क्या जानवर भी इंसानों की तरह लड़ते हैं?
●Do Animals Have War Like Humans?●
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मुख्यतः एशिया में पाये जाने वाले कीड़े "हार्नेट" को प्रकृति के "क्रूरतम शिकारियों" में से एक कहना अतिशयोक्ति नही होगी। हार्नेट के बेहद महबूत जबड़े इसे अपने शिकार को चीर-फाड़ने तथा तीन इंच लंबे मजबूत पंख 25 मील/घण्टा की रफ़्तार से शिकार का पीछा करने की क्षमता प्रदान करते हैं। यूरोप में इन हार्नेटो का मुख्य शिकार मधुमक्खियां होती है। छत्ते को देख, छत्ते के प्रवेशदार पर हार्नेट फेरोमोन नामक केमिकल की बूंदे चुआते हैं जो शिकार के लिए घूम रहे अन्य हार्नेटो के लिए "बुलावे की घण्टी" होती है और इस प्रकार 20-30 हार्नेटो की फ़ौज मधुमक्खियों पर कहर बरपाने के लिए तैयार खड़ी होती है।
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संख्या में तीस हजार होने के बावजूद मधुमक्खियों के लिए यह जंग एक औपचारिकता मात्र होती है। प्रति मिनट 40 से ज़्यादा मधुमक्खियों को चीर-फाड़ते हार्नेटो के लिए यह मात्र कुछ देर का खेल होता है। कुछ ही देर में छत्ता मधुमक्खियों के छत-विक्षत मृतावशेषों से पटा हुआ होता है। कुछ दिन हार्नेटो की फ़ौज छत्ते में रहते हुए मजे से मधुमक्खियों को चट करते हुए बिताती है और फिर अंततः ये मृत्युदूत फिर एक नए शिकार की तलाश में उड़ पड़ते हैं।
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दसियों हजार के झुण्ड में नगर बसा कर रहने वाली चींटियों के आपसी समन्वय तथा सहयोग के अतिरिक्त "उनकी युद्धनीति" भी एक शोध का विषय है। अक्सर चींटियां झुण्ड में दूसरी चीटियों अथवा कीड़ों के नगर पर हमला कर भोजन के स्त्रोतों पर कब्जा कर लेती हैं। चींटियों की ये लड़ाई किसी भी पारंपरिक मानवीय युद्ध की याद दिला देती है क्योंकि चींटियों का उद्देश्य सिर्फ भोजन अथवा साम्राज्य विस्तार ही नही होता बल्कि चींटियां अक्सर दुश्मन चींटियों के अंडे चुरा कर उत्पन्न होने भावी संतानों को गुलाम बनाने का कार्य भी अंजाम देती हैं।
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जैविक परिवार में मनुष्य के सबसे नजदीकी संबंधी "चिंपैंजी" भी कुछ अलग नही। झुण्ड में रहकर दूसरे चिंपैंजियो के समूह पर हमला कर उन्हें उनके क्षेत्र से खदेड़ कर क्षेत्र विस्तार की प्रवृत्ति अक्सर चिंपैंजियों में भी दर्ज़ की गई है।
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अस्तित्त्व सुरक्षा के लिए, मादा के लिए, भोजन के लिए, साम्राज्यवाद के लिए युद्ध और रक्तपात प्रकृति द्वारा उत्पन्न जीवों का मूल स्वभाव है। भीषण रक्तपात और संहार की प्रवृत्ति जीवजगत में हर जगह दर्ज की जा सकती है। हम इंसान इस पैमाने पर एक कदम आगे हैं क्योंकि उपरोक्त कारणों के अलावा हम इंसान "आस्था और मजहब" के नाम पर भी अपनी ही प्रजाति के लोगों का रक्त बहाने की मूर्खता अंजाम देने में में अव्वल सिद्ध हो चुके हैं
और साथ ही साथ... तकनीकी प्रगति के जरिये आज हम खुद को इस काबिल भी बना चुके हैं कि अपने क्रिया-कलापों से हम मानवजाति के साथ-साथ इस खूबसूरत नीले-सफ़ेद ग्रह के विनाश की पटकथा अपने ही हाथों से लिख सकने में सक्षम हैं।
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पर भी.. पृथ्वी नामक ग्रह पर अपने नकारात्मक प्रभाव, नफरत-हिंसा-वहशियत के काले इतिहास और एक प्रजाति के तौर पर ढेरो असफलताओं के बावजूद कहीं ना कहीं मुझे लगता है कि...
हम इंसान.. "महान" कहलाने योग्य हैं !!!
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शक्ति का प्रादुर्भाव स्वतः ही श्रेष्ठता बोध, अहंकार, अत्याचार को जन्म देता है। शक्तिशाली राज करता है, निर्बल की नियति आतंकित रहना है। देखा जाए तो "जिसकी लाठी, उसकी भैंस" ही प्रकृति का नियम है। पर हम इंसान स्वयं अपने लिए नियम बनाने और बेहतर फैसले लेने में सक्षम हैं।
हम इंसान निरंतर अपनी गलतियों से सीखने में सक्षम हैं और एक स्याह इतिहास के बावजूद आज इक्कीसवीं सदीं में हम मनुष्य "महान" कहलायें जाने योग्य है क्योंकि 4 अरब वर्ष के जीवन इतिहास में मनुष्य ही एकलौता ऐसा जानवर है जो निर्बलों के लिए कानून बनाता है। संविधान की रचना करता है। लिंग-भेद-जाति-मजहब के सभी प्राणियों को समानता का अधिकार उपलब्ध कराता है और नियमों को ना मानने वालों को दण्डित करने का सामर्थ्य भी रखता है।
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Despite Of All Disappointments & Failures, We Humans Are Still Capable Of Greatness.
Because...
We Create Laws...
... & We Have Power To Enforce !!!
[फेसबुक पोस्ट से साभार]
© विजय सिंह ठकुराय
(वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "बेचैन बंदर" के लेखक)
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