(चित्र साभार गूगल)
प्रेम के ताले : फ़रवरी 13
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एक वो जो लगे हैं उसके ओष्ठों पर, दूसरे जो वो लगाती है अपने ओष्ठों से। वो "ताले" जिनके कारक भी ओष्ठ हैं और लक्ष्य भी ओष्ठ।
प्रेम में बंधन हैं या है मुक्ति, शोध का अनुसंधान का पृथक् विषय हो सकता है।
बहरहाल, "ताले" अवश्य हैं प्रेम में।
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प्रेम में "तालों" से ही प्रगाढ़ता का आरंभ होता है। पर्वत शिखर-से सुबोधगम्य ललाट पर लगता है प्रथम "ताला"। और फिर कपोल, फिर ओष्ठ, फिर ग्रीवा पर वो उत्सुकता मानो ओष्ठ से "मन्या" को स्पर्श करने की तीव्र इच्छा लिए हैं जन्मों से।
डॉ कुमार की "मधुयामिनी", जीवंत हो गयी मानो : "सुर्ख़ होठों से झरना सा झरता रहा।"
कंठ से कुच, कुचाग्र, कुक्ष और कुक्षि तक, वक्ष से पृष्ठ तक, प्रदेशिनी से स्कन्ध और फिर अवलग्न तक ओष्ठों का साम्राज्य, और पीड़ा भी होगी दंत से। जिह्वा शहद से युक्त हुयी और गुलज़ार याद आ गये : जब से तेरे जिस्म की मिश्री होंठों से लगाई है, मीठा मीठा सा ग़म है और मीठी सी तन्हाई है।
उँगलियों पर भी हैं "ताले", कलाई से होते हुए हृदय की ओर जा रहे हैं मानो। धमनियों और शिराओं में, ओष्ठों से लगे "ताले", स्नायु तंत्र की प्रत्येक तंत्रिका में। त्वचा पर सृणिका की धाराएँ, प्रवाहित स्यन्दिनी मानो हृदय के समुद्र की ओर अग्रसारित हो, ओष्ठों से।
समग्र दरिया के जल को "गुलाबी" करने की ताक़त रखने वाले ओष्ठ, जब बाँध हैं गुलाबों भरी गाँठ के "ताले"। हर रोज़ उस क़लम को नहीं उठाता, जिसे तुम चबाती थीं अनुराग के विषय में सोचते हुए। आज भी उससे लिखे हर्फ़, अल्फ़ाज़ और नज़्म लड़खड़ा रहे हैं किताबों में।
त्रिक से कट, कटि, कटिप्रोथ और कुकुंदर पर ऊष्णवायु युक्त ओष्ठ, अपना मार्ग प्रशस्त करते हैं : प्रसृता से होकर उपस्थ तक। और फिर मेरुदंड में प्रवाहित प्रेम का कम्पन, वही तितली के पंखों से बने "तालों" की इस्पात चपेट।
और जब एकाकार होकर, आँखें आयीं आँखों की जद में : "लजा कर शर्म खा कर मुस्कुरा कर, दिया चुंबन मगर मुँह को बना कर।"
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"तिलकालक" का बड़ा महत्व है "ओष्ठ" पर हो या हो "लक्ष्य" पर, महत्व दोनों ही स्थान पर है। इस ज़िक्र बिना ये केलुफ़किस्सा ज़ाहिर करने लायक न हो सकेगा।
जिक्र "तिल" का ऐसा चला कि गुड़ पे लगा वो गजक हो गया और गाल पे लगा तो गजब हो गया। शफक गाल पर काला तिल ना जाने कितने ही कथानकों का आधार बना होगा, उनकी प्रेरणा बना होगा।
जब कोई उचारता है : "और तो पुरानी बातें याद नहीं मगर हाँ, उसके होंठ पे तिल हुआ करता था।" किसी अज्ञातकुलशील कवि ने कहा है : "चुपचाप रहता हैं, फिर भी सवाल करता है। तेरे होंठों का तिल, सच में बवाल करता है।"
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उसके ओष्ठों पर लगे "तालों" में समंदर बंद हैं, समूची सृष्टि को प्यास है जल की। क्यों बंद है समंदर अप्रवाहित सा, इस निहित रहस्य से पर्दा हटाते हैं "अज्ञेय", सच्चिदानंद अज्ञेय।
कहते हैं : "घर केवल एक कमरा रहा हो और चाबियों का गुच्छा केवल एक ताली, और कहीं और छोड़ आने की बजाय आपने उसे कमरे के भीतर ही छोड़ दिया हो क्योंकि कमरे का ताला उस जाति का है जिसे बन्द करने के लिए ताली की जरूरत नहीं पड़ती, वह दबा देने से ही बन्द हो जाता है।"
और इधर इक्कीसवीं सदी के प्रगतिशील साहित्य में "मनीष मोहन" अभिहित करते हैं बंद "तालों" का रहस्य, कहते हैं : तुमने मुझे छाँटा, उठाया, तराशा, सजाया और रख दिया सुरक्षित सहेज कर प्रेम के ताले में, जाने क्यूँ स्वयं पर हो झुँझलाती, जब नहीं खुलता वह तुम्हारे अभिमान, प्रत्याशाओं और जिद की चाबी से।
"तालों" के साथ उन ओष्ठों पर होती हैं शिक़ायतों की चिटकनी जिनकी कुंजी ज्ञात है, मगर नहीं है उसके होंठों से लगे "तालों" का उपाय। और वो निरूपाय हैं देह से आत्मा तक की परतों तक, तितली से पंखों से बने "केलुफ़" जो हैं इस्पात से भी कठोर प्रस्फुटन में।
स्वयं को दर्पण के अधिक जाकर नहीं देखती वो। चूँकि समतल दर्पण भी उत्तल दर्पण बनकर बंध जाता होगा ओष्ठ "तालों" से। जब वो जाती हैं, ज्वलंत दीपक को शांत करने तो लौ की मंशा होती है उन "तालों" में क़ैद होने की, जहाँ से प्रवाहित हुआ है शीतल और तीव्र समीरण।
ओष्ठों का लिबास बनती है वो लौ, दिवस के सूर्य प्रकाश में शुक्रतारे-सी।
अस्तु।😘
[ पुनश्च : कितनी भी स्वावलंबी हो जाए ये मानव सभ्यता, किंतु स्वयं का चुंबन कभी नहीं लिया जा सकेगा। ]
© योगी अनुराग
मथुरा, उत्तर प्रदेश
प्रेम के ताले : फ़रवरी 13
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एक वो जो लगे हैं उसके ओष्ठों पर, दूसरे जो वो लगाती है अपने ओष्ठों से। वो "ताले" जिनके कारक भी ओष्ठ हैं और लक्ष्य भी ओष्ठ।
प्रेम में बंधन हैं या है मुक्ति, शोध का अनुसंधान का पृथक् विषय हो सकता है।
बहरहाल, "ताले" अवश्य हैं प्रेम में।
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प्रेम में "तालों" से ही प्रगाढ़ता का आरंभ होता है। पर्वत शिखर-से सुबोधगम्य ललाट पर लगता है प्रथम "ताला"। और फिर कपोल, फिर ओष्ठ, फिर ग्रीवा पर वो उत्सुकता मानो ओष्ठ से "मन्या" को स्पर्श करने की तीव्र इच्छा लिए हैं जन्मों से।
डॉ कुमार की "मधुयामिनी", जीवंत हो गयी मानो : "सुर्ख़ होठों से झरना सा झरता रहा।"
कंठ से कुच, कुचाग्र, कुक्ष और कुक्षि तक, वक्ष से पृष्ठ तक, प्रदेशिनी से स्कन्ध और फिर अवलग्न तक ओष्ठों का साम्राज्य, और पीड़ा भी होगी दंत से। जिह्वा शहद से युक्त हुयी और गुलज़ार याद आ गये : जब से तेरे जिस्म की मिश्री होंठों से लगाई है, मीठा मीठा सा ग़म है और मीठी सी तन्हाई है।
उँगलियों पर भी हैं "ताले", कलाई से होते हुए हृदय की ओर जा रहे हैं मानो। धमनियों और शिराओं में, ओष्ठों से लगे "ताले", स्नायु तंत्र की प्रत्येक तंत्रिका में। त्वचा पर सृणिका की धाराएँ, प्रवाहित स्यन्दिनी मानो हृदय के समुद्र की ओर अग्रसारित हो, ओष्ठों से।
समग्र दरिया के जल को "गुलाबी" करने की ताक़त रखने वाले ओष्ठ, जब बाँध हैं गुलाबों भरी गाँठ के "ताले"। हर रोज़ उस क़लम को नहीं उठाता, जिसे तुम चबाती थीं अनुराग के विषय में सोचते हुए। आज भी उससे लिखे हर्फ़, अल्फ़ाज़ और नज़्म लड़खड़ा रहे हैं किताबों में।
त्रिक से कट, कटि, कटिप्रोथ और कुकुंदर पर ऊष्णवायु युक्त ओष्ठ, अपना मार्ग प्रशस्त करते हैं : प्रसृता से होकर उपस्थ तक। और फिर मेरुदंड में प्रवाहित प्रेम का कम्पन, वही तितली के पंखों से बने "तालों" की इस्पात चपेट।
और जब एकाकार होकर, आँखें आयीं आँखों की जद में : "लजा कर शर्म खा कर मुस्कुरा कर, दिया चुंबन मगर मुँह को बना कर।"
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"तिलकालक" का बड़ा महत्व है "ओष्ठ" पर हो या हो "लक्ष्य" पर, महत्व दोनों ही स्थान पर है। इस ज़िक्र बिना ये केलुफ़किस्सा ज़ाहिर करने लायक न हो सकेगा।
जिक्र "तिल" का ऐसा चला कि गुड़ पे लगा वो गजक हो गया और गाल पे लगा तो गजब हो गया। शफक गाल पर काला तिल ना जाने कितने ही कथानकों का आधार बना होगा, उनकी प्रेरणा बना होगा।
जब कोई उचारता है : "और तो पुरानी बातें याद नहीं मगर हाँ, उसके होंठ पे तिल हुआ करता था।" किसी अज्ञातकुलशील कवि ने कहा है : "चुपचाप रहता हैं, फिर भी सवाल करता है। तेरे होंठों का तिल, सच में बवाल करता है।"
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उसके ओष्ठों पर लगे "तालों" में समंदर बंद हैं, समूची सृष्टि को प्यास है जल की। क्यों बंद है समंदर अप्रवाहित सा, इस निहित रहस्य से पर्दा हटाते हैं "अज्ञेय", सच्चिदानंद अज्ञेय।
कहते हैं : "घर केवल एक कमरा रहा हो और चाबियों का गुच्छा केवल एक ताली, और कहीं और छोड़ आने की बजाय आपने उसे कमरे के भीतर ही छोड़ दिया हो क्योंकि कमरे का ताला उस जाति का है जिसे बन्द करने के लिए ताली की जरूरत नहीं पड़ती, वह दबा देने से ही बन्द हो जाता है।"
और इधर इक्कीसवीं सदी के प्रगतिशील साहित्य में "मनीष मोहन" अभिहित करते हैं बंद "तालों" का रहस्य, कहते हैं : तुमने मुझे छाँटा, उठाया, तराशा, सजाया और रख दिया सुरक्षित सहेज कर प्रेम के ताले में, जाने क्यूँ स्वयं पर हो झुँझलाती, जब नहीं खुलता वह तुम्हारे अभिमान, प्रत्याशाओं और जिद की चाबी से।
"तालों" के साथ उन ओष्ठों पर होती हैं शिक़ायतों की चिटकनी जिनकी कुंजी ज्ञात है, मगर नहीं है उसके होंठों से लगे "तालों" का उपाय। और वो निरूपाय हैं देह से आत्मा तक की परतों तक, तितली से पंखों से बने "केलुफ़" जो हैं इस्पात से भी कठोर प्रस्फुटन में।
स्वयं को दर्पण के अधिक जाकर नहीं देखती वो। चूँकि समतल दर्पण भी उत्तल दर्पण बनकर बंध जाता होगा ओष्ठ "तालों" से। जब वो जाती हैं, ज्वलंत दीपक को शांत करने तो लौ की मंशा होती है उन "तालों" में क़ैद होने की, जहाँ से प्रवाहित हुआ है शीतल और तीव्र समीरण।
ओष्ठों का लिबास बनती है वो लौ, दिवस के सूर्य प्रकाश में शुक्रतारे-सी।
अस्तु।😘
[ पुनश्च : कितनी भी स्वावलंबी हो जाए ये मानव सभ्यता, किंतु स्वयं का चुंबन कभी नहीं लिया जा सकेगा। ]
© योगी अनुराग
मथुरा, उत्तर प्रदेश
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