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कसाईबाड़े की कटार - सुशोभित सक्तावत


"कसाईबाड़े" की "कटार"
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भारत में "धर्मनिरपेक्षता" का जो स्वरूप प्रचलित है, उसमें न्यस्त विडंबनाओं और सहानुभूतियों के डावांडोल केंद्रीयकरणों के बारे में टिप्पणी करते हुए इन पंक्तियों का विनयी लेखक अकसर यह परिभाषा दिया करता है :

"कसाईबाड़े" में जिसकी सहानुभूति "कटार" के प्रति हो, वह "धर्मनिरपेक्ष!"

"पंडित" जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक पूर्व छात्रा, जो कि सम्भवतया एक "अभिनेत्री" भी है, ने फ़िल्मकार संजय लीला भंसाली के नाम जो खुला पत्र लिखा है, उसको मैं भारतीय इतिहास के रक्तरंजित "कसाईबाड़े" में "कटारों" के प्रति सहानुभूति दर्शाने का एक ऐसा जघन्य प्रयास मानता हूं, जो अपने तात्पर्यों में अगर इतना कुत्सित, इतना आपराधिक नहीं होता, तो निश्चित ही उसे अत्यंत उपहास्य माना जा सकता था।

बावजूद इसके, वह पत्र इतना मूढ़तापूर्ण तो है ही कि मेरे विनम्र मत में उसको लिखने के लिए "पंडित" जवाहरलाल नेहरू की अंतरात्मा को उस "पूर्व छात्रा व सम्भवतया अभिनेत्री" पर "मानहानि" का मुक़दमा दायर करने के बारे में विचार करना चाहिए।

"पत्रलेखिका" ने फ़िल्मकार को लिखे पत्र में कहा कि : "आपकी फ़िल्म देखने के बाद मुझे ऐसी अनुभूति हुई, जैसे कि मैं एक "योनि" हूं।"

इस अनुभूति के अनेक कारण हो सकते हैं!

किंतु जो कारण उन्होंने स्वयम् गिनाए हैं, वे मुख्यतया इस प्रकार हैं :

1) पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री को संपत्ति की तरह देखती है, अतएव उसके "हस्तांतरण" से वह विचलित होती है।

2) किंतु चूंकि स्त्री एक संपत्ति नहीं है, अतएव उसके "हस्तांतरण" में हर्ज क्यों होना चाहिए, आत्मदाह तो दूर की बात है।

3) चूंकि वह हस्तांतरण एक हिंदू राजा और एक ऐसे व्यक्ति के बीच होना था, जिसे "म्लेच्छ" कहकर अपवित्र माना जाता है, अतएव यह स्त्री पर लादे गए "यौन शुचिता" के सनातनी दुराग्रहों का भी मामला है।

4) चूंकि स्त्री केवल एक "यौनांग" नहीं होती, अत: उसके यौनांग के बलात् मानमर्दन के बावजूद उसे जीवन का अधिकार है।

5) अगर मुझे कोई एक विकल्प चुनने का अवसर मिले तो मैं अवश्य ही आत्मदाह को तजकर सुल्तान के "हरम" में सम्मिलित होने का विकल्प चुनूंगी।

मेरा मत है कि यह पत्र बुद्धिहीनता, विवेकशून्यता, दृष्टिदोष, ऐतिहासिक पूर्वग्रह, लैंगिक विभ्रम और सहानुभूतियों के कपटपूर्ण केंद्रीयकरण का इतना नायाब नमूना है कि उसे मूढ़ता के एक इश्तेहार की तरह भी उपयोग किया जा सकता है।

क्योंकि-

1) स्त्री का बलात अपहरण उसका "हस्तांतरण" नहीं है। प्रेम के आधार पर अपने साथी का चुनाव करना भी स्त्री का स्वाभाविक अधिकार होता है।

2) चूंकि स्त्री एक "संपत्ति" नहीं है, इसीलिए युद्ध में जीती गई सामग्री की तरह उसके उपभोग पर भी हर प्रकार से आपत्ति दर्ज कराई जानी चाहिए।

3) यह महज़ साम्प्रदायिक घृणा और यौन शुचिता का मामला नहीं है, किंतु यह तो स्पष्ट ही है कि "पत्रलेखिका" इस बात को समझने में पूरी तरह से अक्षम है कि एक स्त्री अपने राज्य पर आक्रमण करने वाले और अपने पति की हत्या करने वाले व्यक्ति से घृणा भी कर सकती है और उसकी "यौनदासी" बनने से इनकार भी कर सकती है।

4) चूंकि स्त्री मात्र एक "यौनांग" नहीं होती, इसीलिए वह "यौनदासी" बनने से इनकार करती है। फिर बलात्कार और यौनदासता भी समान नहीं हैं। "वन टाइम सेक्शुअल हैरेसमेंट" और "लाइफ़ टाइम सेक्स स्लैवरी" में बहुत अंतर है।

5) अगर "पत्रलेखिका" आत्मदाह करने के बजाय सुल्तान की "यौनदासी" बनने का चयन करती है, तो वस्तुत: वह एक "योनि" बनकर रहने का ही चयन करना चाहती है, इससे विपरीत नहीं।

जिस प्रकार प्राकृतिक विपत्ति की स्थिति में आपदा नियंत्रण की मशीनरी बिना कोई शिक़ायत किए बचाव और राहत कार्य में जुट जाती है, यह मानकर कि प्राकृतिक आपदाओं पर भला हमारा क्या नियंत्रण, कुछ उसी अंदाज़ में भारतीय धर्मनिरपेक्षता के ये कर्णधार विधर्मी अत्याचार को उस तरह स्वीकार कर लेते हैं, जैसे कि वह तो अवश्यम्भावी ही हो।

गोया कि, सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को तो राजपूताने पर आक्रमण करना ही था, उसे रानी को अपने हरम में लेकर जाना ही था, उसे उसके साथ बलात्कार कर उसको आजीवन अपनी "यौनदासी" बनाकर रखना ही था, किंतु रानी ने इससे इनकार करते हुए आत्मदाह करने का "दु:साहस" भला कैसे कर दिया?

यही वो जघन्य "वृत्ति" है, जिसको मैं "कसाईबाड़े में कटार के प्रति सहानुभूति" का प्रदर्शन मानता हूं।

"पत्रलेखिका" ने कुछ इस अंदाज़ में उन परिस्थितियों का वर्णन किया है, जैसे कि सुल्तान के द्वारा क्षत्राणी के बलात् अपहरण का प्रयास एक क़िस्म का "सेक्स टूरिज़्म" हो, एक तरह का "इंटररेशियल सेक्शुअल एडवेंचर", एक प्रकार की "ब्लाइंड डेट", जिसमें कि हर्ज ही क्या है? भला इसमें कौन से गौरव की क्षति हो गई?

जिस परिप्रेक्ष्य से उस "पत्रलेखिका" ने ये तमाम बातें कही हैं, वह इन धर्मनिरपेक्ष उदारवादियों की बौद्धिक विपन्नता की कलई खोल देने वाला है कि ये किस कपोल-कल्पित संसार में रहते हैं, जहां इनके सामने वास्तविकता और उसके विवेक का कोई आधार ही शेष नहीं रह गया है? ये अपने पूर्वग्रहों में इतने अंधे हो चुके हैं कि पूरी तरह से मूल्यचेतना से विस्थापित हो चुके हैं।

जब वह "पत्रलेखिका" यह कहती है कि मैं "जौहर" करने के बजाय "हरम" में रहना पसंद करूंगी, तो मेरी विनम्र जिज्ञासा यह है कि एक "योनि" बनकर जीने से इनकार करने वाली आप हैं या वह स्त्री, जिसने इसकी तुलना में अंगारों पर कूद जाना स्वीकार किया था?

मूढ़ता की अति तो यह है कि "पत्रलेखिका" यह भी लिखती है कि यह फ़िल्म हमें उन तमाम परिघटनाओं से पीछे ले जाती है, जिनके तहत स्त्री को मतदान, संपत्ति, समान वेतन, अभिव्यक्ति और यौन प्रताड़ना के प्रतिकार का अधिकार दिया गया था। तिस पर मेरी विनम्र जिज्ञासा यह भी है कि जिस "हरम" में जाने की इच्छा "पत्रलेखिका" इतनी निर्लज्जता से ज़ाहिर करती है, वहां पर उनको किस प्रकार का "मतदान" का अधिकार प्राप्त होने वाला था, वहां उनको कितना "वेतन" प्राप्त होने वाला था, वहां वे किस अख़बार में क्या लेख लिखने के लिए स्वतंत्र रहने वाली थीं, और वहां उनके साथ होने वाली यौन प्रताड़ना का प्रतिकार वो किस अदालत में दुहाई करके करने वाली थीं?

पत्रलेखिका को "जौहर" प्रथा के कथित महिमामंडन पर आपत्ति है, किंतु "आक्रांता" के एक योद्धा और प्रेमी के रूप में महिमामंडन पर वे मुतमईन हैं। "जौहर" को वे स्त्रीविरोधी बतलाती हैं, जैसे कि "हरम" स्त्री के लिए गौरवशाली अवस्था हो। पत्र समाप्त होते-होते "राजपूती गौरव" के जयगान पर क्षुब्ध होने से आगे बढ़कर वे एक समुदाय विशेष के अनुचित चित्रण की ओर संकेत कर ही जाती हैं और "सती सावित्री" कहकर क्षत्राणियों पर कटाक्ष करती हैं। यह पूरी इतिहासदृष्टि इतनी भयावह, इतनी घृणास्पद, इतनी संवेदनशून्य और इतनी पक्षपातपूर्ण है कि सम्भवतया उस पत्र को भाषा के साथ किए गए एक अपराध और दुराचार की संज्ञा ही दी जा सकती है।

सबसे अंत में, जिस एक बात को इन दिनों बहुत ही सुविधापूर्ण तरीक़े से भुला दिया जाता है, वो यह है कि "संसर्ग" एक इतना निजी, निष्कवच, प्रेमल और संवेदनशील निर्णय होता है, कि निजता के उस क्षेत्र में बलात अतिक्रमण एक गहरा मर्मांतक आघात भी हो सकता है। उसे पुरुषसत्ता के द्वारा रचे गए "यौन शुचिता" के छद्म तक सीमित कर देना एक कपटपूर्ण प्रयास ही माना जाएगा। और अपने आत्माभिमान का मानमर्दन करवाकर भी जीवित रहने का अधिकार जितना उचित है, उससे जाजवल्यमान इनकार का निजी निर्णय भी उतना ही स्वाभाविक है और उस निर्णय में निहित स्वाभिमान का उपहास करने की क्षमता केवल मनुष्यद्रोही अपराधियों में ही हो सकती है।

इति।

[फेसबुक पोस्ट से साभार]


© सुशोभित सक्तावत
(असिस्टेंट एडिटर, आह! जिंदगी पत्रिका दैनिक भास्कर समूह ग्रुप)

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