निन्यानवे दशमलव सन्तानवे प्रतिशत सम्भावना है कि महोदय को बजट का 'ब' तक समझ मे नहीं आया होगा, और बजट पर दिया जाने वाला उनका बयान भी किसी दूसरे ने लिखा होगा।
वहीं सत्ता समर्थक बजट के लिए कहेंगे- अद्भुत, अद्वितीय, अतृतीय, अचतुर्थ, अविस्मरणीय, अकल्पनीय, अवर्णनीय, अकथनीय, अफेकनीय... हरामखोर इतने शब्द गढ़ देंगे कि सुनने वाला इस शब्द प्रहार से बचने के लिए ही मान लेगा की बजट सनी लियोनी के सतीत्व, आमिर खान की राष्ट्रभक्ति, राहुल गांधी के हिंदुत्व, भारतीय न्यायपालिका की न्यायप्रियता, अमिताभ बच्चन के महानायकत्व, कुमार विश्वास के कवित्व, चेतन भगत के साहित्य, राखी सावंत के सौंदर्य, उद्धव ठाकरे के राष्ट्रवाद, भारतीय वामपंथ के जनवाद, मुलायम जी के शब्द विन्यास, अखिलेश जी के समाजवाद, लालू जी की ईमानदारी, नीतीश जी के विकास, तेजस्वी जी की योग्यता, तेजप्रताप जी की भाषण शैली, आलम बोहरा की खूबसूरती, आडवाणी जी के सौभाग्य, मोदी जी के वादों और ममता बनर्जी के ब्राह्मणत्व की तरह सौ फीसदी टंच है। इस बीच देश की साढ़े बयासी दशमलव आठ प्रतिशत लोगों को यह पता भी नहीं कि यह ससुरा बजट है क्या।
सच पूछिए तो बजट सरकार का एक ऐसा हास्य कवि सम्मेलन है जिसमें पक्ष और विपक्ष के नेता-परेता एक दूसरे को चिढ़ा कर आनंद लेते हैं। आप देखते होंगे समाचार की दुकानों में छिड़ी प्रायोजित डिबेट में करोड़ों की गाड़ियों से उतर कर बैठे पार्टी प्रवक्ता जब मुस्कुरा कर कहते हैं कि "सरकार को मध्यम बर्ग का ख्याल रखना चाहिए था", तो उनका मुह देख कर लगता है जैसे जनता को भौजाई समझ कर आंख मार रहे हों। उधर किसी दूसरे चैनल पर सत्ताधारी दल की खूबसूरत नेत्री जब अभिनेत्री की तरह आंख मटका कर कहती हैं कि सरकार ने बजट में महिलाओं के किचेन का ध्यान रखा है, तो उस समय लगता भी नही कि इन श्रीमती जी को अपने किचेन में घुसे पूरे साढ़े आठ साल हो गए हैं, और इन्हें यह भी नहीं पता कि एक सामान्य महिला अपने किचेन के लिए क्या क्या खरीदती है।
कभी आपने सोचा है कि भारत का आम बजट सामान्यतः फागुन में ही क्यों आता है?
असल मे जिस प्रकार सूफी परम्परा में अल्लाह को प्रेमी, और स्वयं को प्रेमिका मान कर गीत गाया जाता है, उसी प्रकार लोकतंत्र में जनता भौजाई और नेता देवर होता है और फागुन में देवर अपनी जनता भउजी पर बजट का रंग फेंक कर अमिताभ बच्चन की तरह गाता है, "रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे"। बेचारी जनता भौजाई कुहुक कर मन ही मन कहती है- लगा लो रंग बेटा, कमजोर की लुगाई न होती तो लोकतंत्र में जन्म थोड़ो होता...
खैर! मेरे हिसाब से इस साल का बजट अद्भुत है। क्यों? यह न पूछियेगा।
© सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार
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