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मुक्ति (कहानी) - अबीर आंनद


 आपूर्ति भवन के सामने वाले बस अड्डे पर, वह रोजाना की तरह अपनी बस का इंतज़ार कर रहा था वह सुयोग राणा था राज्य सरकार के आपूर्ति विभाग में एक अधिकारी हाथ में एक छोटा सा पर्स नुमा बैग था शायद किसी परिचित दुकानदार ने दिया था थोक व्यापारियों को अक्सर ऐसे बैग, गुटखा और खैनी बनाने वाली कम्पनियाँ उपहारस्वरूप दे देती हैं और ये व्यापारी फिर इन्हें अपने परिचितों को हस्तांतरित कर देते हैं शक्ल सूरत कोई खास नहीं थी पर कद काठी लुभावनी थी उसका सादा पहनावाउसके पौने छः फुट के आस पास के कद, और चौड़े सीने पर बिलकुल भी नहीं फबता था क्रीम रंग की शर्ट उसके गहरे हरे रंग की पतलून के ऊपर बाहर से ही लटक रही थी आम तौर पर लोग, और विशेषतः अधिकारी लोग, शर्ट को पतलून के अन्दर ठूँस कर पहनते हैं खैर, राजधानी में राज्य सरकारों के मुख्य भवनों पर बैठने वाले अधिकारी तो, यूँ सुयोग राणा की तरह सिटी बस में भी सफ़र नहीं करते ऐसे कई मामलों में वह अन्य अधिकारियों से एकदम अलग था और पैरों में सफ़ेद भक्क स्पोर्ट्स शूज दूर से देखने पर भी उसके पहनावे का विन्यास एकदम अलहदा और विचित्र लगता था चेहरा थोड़ा अजीब सा था, लम्बा कहलाने की ज़द्दोज़हद में कुछ खिंचा हुआ सा। पर ज्यादातरचेहरे की आकृति की तुलना एक समद्विबाहु त्रिकोण से की जा सकती हैजिसकी छोटी भुजा पर उसकी दोनों आँखें थीं, और दो लम्बी भुजाएँ उन आँखों के सिरों को उसकी नुकीले ठोड़ी से जोड़ती थीं रंग न साफ़ था न गहरा। गेहुआं कहें तो साफ़ की तरफ हो जाता, और साँवला कहें तो काले की तरफ बस इस गेहुएँ और साँवले के बीच का मिश्रण था सर के बाल घने और व्यवस्थित थे सुबह चुपड़े गए तेल की बासी चिकनाई अब भी उस के बालों में चमक रही थी जितना संभव था, पूरा चेहरा बारीक दाढ़ी से भरा हुआ था ऐसा लगता था, जैसे उसने अपने जीवन में कभी भी अपने गालों पर रेज़र का प्रयोग किया ही नहीं था ठोड़ी के निचले हिस्से की दाढ़ी में सफेदी अपना घना डेरा डाल चुकी थी सफेदी की नई खेप उसके कानों के ऊपर के बालों पर भी उगनी शुरू हो गई थी पिछली होली में ही वह चालीस का हुआ था 
"विनय खंड" बस कंडक्टर से टिकट लेने के लिए उसने अपना स्टॉप बताया
और फिर करीब एक घंटे का सफ़र उसने उस भीड़ भरी बस में खड़े खड़े ही तय किया
"प्रज्ञा"
अपने घर की घंटी बजाते हुए उसने पत्नि को आवाज दी करीब सौ वर्ग गज के प्लाट पर ये उसका अपना मकान था बाकी और घरों की तरह, आगे कुछ पपीते के पेड़ लगे हुए थे, और दरवाजे के ठीक सामने एक गैलरी थी थोड़ी सी जगह कार की गैराज की तरह उपयोग करने के लिए भी रख छोड़ी थी पर चूँकि कार नहीं थी, तो घर के सामने का पूरा हिस्सा खुला-खुला नज़र आता था प्रज्ञा को दरवाजा खोलने में देर लगी तो वह अपनी दाहिनी कलाई पर लगेलगभग सूख चुके ज़ख्म की पपड़ी कुरेदने लगा पर ज़ख्म पूरी तरह सूखा नहीं था कलाई की त्वचा से चिपकी हुई अधपकी पपड़ी खुरचने की आपाधापी में, नाखून उसके ज़ख्म पर लग गया खून की दो बूँदें उभरीं और उसकी शर्ट के कफ पर चिपक गईं दर्द तो नहीं हुआ पर थोड़ा अफ़सोस ज़रूर हुआ
"एक दो दिन और रुक जाता तो सूख ही जाता"        
तब तक प्रज्ञा दरवाजा खोल चुकी थी
"देखो ये शर्ट पर खून के दाग लग गए हैं पता नहीं साफ़ होंगे कि नहीं" उसने घर में प्रवेश करते हुए प्रज्ञा से कहा
"अभी तक ठीक नहीं हुआकितने दिन हो गए इसको? और तुम्हारी दो शर्टें मैं पहले ही धोबी को दे चुकी हूँ, खून के दाग धोने के लिए इतनी आसानी से नहीं छूटते लाओ डेटोल लगा दूं"
"तुम नाहक़ परेशान मत हो मैं नहाने जा रहा हूँवहीं बाथरूम में लगा लूँगा...वैसे कौन सा डेटोल रखा है बाथरूम में? वह पुराना जलने वाला या फिर नया हरा वाला?"
"नया हरा वाला" प्रज्ञा ने उत्तर दिया
"वह पुराना जलने वाला होता तो ज्यादा अच्छा होता जब तक दवा तकलीफ नहीं देती, ज़ख्म को भरोसा ही नहीं होता कि वह उसे ठीक कर पायेगी"
सुयोग बाथरूम में घुसते हुए मुस्कुराकर बोला प्रत्युत्तर में प्रज्ञा भी उसके इस बेतुके अवलोकन पर मुस्कुरा दी अपने होमवर्क में उलझा हुआ आदित्य भी अपने कमरे से बाहर निकल आया। खाने का समय हो गया था और प्रज्ञा रसोई में वापस उलझ गई रसोई के पास रखी डाइनिंग चेयर पर बैठकर आदित्य टीवी देखने लगा
"फिर टीवी ऑन कर दिया तुमने?" माँ ने फटकारा
"बस न्यूज़ देखने दो" आदित्य ने आग्रह किया
आदित्य का हाई स्कूल था इस साल और माँ की चिंता उसकी पढ़ाई को लेकर थी।
प्रज्ञा ने मेज़ पर खाना लगा दिया। सुयोग भी नहा धोकर और कपड़े  बदलकर खाने की मेज़ पर आ गया आदित्य अभी भी अपने टीवी में मग्न था खाना लगाकर प्रज्ञा भी आकर कुर्सी पर बैठ गई
"ये पपड़ी की कहानी भी बहुत पुरानी हैप्रज्ञा बचपन में ऐसी कितनी चोटें लगती थीं...बस तीन दिन न कोई डेटोल न कोई पट्टी..."
प्रज्ञा और सुयोग के सम्बन्ध अच्छे थे उनकी करीब सोलह साल की शादी ने गृहस्थ जीवन के कई उतार-चढ़ाव देखे थे दाम्पत्य के कई पहलुओं में दोनों एक दूसरे के अच्छे संपूरक थे सुयोग कम बोलता था, तो प्रज्ञा बातूनी थी सुयोग बाहर और दफ्तर में कम बोलता था, पर घर में वह प्रज्ञा से कम नहीं था दरअसल,घर में ज्यादातर विषय वही छेड़ा करता था प्रज्ञा और कभी-कभी आदित्य को भी, उसकी  भाषण नुमा बातों का अनचाहे भी शिकार होना पड़ता था आज पपड़ी का विषय भी प्रज्ञा के लिए अनचाहा थापर उसे सुनने से ऐसा कोई गुरेज नहीं था
"आजकल बीड़ियाँ प्लास्टिक की थैली में आती हैं। पहले बीड़ियों के यही बण्डल कागज़ के बनते थे। गुलाबी रंग के कागज़, नीले रंग के कागज़ उसी कागज़ के बण्डल का टुकड़ा चोट पर चिपका लिया जाता था और तीन दिन...बस तीन दिन तीन दिन में चोट के आस पास पपड़ी बन जाती थी और फिर वह पपड़ी अपने आप सूख कर झड़ जाती थी
उसने बोलना ज़ारी रखा प्रज्ञा ने अपना ध्यान अपने काम पर लगा लिया, पर सुयोग का बोलना ज़ारी रहा
“...और कभी कभी, जब चोट थोड़ी गहरी होती तो कुछेक दिन और गहरी चोट में इंतज़ार करना पड़ता था पपड़ी इतनी जल्दी नहीं सूखती थी। उसे हटाने के कुतूहल में उसे रोज़ थोड़ा थोड़ा खुरचते थे अपने नाखूनों से।“
अब स्वयं सुयोग को भी आभास हो चला था कि उसकी बातें कोई नहीं सुन रहा है। फिर भी उसका बोलना ज़ारी रहा।
“...थोड़ा बीच का हिस्सा कभी-कभी हरा रह जाता था। और अगर उस हिस्से को ज्यादा खुरच दिया, तो घाव फिर से नया हो जाता था आजकल डेटोल लगाओ तब भी कुछ नहीं होता देखो कितने दिनों से हरा है ये घाव" सुयोग का एकांकी ज़ारी था
प्रज्ञा खाते खाते सुन रही थी आदित्य टीवी में मग्न था
"बचपन के ज़ख्म जल्दी भर जाते हैं क्योंकि त्वचा नयी होती है और कोशिकाओं को बनने में कम समय लगता है और जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है....कोशिकाओं का पुनर्निर्माण शिथिल हो जाता है" प्रज्ञा ने भी अपनी जीव विज्ञान की समझ का परिचय दिया
"बुढ़ापे के आगमन की सूचना देने के लिए, मेरी चोट का अच्छा उपयोग किया है तुमने" सुयोग ने मुस्कुराते हुए कहा
"अच्छा सुनो कल मैं दफ्तर से सीधे बरेली के लिए निकल जाऊँगा सदर में नए तहसीलदार आये हैं उन्हें कुछ समझना है सो मुझे बुलाया है" सुयोग ने प्रज्ञा को अगले दिन का कार्यक्रम समझा दिया
"और सोमवार को वापस?" प्रज्ञा ने पूछा
"देखता हूँ शायद एक दो दिन और रुकना पड़े" सुयोग ने जवाब दिया
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अक्तूबर माह के रविवार की सुबह थी। बरेली के एयरफ़ोर्स मैदान में बाबा रामदेव का शिविर लगा हुआ था करीब चार से पाँच हज़ार लोग उस मैदान में चटाई लेकर बैठे हुए थे सामने एक स्टेज पर बाबा रामदेव का आसन था उस आसन पर बैठे-बैठे वह अनेकों योग मुद्राएँ वहाँ उपस्थित जनता को सिखा रहे थेबीच-बीच में रुक कर वह उन आसनों के लाभ इत्यादि समझाते बड़े-बड़े लाउडस्पीकर उनकी आवाज को कोने-कोने में पहुँचाने में मदद कर रहे थे मौसम सुहाना ही था न ज्यादा गर्मी थी और न ज्यादा ठण्ड बरेली के उच्च और उच्च माध्यम वर्ग के प्रतिष्ठित लोग, बाबा रामदेव के शिविर का हिस्सा थे सुयोग को इस शिविर के समापन की प्रतीक्षा थी करीब आधे घंटे बाद शिविर समाप्त हुआ तो श्यामाचरण जी शिविर से निकल कर सुयोग से मुखातिब हुए
"आप ये सब भी करते हैं?" सुयोग ने पूछा
"बूढ़े शरीर को जिस गति भी राहत मिले, उसी गति चल पड़ता है और फिर योग करना तो अच्छी बात है"
"हाँ। पर ये बाबाजी ही मिले आपको योग सिखाने के लिए?"
"क्यों क्या बुराई है इनमें?"
"राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ...और सुना है इनकी दवाओं में जानवरों के अंश भी पाए गए थे"
"उनकी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं से हम जैसे लोगों को क्या लेना देना और फिर इसमें बुराई क्या हैरही जानवरों के अंश पाए जाने की बात तो शरीर का बुढ़ापा सिर्फ दर्द समझता है, और उसका निवारण इसके अलावा कुछ नहीं पर पता नहीं धर्म भ्रष्ट करके भी यदि मुझे गठिया के दर्द से राहत मिल जाए तो क्यों नहीं"
"शायद आप ठीक ही कहते हैं दर्द से राहत पाना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है" सुयोग ने श्यामाचरण जी का अनुमोदन किया
श्यामाचरण जी ने हाथ हिलाकर एक रिक्शे को इशारा किया। करीब 70 की उम्र के श्यामाचरण जी बरेली के एक प्राइमरी स्कूल में प्रधानाचार्य के पद से निवृत्त हुए थे सेवा निवृत्ति के बाद अपने गाँव चले गए पांच-छः साल वहीं गाँव में रहे, अपने बेटों के साथ और जब आखिरकार बेटों और बहुओं से नहीं बनी तो वापस बरेली आ गए। तब से यहीं प्राइमरी स्कूल के पीछे छोटे सी जगह में वृद्धाश्रम चलाते हैं पत्नि बहुत पहले बीमारी में चल बसी थीं। वृद्धाश्रम का प्रस्ताव स्वयं श्यामाचरण जी ने ही प्रशासन को दिया थाचार साल पहले तब सुयोग राणा यहीं सदर में तहसीलदार थे वृद्धाश्रम का प्रस्ताव सुयोग ने ही सामाजिक अधिकारिता विभाग से पारित कराया था प्रशासन ने अनुमति तो दे दी, पर भवन निर्माण के लिए पैसा नहीं जुटा पाया सो सुयोग ने ही शहर के तमाम धनाढ्य लोगों से थोड़ा-थोड़ा चंदा इकठ्ठा कर, दो मंजिला वृद्धाश्रम का निर्माण कराया श्यामाचरण जी वहीं रहते थे इमारत में छः कमरे थे नीचे के तीन कमरों में से एक में रसोई, एक मल्टीपर्पज हाल था जिसमें खेलने के लिए कैरम बोर्ड पड़ा हुआ था, और एक कमरा खुद श्यामाचरण जी का था इसके अलावा नीचे एक आँगन और थोड़ी सी खाली जगह भी थी ऊपर तीन बड़े कमरे थे, और हर कमरे में चार लोगों के रहने और सोने की सुविधा थी इमारत के सामने प्राइमरी स्कूल का खुला मैदान था स्कूल के समय इसका उपयोग स्कूल के बच्चे करते थे, और शाम को समय वृद्धाश्रम के वृद्ध
"नए तहसीलदार कैसे हैं? भटनागर जी" सुयोग ने रिक्शे पर चलते हुए पूछा
"अच्छे हैं आपके नाम का सहारा लेकर सहयोग मिल ही जाता है" श्यामाचरण जी ने कहा
"आपके आश्रम में वृद्धों की गिनती कहाँ तक पहुँची?"
"ग्यारह कल ही एक और सदस्य आए हैं मेरे परिचित हैं कई सालों पहले हमने कुछ दिन साथ काम किया था यहीं रामपुर के पास एक गाँव है, सरदारनगर वहीं के हैं"
"अध्यापक हैंया फिर प्रधानाचार्य?"
"नहीं...नहीं। न अध्यापक हैं और न प्रधानाचार्य किसी और सिलसिले में हमारा परिचय हुआ था" श्यामाचरण जी बोले
"वही पुरानी कहानी? जायदाद का बटवारा...?" सुयोग ने पूछा
"हाँ.... बस वही पुरानी कहानी" श्यामाचरण जी ने एक लम्बी आह भरी
"न जाने इन गांवों को क्या होता जा रहा है श्यामाचरण जी? शहर के लोग सोचते हैं कि गाँव के लोग कितने सीधे और सरल होते हैं यहाँ आकर देखो तो मालूम पड़े.... कि हमारे गाँवों की सच्ची तस्वीर क्या है....अपने ही माँ-बाप को बेटे अपने घर से बाहर कैसे निकाल सकते हैं?"
"निकलना या निकल जाने के लिए कहना... तो फिर भी ठीक है अब इनका किस्सा ही ले लो। जो कल आये हैं अनोखे लाल। चार बेटे हैं बटवारे में तय हुआ कि इनका खाना-पीना सबसे बड़े भाई के हिस्से में आएगा बड़े भाई ने तो भरपाई कर ली अपने हिस्से में थोड़ी सी जमीन बढ़ाकर पर बड़ी बहू को इससे क्या मतलब पति के कहने पर बहू ने भोजन तो दिया, पर बदले में उस भोजन की कीमत वसूली मजदूरी लेकर अब दिन भर अनोखेलाल खेतों में काम करते तब जाकर कहीं रात को बहू खाना परोसती और वह भी गालियों के अचार और चटनी के साथ। बूढ़ा शरीर आखिर कब तक साथ देता इनसे काम होता नहीं था और काम होता था तो बीमारी पकड़ लेती कभी ताप तो कभी साँस की दिक्कत एक दिन आया जब बहू के लाख धकियाने के बाद भी अनोखेलाल काम पर जाने के लिए उठ नहीं पाए बहू ने खूब खरी-खोटी सुनाई बस पलटकर जवाब क्या दे दिया, बहू ने उस दिन इन्हें खाना नहीं दिया भूखे पेट अनोखे लाल दूसरे बेटे के घर पहुँचे उस बेटे ने भी पहले तो बड़े भाई को जमकर सुनाई। फिर अनोखे लाल जी तीसरे और फिर चौथे बेटे के पास गए वह दोनों भाई भी कहाँ सुनने वाले थे। सो भाइयों में कलह हो गई। बीच में पिसे अनोखेलाल रोटी तो किसी ने नहीं दी बड़ा भाई अपना हक़ जताकर पिताजी को अपने घर ले आया। पर सोने को जगह न दी अनोखे लाल रात भर ठण्ड में बाहर सिकुड़ते रहे सुबह तबियत खराब हो गई, तो किसी ने अस्पताल तक नहीं भेजा अगले दिन से खाना तो मिलने लगा पर तबियत खराब होती रही आधे से ज्यादा शरीर लकवे से ग्रस्त है मुँह से बोल नहीं सकते चलने-फिरने के लिए व्हील चेयर का प्रयोग करना पड़ता है। एक हाथ थोड़ा बहुत उठता है, सो निवाला मुँह तक पहुँच जाता है कल ही अस्पताल लेकर गए। जाँच वगेरह कराई डॉक्टर ने कहा कि जितने भी दिन चल जाएँ.... बहुत समझो"    
रिक्शा वृद्धाश्रम के आगे पहुँच कर रुक गया
श्यामाचरण जी ने रिक्शे वाले को पैसे देकर विदा किया। इमारत के दरवाजे पर एक छोटा सा बोर्ड लटका था 'मित्र मंडली'वृद्धाश्रम का नाम था, जो संभवतः श्यामाचरण जी ने ही दिया था 
"कलियुग....यही तो कलियुग है" श्यामाचरण जी ने एक लम्बी साँस ली
"मुझे ये सोचकर ज्यादा डर लगता है...कि अगर ये कलियुग नहीं हैतो कलियुग कैसा होगाऔर उस युग के माँ-बाप के साथ क्या होगा?"
नाश्ते का समय हो चला था 'मित्र मंडली' के लगभग सभी सदस्य स्कूल के सामने बने प्रांगण में सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे लकड़ी का एक तखत भी वहीं पड़ा हुआ था, जिसपर लोकल अखबार बेतरतीब बिखरे पड़े थे रसोई में महाराज समोसे तल रहा था श्यामाचरण जी ने महाराज को पहले ही बता दिया था कि सुयोग राणा आने वाले हैं इसलिए उनकी पसंद के समोसे तले जा रहे थे 'मित्र मंडली' का पूरा खर्च दान-पुण्य से चलता था दानदाताओं की सूची में बरेली के समृद्ध व्यापारी और नौकरी पेशा वाले लोग शामिल थे इनमें से कुछ नियमित थे, तो कुछ कभी-कभार जब जितना मन हुआ, दे दिया करते थे बाद मेंकुछ सामाजिक संस्थान जैसे मंदिर इत्यादि भी इससे जुड़ गए खर्च चलाने के लिए अच्छी-खासी रकम जुट जाती थी ऊपर से वृद्धाश्रम में सदस्य भी कम ही थेश्यामाचरण जी बड़ी ही नेकनीयती से 'मित्र मंडलीका खर्च चलाते थे न कोई फिजूलखर्ची और न ही ज़बरदस्ती की कंजूसी जिसका जो खाने का मन हुआ महाराज से कहक़र बनवा लिया न हुआ तो बाहर से मँगवा लिया महाराज को भी अच्छी खासी तनख्वाह देकर रखा गया था
"आइये, सब लोग बाहर ही बैठे हैं यहीं बैठकर नाश्ता किया जाए या फिर अन्दर चलें?" श्यामाचरण जी ने सुयोग से पूछा
"मेरा ख़याल है सब लोगों के साथ बाहर ही बैठा जाए धूप अगर तेज़ हुई तो देखेंगे" सुयोग ने उत्तर दिया
"नमस्कार!" सुयोग ने सब से अभिवादन किया
"नमस्कार आइये"
"बाकी सब से तो आप पहले ही मिल चुके हैं इनसे आज पहली बार मुलाक़ात हो रही है ये हैं अनोखे लाल जी"
"नमस्ते" सुयोग ने अभिवादन में हाथ जोड़े जैसे कि उसे उम्मीद थी, अनोखेलाल जी एक व्हीलचेयर पर बैठे हुए थे अपनी 'नमस्ते' के प्रत्युत्तर में सुयोग ने उनके होठों पर थोड़ी सी हरकत देखी चेहरे पर कोई भाव न था आशीष देने के लिए अनोखेलाल ने अपना दाहिना हाथ उठाना चाहा, पर ठीक से उठा नहीं सकेहाथ की हरकत देखकर सुयोग आगे बढ़ा और उनका हाथ थाम लिया
"कोई बात नहीं सब ठीक हो जाएगा मुझे आशा है, एक दिन आप अपने पैरों पर चल सकेंगे" उसने कहा
"डॉक्टर भी यही कहता है अगर ठीक से तीमारदारी हो सकी तो एक दिन फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं अनोखे लाल" श्यामाचरण जी ने सुयोग का समर्थन किया
"क्यों नहीं होगी तीमारदारी? बिलकुल होगी और मुझे बस एक महीने के भीतर आपको अपने पैरों चलते हुए देखना है।" सुयोग ने उनके मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा अनोखे लाल की आँखों से आँसुओं की अविरल धार बहने लगी लाचार थेआँसू छुपा भी नहीं सकते थे हाथ काम न करते थे, और कमबख्त आँखें थीं, कि अभी भी पनियल होना भूली न थीं सुयोग ने देखा तो उनके चेहरे को अपनी कमर से चिपका लिया
"ये ख़ुशी के आंसू हैं" पास ही कुर्सी पर आसीन परशुराम जी ने माहौल को हल्का करने के प्रयास में कहा
"परशुराम जी, ये ख़ुशी के नहीं अचरज के आँसू हैं जिस दुनिया में अपनी ही संतान दुलत्ती मार कर घर से बाहर धकेल देती हैउसी दुनिया में कोई ऐसा भी है जो बेवजह ही गले लगा लेता है ये इस जीवन का सबसे बड़ा अचरज है" श्यामाचरण जी ने कहा
"सब करनी का गणित है जो किया है वह तो भरना ही पड़ेगा..." एक और वृद्ध हरप्रसाद भी बोलने के लिए प्रेरित हो उठे पर सुयोग ने बीच में ही उन्हें टोक दिया।
"इस दुनिया के परे कोई दुनिया नहीं है। जो है बस यहीं है स्वर्गनरक सब यहीं है..." सुयोग को मालूम था हरप्रसाद जी इसके आगे क्या कहने वाले हैं, सो उसने उनकी बात पूरी कर दी सुयोग के सामने हरप्रसाद जी यह जुमला कई बार दोहरा चुके थे
"पर एक बात मेरी समझ में नहीं आती" सुयोग ने प्रश्न उठाया
"कुछ ऐसे भी लोग होते होंगे जो करते तो होंगे, पर भरते नहीं होंगे या फिर ये एक ऑटोमेटिक प्रक्रिया है, जैसे बैंक का डेबिट और क्रेडिट चलता है उसी तरह? कभी तो ऐसा होता होगा कि आदमी ने पैसा जमा नहीं किया पर निकाल लिया, या फिर आदमी ने पैसा जमा किया पर निकाल नहीं सका गलती तो किसी से भी हो सकती है आखिर भगवान् भी तो इंसान है" सुयोग ने तर्क दिया
"सही कहते हो 'भगवान् भी तो इंसान है'। पर सच ये है कि इस जन्म की बही इसी जन्म में बंद हो तो अच्छा है बहुत अभागे होते होंगे ऐसे लोग जिनकी बही इसी जन्म में बंद नहीं होती" हरप्रसाद जी ने अपने ही तर्क को आगे बढाया
"आपके लिए ये कुछ बूँदी के लड्डू लाया हूँ मैं आपको बहुत पसंद हैं न?" सुयोग ने हरप्रसाद जी की तरफ एक बैग बढ़ाते हुए कहा
"मैंने तो यूँ ही कह दिया था। वैसे भी यहाँ सब कुछ मिल जाता है पर तुम्हें याद रहा, मेरे लिए यही बहुत है" हरप्रसाद जी ने आभार जताया
"मुझे चलना होगा भटनागर जी के साथ कुछ देर बैठना है अगली बार क्रिसमस की छुट्टी में आऊँगा। देर तक बैठेंगे और कहीं बाहर जाने का भी कार्यक्रम बनाते हैं" सुयोग ने विदा लेनी चाही।
"अच्छा नमस्ते"
"खुश रहो बेटा।" सबने आशीष दिया।
सुयोग ने विदा लेने से पहले एक बार और अनोखेलाल को देखा उनकी आँखों से आँसुओं की धार अब भी बह रही थी
**********
अगले दो महीनों में सुयोग चार बार वृद्धाश्रम गया वहाँ रह रहे वृद्धों के लिए वह, हर बार वह कुछ न कुछ ले जाता उनसे बात करना उसे अच्छा लगता थाकाम की व्यस्तता से समय निकाल कर वहाँ जाना उसे बहुत सुकून देता था जब वह बरेली में था, तब तो वह सप्ताह में दो बार भी आ जाया करता था लखनऊ पहुँच कर दूरी बढ़ गई थी, पर उनसे मिलने के उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी उसे स्वयं भी आश्चर्य होता था, कि वह इन अजनबी बूढ़ों के लिए इतनी सहृदयता कहाँ से जुटा लाया था श्यामाचरण जी ने एक बार पूछा भी था पर वह टाल गया। इस बार जब वह बरेली आया तो श्यामाचरण जी ने गौर किया कि सुयोग अनोखेलाल के लिए कुछ ज्यादा ही चिंतित रहने लगा है पर इसमें भी उन्हें कुछ अजीब सा नहीं लगा शायद, अनोखेलाल ही हैं जो वृद्ध होने के साथ-साथ बीमार भी हैं सुयोग ने उनकी तीमारदारी के लिए सब प्रबंध कर दिया था ऐसा लगता था कि अनोखेलाल को फिर से हृष्ट-पुष्ट देखना सुयोग ने  अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था इस बार भी जब श्यामचरण जी ने वही सवाल छेड़ा तो सुयोग ने टाला नहीं
"तुम्हारा घाव भर गया" उन्होंने सुयोग से पूछा
"कहाँ? थोड़ा भरता है कि नाखूनों में फिर से खुजली हो जाती है खैर, जल्द ही भरना चाहिए"
"कभी-कभी घाव भरने के बाद भी एक टीस रह जाती है"
"आप कुछ पूछना चाहते हैं?"
"जिस दौर में अपने बच्चे माँ बाप को सहन नहीं कर पाते...वह कौन सी टीस है जिसे भरने के लिए तुम इतना मन लगाते हो...न बताना चाहो तो कोई बात नहीं पर बता दोगे तो एक मन की हलचल ख़त्म हो जाएगी"
सुयोग अनोखे लाल की व्हील चेयर धकिया रहा था और श्यामाचरण जी उनके साथ साथ टहल रहे थे
"मन पर एक बोझ है बहुत पुराना है और बहुत भारी भी..." सुयोग ने बताना शुरू किया
"मेरी पहली पोस्टिंग थी, बांदा जिला में मेरे पास एक ड्राइवर काम करता थामुकुंद। फील्ड में ज्यादा जाना होता था सो वह ड्राइवर अक्सर मेरे साथ ही रहता था एक बार मुझे कहीं रात में जाना था, और वह ड्राइवर दिन भर गाड़ी चलाकर थकन से चूर था पर मुझे तो गाड़ी चलाना आता नहीं था सो मैंने मुकुंद को जगाया और गाड़ी निकालने के लिए कहा उसने कहा कि वह गाड़ी चलाने की अवस्था में नहीं है बहुत नींद में था वह उसके लाख कहने पर भी, मैंने उसे गाड़ी चलाने के लिए विवश किया चलाते समय नींद का एक झोंका आया और गाड़ी एक पेड़ से टकरा गई। मैं पीछे बैठा था सो कुछ खरोंचें ही आईं पर उसने वहीं दम तोड़ दिया करीब एक सप्ताह तक मैं सो नहीं सका मैं उसके माँ-बाप के पास गया कि मुझे क्षमा कर दें। मैंने प्रस्ताव रखा कि मैं उनकी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी उठाऊँगा, उम्र भर मुकुंद उनका इकलौता बेटा था उत्तर में उन्होंने क्या कहा, जानते हैं?"
श्यामाचरण जी उत्सुकता भरी नज़रों से सुयोग को देखते रहे
"उन्होंने कहा कि उन्हें मेरी सेवा की ज़रुरत ही नहीं है। अच्छी-खासी जमीन थी उनके पास मुकुंद को खेती करना पसंद नहीं था ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, तो नौकरी भी नहीं कर सकता था इसलिए ड्राइवरी करता था उनके पास सब कुछ था उन्हें मेरी मदद की ज़रुरत ही नहीं थी मुकुंद एक ऐसा बैंक अकाउंट है, जिससे मैंने बहुत बड़ी रकम निकाल ली है...बिना एक पाई जमा किये..."
सुयोग भावुक हो उठा
"यहाँ आकर कुछ सिक्के कमा लेता हूँ, उस अकाउंट में जमा करने के लिए शायद एक दिन हिसाब बराबर हो जाए"
"इस बैंक पर आपका विश्वास कहीं अंधा तो नहीं है?"
"गीता में लिखा है..." उसने समझाने का प्रयास किया
"दरअसल गीता में कुछ लिखा ही नहीं है बस एक बैंक का वर्णन है और मुझे उस बैंक में अगाध आस्था है कभी आजमा कर देखिये अपने अतीत पर नज़र डालिए और तब इसका आँकलन कीजिये आपका भी कोई न कोई अकाउंट ज़रूर होगा और अगर कुछ गड़बड़ है तो समय रहते ठीक कर लीजिये उसके दरबार में खड़े होने के लिए सबको तैयार होकर जाना पड़ेगा"
"आप सच कहते हैंशायद ईश्वर आपके अकाउंट को जल्दी ही दुरुस्त कर दे, ऐसी आशा है"
"देखिये, इस बार मैं क्या लाया हूँ  चावल की कड़क रोटियां और गन्ने के रस की खीर...."
"चावल की रोटियां...वाह"
अनोखे लाल व्हील चेयर पर गुमसुम बैठे थे उनकी आँखें नम थीं गन्ने के रस की खीर और चावल की रोटी का नाम सुनकर उनकी आँखों में आँसुओं की कुछ बूँदें और जुड़ गई थीं
"बचपन में मेरी ताई जी बड़े प्यार से खिलाती थीं हमारा एक बड़ा से घर था गाँव में दादी-दादा थे नहींऔर ताऊ जी मेरे पिताजी से काफी बड़े थे उम्र मेंदादी-दादा का प्यार भी हमें ताऊजी और ताईजी से ही मिला तब हमारे घर का बटवारा नहीं हुआ था आँगन के बीच में एक बड़ा सा पुआल रखा जाता थाठण्ड में तापने के लिए गन्ने पे सूखे पत्तों की पताई से सुलगता था पुआल और चूल्हे की तेज़ आँच से उतारकर ताईजी कुछ न कुछ खाने के लिए दे देती थीं चावल की रोटी और गन्ने के रस की खीर मुझे बहुत अच्छी लगती थी  स्वेटरटोपी, मफलर के वह दिन बटवारे के बाद अपने आप छिन गए घर के बीच जहाँ पुआल रखा जाता था,वहाँ अब चार फुट ऊँची दीवार खड़ी हो गई थी एक पुआल उधर और एक पुआल इधर ठण्ड का मौसम साल दर साल आता रहा, पर अब ठण्ड काटती थी... महसूस होती थी भाईयों को शायद कभी पता ही नहीं चला कि गर्माहट रिश्तों में थी, पुआल की आंच में नहीं...."
"आपकी बातें सुनकर अनोखे की भी आँखें भर आईं...देखो।" श्यामाचरण जी ने कहा
सुयोग ने अपनी जेब से रूमाल निकाला और अनोखेलाल की आँखों से बहती हुई धार समेट ली
"आप पुरबिया राणा हो न? और ये अनोखेलाल जी भी इत्तेफाक से राणा ही हैं, पर ये तराई के राणा हैं एक ही होते हैं क्या?" श्यामाचरण जी ने कुतूहलवश पूछा
"पता नहीं शायद एक ही होते हों"   
एक महीने की सेवा ने अपना असर दिखा दिया अनोखे लाल जी के पैरों में हरकत होने लगी थी वह अपना दाहिना हाथ खाने के लिए प्रयोग करने लगे थेपर आवाज उनकी जुबान में अब भी नहीं लौटी थी डॉक्टर ने कहा था कि यदि उनकी ऐसी ही सेवा होती रही, तो छः से आठ महीने में वह बोलने लगेंगे और करीब एक साल के भीतर वह पूरी तरह स्वस्थ हो जायेंगे 
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तीन रोज़ पहले ही कोई पूछ रहा था कि इस बार सावन कैसा रहेगा धान की फसल के लिए पानी होगा या नहीं और आज देखियेऐसा लगता है जैसे पिछले साल का सावन गया ही कहाँ था दूर-दूर तक आसमान में बदलियों का शासन था गहरी और कालीबवंडर की टोह लेती बदलियाँ पिछले दो दिन की बारिश ने ज़मीन को गले तक तर कर दिया था सामने की सड़क जो सतह से चार फुट ऊपर थी, बड़ी मुश्किल से अपनी उपस्थिति का एहसास करा पा रही थीआस पास का धरातल तो पूरी तरह जलमग्न था सड़क के उस पार, महाशय जी की आरामशीन भी पानी में तैर रही थी लकड़ी का बुरादा तैर कर इधर-उधर बिखर गया था पेड़ों के बड़े-बड़े तने, जो पहले पानी में उतराने लगे थे अब पसीजकर भारी हो गए थेवापस डूब गए महाशय जी के आराम करने के लिए डाली गई खटिया दो ही दिन में गल गई मशीन के पुर्जों में पानी भर चुका था और उस तालाब नुमा अहाते मेंछत को जलमग्न धरातल से जोड़ती हुई आरामशीन की आरी ही सीधी खड़ी रह गई थी। शाम की मैली उबासी में, आरी के दाँतों की परछाईं, महाशय जी की बसी बसाई दुनिया का क़त्ल करती नज़र आती थी
कितने परिश्रम से जुटाया था जीने का सामान? कुदरत के एक ही झटके ने सब कुछ तबाह कर दिया उनका वास्तविक नाम मंगल सिंह था पर आदर से लोग उन्हें महाशय जी, या फिर सिर्फ महाशय कहते थे । ये नाम उन्हें अपने पिता से मिला था उनके पिता का अच्छा खासा रौब था और उनके दादा का...पिता से भी अच्छा महाशय जी का परिवार थोड़ी दूरी  पर बसे एक गाँव में रहता था पुश्तैनी खेती-बाड़ी के अलावा और कोई व्यवसाय न था दसवीं पास थे, पर नौकरी नहीं मिल सकी थी और खेती बाड़ी में महाशय जी को कोई रुचि न थी वह अपना अलग व्यापार शुरू करना चाहते थे मेहनती थे ही। बड़े भाई के साथ बटवारे के बाद उनके हिस्से में थोड़ी सी जमीन, और आधा घर आया अपने हिस्से की ज़मीन में से आधी ज़मीन बेचकर आरामशीन लगाईं, और लकड़ी का व्यवसाय शुरू कियातराई के जंगलों में पेड़ों की कटाई का काम ज़ोरों पर था इमारती लकड़ी की बड़े बाज़ारों में अच्छी माँग थी इसलिए यही रोज़गार उन्हें सही लगा आरा मशीन को जमाये हुए दो साल भी नहीं हुए थे, कि बरसात ने सब कुछ उखाड़ फेंका एक सप्ताह गुजरा तो बारिश थोड़ी कम हुई मशीन के अहाते से पानी तो उतर गया था, पर अपने पीछे महाशय जी के लिए एक लम्बे संघर्ष की पूँछ छोड़ गया था
मशीन के सारे कलपुर्जे बेकार हो चुके थे अहाते में पड़ी लकड़ी जलाने के अलावा किसी काम की न रह गई थी मशीन को फिर से जमाने में अच्छा-खासा खर्च आएगा। और इस खर्च के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे? क्या बची हुई आधी जमीन जो उन्होंने अपने बुरे दिनों के लिए रख छोड़ी थी, को बेचने का समय आ गया था?और अगर अगले साल फिर बारिश हो गई तो? नहींबची हुई ज़मीन अभी नहीं बेच सकते कोई और इंतजाम सोचना होगा
बिजौरिया में उनके नाना की ज़मीन के बटवारे को लेकर कुछ विवाद चल रहा था दरअसल, उनके नाना के कोई बेटा नहीं था नाना की दोनों बेटियाँ उस संपत्ति में बराबर की हिस्सेदार थीं पर उनकी मौसी की ओर से एक वसीयत सामने आई, जिसके अनुसार उनकी पूरी संपत्ति उनकी मौसी के नाम होनी थी महाशय जी के पिताजी ने वसीयत पर आपत्ति दर्ज की, और ये स्थापित हो गया कि वास्तव में वसीयत नकली थी सालों केस चला था, और दोनों पक्षों का खूब पैसा खर्च हुआनकली वसीयत के मामले में कचहरी मौसा को अच्छी खासी सज़ा सुना सकती थी पर महाशय जी के बड़े भाई ने ले देकर मामला रफा दफा करा दिया, और बदले में पूरी ज़मीन अपनी माँ के नाम करा ली अब चूँकि ज़मीन महाशय जी की माँ के नाम हो चुकी थी, तो महाशय जी का भी उसमें बराबर का हिस्सा बनता था पर बड़े भाई ने एक फूटी कौड़ी देने से भी मना कर दिया और दें भी क्यों? पूरी लड़ाई लड़ी उनके भाई ने तो फिर हिस्से पर अधिकार भी उन्हीं का होना चाहिए महाशय जी अच्छी तरह जानते थे, कि उनका भाई उन्हें उनका हिस्सा सीधे तरीके से नहीं देगा उनका व्यवसाय ठप हो चुका था, बची हुई ज़मीन बेचने के नौबत थी सब कुछ ठीक होता तो शायद न भी हाथ फैलाते पर, कुदरत ने उनकी जो कमर तोड़ी तो वह जाकर अपने भाई के दरवाजे पर खड़े हो गए। उम्मीद के अनुसार भाई ने भी ठेंगा दिखा दिया, और बेइज्जत करके घर से निकाल दिया महाशय जी ने कानूनी कार्यवाही की धमकी दी। आख़िरकार, एक कचहरी से निकल कर ज़मीन दूसरी कचहरी में पहुँच गई 
उस दिन शाम और रात का फर्क पता ही नहीं चलता था शाम उतनी ही घनी थी, उतनी ही काली और उतनी ही डरावनी पिछले कुछ दिनों से हो रही भीषण बरसात ने अनपेक्षित किन्तु आवश्यक विराम लिया था बिजली के खम्भों के बारिश में गिर जाने की वजह से तीन चार दिन से बिजली नहीं आ रही थी कीट-पतंगे लालटेन की लौ के चारों ओर मंडरा  रहे थे दूर पोखर के पानी में उतराते मेंढक अपनी ‘टर्र-टर्र’ से सारे वातावरण को गुंजायमान कर रहे थे घर की दीवार पर चिपकी छिपकलियाँलालटेन की रोशनी देखकर उमड़ आये पतंगों पर अपनी पैनी शिकारी निगाह जमाये बैठी थीं पल भर के लिए पतंगे का ध्यान भटका, कि गप्प से छिपकली के हलक में उस रात महाशय जी के बड़े भाई अपने चारों बेटों को लेकर महाशय जी के घर आ धमके महाशय जी का पंद्रह साल का बेटा अपनी माँ के साथ कमरे में दुबक कर बैठा हुआ था कमरे में जलती लालटेन की मद्धिम रोशनी उसकी किताब में छपे काले अक्षरों का मर्म समझाने के लिए पर्याप्त नहीं थीपर माँ के डर से वह फिर भी किताब में मन लगाने का स्वांग कर रहा था उस लड़के का पूरा ध्यान उस छिपकली पर था, जो अभी-अभी चार पतंगों का शिकार करके अपने अगले शिकार पर घात लगाने की तैयारी में थी
 "चार से इसका पेट नहीं भरा होगा क्या? लालची छिपकली"
उसने सोचा पिता के कहने पर उसकी माँ ने पानी का जग और गिलास बाहर बैठक में पहुंचा दिए थे थोड़ी देर के बाद ही दोनों भाईयों के स्वर मुखर हो गए    
"अपनी अर्जी कचहरी से वापस लेलो उस ज़मीन पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं है" बड़े भाई ने कहा
"अम्मा और पिताजी की छोड़ी हुई हर चीज़ पर हम दोनों का बराबर का हक़ है" छोटे भाई ने भी अपना स्वर रौबीला बनाने का प्रयास किया
"न तो ये ज़मीन पिताजी ने छोड़ी है, और न ही ये हमारे बटवारे में शामिल थी ये बटवारे के बाद की ज़मीन है, और इसका बटवारा नहीं हो सकता और फिर मैंने, और मेरे बच्चों ने रुपया बहाया है इसके लिए पटवारी को, वकील को, जज को सबको हमने पैसा दिया है तो इस पर हक़ भी हमारा हुआ"
"जितना पैसा आपने खर्च किया है, उसका पूरा हिसाब-किताब करने के बाद ही हिस्सेदारी होगी आप निश्चिन्त रहें और आपको क्या लगता हैअगर आप न होते तो मैं यूँ ही हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता? चूँकि आप इसमें शुरू से शामिल थे, मैंने इसमें दखल देना उचित नहीं समझा मुझे मालूम होता कि ज़मीन मिलने के बाद आपकी नीयत खराब हो जाएगी तो हरगिज़ मैं आपके साथ होता" अपने बड़े भाई को उत्तेजित होते देख महाशय जी भी उत्तेजित हो गए
"नीयत तेरी खराब हो गई है मंगल पर मैं भी देखता हूँ तू कैसे अर्जी वापस नहीं लेता नंगे पैरों दौड़ धूप की है मैंने इस ज़मीन के लिए और अगर इसकी प्यास खून से ही बुझती है... तो ये भी सही तीन दिन का समय है तेरे पास अगर तूने अपना हक़ न छोड़ा तो देख लेना अंजाम तूने सोचा भी नहीं होगा"
"देखिये भाईसाबमुझे अमानत में खयानत करने का कोई शौक़ नहीं है मुझे जो मिला मेरे हिस्से में वही बहुत है पर मेरा जमाया हुआ पूरा काम चौपट हो गया मेरे पास कुछ भी नहीं बचा अपने छोटे भाई की मदद समझ कर ही ज़मीन का कुछ हिस्सा दे दीजिये"
बड़े भाई की धमकी भरे स्वर से महाशय जी की उत्तेजना ठंडी पड़ गई चार हट्टे-कट्टे भतीजों का महाशय जी के पास कोई उत्तर नहीं था उन्हें अच्छी तरह ज्ञान था, कि ज़मीन के लिए खून खराबा मिट्टी की नस में ही शामिल है कोई अचरज नहीं कि भाई भाई का ही लहू बहा दे
"अगर तू पहले मेरी चौखट पर आकर भीख मांगता... तो मैं पसीज भी जाता ये हथकंडे अपना कर तूने मुझसे जबरदस्ती की है इसका भुगतान तो तुझे करना ही होगा"
धमकी भरा स्वर और मुखर हो गया थोड़ी देर और कहा सुनी चलती रही। बड़े भाई के बेटे भी अपने चाचा को धमकियाँ देने लगे, कि अर्जी वापस ले लोभीतर अपनी माँ के पास बैठा सुयोग अब भी उस घात लगाए बैठी छिपकली को घूर रहा था  
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दफ्तर से लौटकर सुयोग खाना खाने बैठा ही था कि उसका फोन बज उठा श्यामाचरण जी का फोन था
फोन पर बात ख़त्म करके सुयोग वापस कुर्सी पर बैठा, तो प्रज्ञा उसकी थाली में खाना परोस चुकी थी सुयोग कुछ विचलित जान पड़ता था प्रज्ञा से रहा न गया
"किसका फोन था?"
"श्यामाचरण जी का"
"कल मुझे छुट्टी लेकर बरेली जाना होगा अनोखे लाल जी का देहांत हो गया"
सुयोग की आँखों में आंसू थे, कुछ वैसे ही लम्बी धार वाले आंसू जो अनोखेलाल की आँखों में वह देखा करता था
"मैं खाना नहीं खा सकूंगा। अभी मन नहीं है तुम रख दो"
प्रज्ञा उसे कुर्सी से उठकर भीतर कमरे में जाते हुए देखती रही कुछ न बोली सुयोग ने अनोखे लाल की सेवा में कोई कसर न छोड़ी थी यहाँ तक कि अपने खर्चे पर एक नर्स का भी इंतजाम कर दिया था जो रोज़ सुबह आकर अनोखेलाल की मालिश करती, और उन्हें फिजिओथेरपि भी कराती तन से वह स्वस्थ भी होने लगे थे अंगों में हरकत आने लगी थी चेहरे पर कांति भी दिखाई देती थी पर सुयोग जानता था कि वह ज्यादा दिन जी नहीं सकेंगे डॉक्टर ने कहा था कि गुर्दे खराब हो चुके हैं उनकी शराब पीने की लत की वजह से, वह लाख तीमारदारी के बावजूद ज्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं सुयोग उदास था कितनी जल्दी सब कुछ हो गया? अभी चार महीने पहले ही तो उनकी मुलाक़ात हुई थी पर जो होना था वह हो चुका था 
"कौन हैं ये अनोखे लाल?" सोते समय प्रज्ञा ने सुयोग से पूछा सुयोग के आँसू अब सूख चुके थे
"उस साल बरसात में पिताजी का जमा जमाया बिजनेस बंद हो गया बरसात सब कुछ बहा ले गई उसके बाद जीवन बहुत मुश्किल था माँ अनपढ़ थीकोई नौकरी करने का प्रश्न ही नहीं था मुझे याद है जब माँ ने आरामशीन की ज़मीन और बचे हुए कबाड़ को बेचने का फैसला किया, तो गाँव के लोग गिद्ध की तरह जमा हो गए थे जैसे मुफ्त में कब्ज़ा करने को आतुर बैठे हों बिजनेस के सिलसिले में जिनके पिताजी के साथ अच्छे सम्बन्ध थे वह भी...पिताजी का ताऊ जी के साथ ज़मीन को लेकर एक विवाद था पिताजी उसमें हिस्सा चाहते थे, और ताऊ जी देना नहीं चाहते थे पिताजी ने कचहरी में अर्जी डाल दी, कानूनी लड़ाई के लिए लड़ाई लड़ने के तो पैसे उनके पास थे भी नहींपर उन्हें लगा कि ताऊ जी डर कर कुछ समझौता कर लेंगे, और उनका बिजनेस फिर से खड़ा हो जाएगा मुझे पता नहीं कौन सही था और कौन गलत उस रात मैं अपनी परीक्षा की तैयारी कर रहा था बरसात बहुत हो चुकी थी और घर में बिजली भी नहीं थी तब ताऊ जी आये थे हमारे घर; अपने चारों बेटों के साथ काफी देर तक मैं पिताजी को ताऊ जी के साथ संघर्ष करते, घिघियाते सुनता रहा ताऊ जी को अपने चार बेटों का बहुत घमंड था कहीं भी कोई भी विवाद हुआ, वह उन बेटों को ले जाकर खड़ा कर देते थे उस रात मैं खुद को कितना निर्बल और असहाय महसूस कर रहा था डर के मारे मैं कमरे से बाहर ही नहीं निकल सका पिताजी की कोई मदद करने की तो बात ही दूर थी दीवार पर नज़रें गढ़ाएहाथ जोड़े मैं उस पतंगे के जान बचा कर उड़ जाने की प्रार्थना करता रहा छिपकली बहुत देर से घात लगाए बैठी थी पर मैं कुछ नहीं कर सका एक महीने बाद मैं स्कूल से गाँव वापस जा रहा था। मैंने देखा कि हमारी आरामशीन के पास बहुत भीड़ जमा है भीड़ को चीर कर मैं बहुत आगे पहुँच गया। ठीक वहाँ जहाँ पिताजी के शरीर के दोनों हिस्से अलग-अलग पड़े थे सर से लेकर पैरों तक उनको आरामशीन ने दो टुकड़ों में चीर दिया था खूनऔर बस खून था वहाँ पर"
"मेरे अलावा माँ का कोई सहारा नहीं था मेरे हाई स्कूल के लिए अपने गहने बेच करफिर इंटर के लिए ज़मीन का एक टुकड़ा बेचकर...बस कैसे गुज़र होती थी पता नहीं फिर कहीं किसी घर में चौका कर लिया, कहीं कपड़े  धो लिए...फिर मैंने भी पढ़ाई के साथ छोटा मोटा काम उठा लिया हम लोग बरेली आकर एक बंजारों की ज़िन्दगी बिताने लगे मैंने लोगों के घर अखबार बाँट कर अपनी पढ़ाई का खर्च भी उठाया है पर कुछ फायदा नहीं हुआ परिश्रम के पेड़ पर जब मीठे फल आने लगे तो उन्हें चखने के लिए माँ रही ही नहीं"
"पिताजी कहते थे कि उनके परदादा ज़मींदार थे बहुत ज़मीन थी उनकी फिर धीरे-धीरे बटवारे होते चले गए ज़मीन कटती गई पहले-पहल आदमी के लिए ज़मीन कटीपर जब रकबे सुई बराबर टुकड़ों में सिमटते गए, तो ज़मीन के लिए आदमी कटने लगा आखिर उतनी ही सीमित ज़मीन को कितने टुकड़ों में बाँट सकता था कोई? और कैसी विडम्बना हैज़मीन के लिए खून अपना ही बहाना पड़ता हैहक़ जताने के लिए किसी और का बहाया तो कोई हक़ नहीं बनता...." वह सिसकने लगा था।     
प्रज्ञा ये नहीं जानती थी वह स्तब्ध थी एक साधारण सी जान पड़ने वाली ज़िन्दगी के पीछे इतना बड़ा हादसा छुपा हुआ था उसने सुयोग को अपने आगोश में भर लिया पर सुयोग की आँखें अब भी सूखी थीं
"पुलिस आई तो ताऊ जी ने उन्हें भी पैसे खिला दिए, और केस दब गया ये अनोखे लाल मेरे वही ताऊ जी हैं, जिन्होंने पिताजी की इतनी निर्मम हत्या की और पुलिस कुछ नहीं कर पायी उन्हें न्याय नहीं मिला"
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"श्यामाचरण जी क्रिया कर्म की तैयारी कीजिये उनके बेटों में से कोई नहीं आने वाला" सुयोग ने कहा
"मुझे भी ऐसा ही लगता है पर मुखाग्नि कौन देगा?"
"मैं दूंगा मेरे ताऊ जी थे वह सगे ताऊ जी।"
श्यामाचरण जी के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई
"मंगल सिंह राणामेरे पिताजी थे" उसने कहा
श्यामाचरण जी को काटो तो खून नहीं पूरा शरीर सुन्न हो गया था, जैसे लकवा मार गया हो
"इसलिए मैं उन्हें मुखाग्नि दूंगा"
अनोखे लाल को मुखाग्नि देने की बात श्यामाचरण जी के दिमाग से पूरी तरह निकल चुकी थी ये तो कोई और ही बवंडर था, जिसने श्यामाचरण जी को शून्य कर दिया था
"आपने कभी बताया नहीं," इतना ही निकला उनके मुँह से।
"और अनोखे ने भी कभी कुछ नहीं बताया"
"वह कैसे बतातेवह तो बोल ही नहीं सकते थे और पढ़े लिखे थे नहींकि लिख कर बताते"
"ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे" हवाईयाँ अब भी उनके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रही थीं एक कातिल के रंगे हाथों पकडे जाने पर जो भाव आते हैं,श्यामाचरण जी के चेहरे के भाव उससे भी भयावह थे जैसे कुछ और छुपा था इस सच के पीछेज्यादा भयावह और ज्यादा कटु
"कैसे मिलेगी शान्ति? उनके अकाउंट में तो पूरा का पूरा ऋण बैलेंस था और हमेशा से था"
श्यामाचरण जी का डर सच बनकर उनके सामने आने ही वाला था किसी भी क्षण। वह चुपचाप सुयोग को बोलते हुए सुन रहे थे
"ज़िन्दगी भर निकाला ही। जमा कुछ भी नहीं किया कैसे मुक्ति मिलेगी? मैं कोई पुरबिया राणा नहीं। मैं भी यहीं सरदारनगर का ही रहने वाला हूँ सरदार नगर के पास जो क़स्बा है मिलकवहीं मेरे पिताजी की आरामशीन थी आप उन दिनों सरदारनगर के प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे....जब मैं यहाँ तहसीलदार था,मिलक के दरोगा से मेरी अच्छी जान पहचान हो गई थी पुलिस की इन्वेस्टिगेशन की पूरी फ़ाइल उन्होंने मेरे हवाले कर दी थी किस को कितना पैसा दिया गया, और उस कुकर्म में किस किस के खिलाफ पुख्ता सबूत थे मुझे तीन साल पहले ही पूरी जानकारी मिल गई थी अनोखे लाल को तो फिर भी एक मौका दे सकता है ईश्वर। शायद उनके लालच को समझ सके पर आप किस मुँह से उसका सामना करोगे? चंद रुपयों के लिए एक शिक्षक होकर आपने मेरे ताऊ जी का साथ दियामेरे पिता के क़त्ल में आरी के बीचोबीच सर रखकर....सिर्फ कुछ रुपयों के लिए जी तो चाहता था कि आपकी पूरी नस्ल को जड़ से मिटा दूँ। और मैं कर सकता था पर फिर मुझे माँ का संघर्ष याद आता थाजिसने मेरा जीवन सँवारने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया उसके दिए हुए जीवन को मैं यूँ....तुम्हारे खून से नहीं रंग सकता था..." उसका स्वर कठोर हो चला था होठ भिंच गए थे फिर उसने स्वयं को सँभालते हुए अपने आँसू पोंछ डाले श्यामाचरण के होठ सूख गए थे वह अब भी खामोश खड़े सुयोग को सुन रहे थे
"चलिए, हमें प्रस्थान करना चाहिए" सुयोग ने कहा
"आपने उनकी इतनी सेवा की?"
"बेटों के जुल्म का शिकार होकर, अगर वह यूँ ही मर जाते तो उनका बैलेंस जीरो हो जाता जो किया वही भुगता उन्हें मुक्ति मिल जाती। उनकी आँखों से बहने वाले आँसू मेरे लिए नहीं थे वह जानते थे कि मैं कौन हूँ, और उनकी सेवा क्यों कर रहा हूँ वह आँसू उनकी अपनी मुक्ति के लिए थे, जिससे मैंने उन्हें महरूम कर दिया था"
"न मेरे ताऊ जी को मुक्ति मिलेगी और न ही आपको"
दाहिनी कलाई पर उसका बाएँ हाथ का नाख़ून उसके पुराने ज़ख्म की पपड़ी से संघर्ष कर रहा था
"अब जाकर सूखा ये ज़ख्म" सुयोग ने अपनी नंगी कलाई श्यामाचरण जी को दिखाते हुए।
आपूर्ति भवन के सामने वाले बस अड्डे पर, वह रोजाना की तरह अपनी बस का इंतज़ार कर रहा था वह सुयोग राणा था राज्य सरकार के आपूर्ति विभाग में एक अधिकारी हाथ में एक छोटा सा पर्स नुमा बैग था शायद किसी परिचित दुकानदार ने दिया था थोक व्यापारियों को अक्सर ऐसे बैग, गुटखा और खैनी बनाने वाली कम्पनियाँ उपहारस्वरूप दे देती हैं और ये व्यापारी फिर इन्हें अपने परिचितों को हस्तांतरित कर देते हैं शक्ल सूरत कोई खास नहीं थी पर कद काठी लुभावनी थी उसका सादा पहनावाउसके पौने छः फुट के आस पास के कद, और चौड़े सीने पर बिलकुल भी नहीं फबता था क्रीम रंग की शर्ट उसके गहरे हरे रंग की पतलून के ऊपर बाहर से ही लटक रही थी आम तौर पर लोग, और विशेषतः अधिकारी लोग, शर्ट को पतलून के अन्दर ठूँस कर पहनते हैं खैर, राजधानी में राज्य सरकारों के मुख्य भवनों पर बैठने वाले अधिकारी तो, यूँ सुयोग राणा की तरह सिटी बस में भी सफ़र नहीं करते ऐसे कई मामलों में वह अन्य अधिकारियों से एकदम अलग था और पैरों में सफ़ेद भक्क स्पोर्ट्स शूज दूर से देखने पर भी उसके पहनावे का विन्यास एकदम अलहदा और विचित्र लगता था चेहरा थोड़ा अजीब सा था, लम्बा कहलाने की ज़द्दोज़हद में कुछ खिंचा हुआ सा। पर ज्यादातरचेहरे की आकृति की तुलना एक समद्विबाहु त्रिकोण से की जा सकती हैजिसकी छोटी भुजा पर उसकी दोनों आँखें थीं, और दो लम्बी भुजाएँ उन आँखों के सिरों को उसकी नुकीले ठोड़ी से जोड़ती थीं रंग न साफ़ था न गहरा। गेहुआं कहें तो साफ़ की तरफ हो जाता, और साँवला कहें तो काले की तरफ बस इस गेहुएँ और साँवले के बीच का मिश्रण था सर के बाल घने और व्यवस्थित थे सुबह चुपड़े गए तेल की बासी चिकनाई अब भी उस के बालों में चमक रही थी जितना संभव था, पूरा चेहरा बारीक दाढ़ी से भरा हुआ था ऐसा लगता था, जैसे उसने अपने जीवन में कभी भी अपने गालों पर रेज़र का प्रयोग किया ही नहीं था ठोड़ी के निचले हिस्से की दाढ़ी में सफेदी अपना घना डेरा डाल चुकी थी सफेदी की नई खेप उसके कानों के ऊपर के बालों पर भी उगनी शुरू हो गई थी पिछली होली में ही वह चालीस का हुआ था 
"विनय खंड" बस कंडक्टर से टिकट लेने के लिए उसने अपना स्टॉप बताया
और फिर करीब एक घंटे का सफ़र उसने उस भीड़ भरी बस में खड़े खड़े ही तय किया
"प्रज्ञा"
अपने घर की घंटी बजाते हुए उसने पत्नि को आवाज दी करीब सौ वर्ग गज के प्लाट पर ये उसका अपना मकान था बाकी और घरों की तरह, आगे कुछ पपीते के पेड़ लगे हुए थे, और दरवाजे के ठीक सामने एक गैलरी थी थोड़ी सी जगह कार की गैराज की तरह उपयोग करने के लिए भी रख छोड़ी थी पर चूँकि कार नहीं थी, तो घर के सामने का पूरा हिस्सा खुला-खुला नज़र आता था प्रज्ञा को दरवाजा खोलने में देर लगी तो वह अपनी दाहिनी कलाई पर लगेलगभग सूख चुके ज़ख्म की पपड़ी कुरेदने लगा पर ज़ख्म पूरी तरह सूखा नहीं था कलाई की त्वचा से चिपकी हुई अधपकी पपड़ी खुरचने की आपाधापी में, नाखून उसके ज़ख्म पर लग गया खून की दो बूँदें उभरीं और उसकी शर्ट के कफ पर चिपक गईं दर्द तो नहीं हुआ पर थोड़ा अफ़सोस ज़रूर हुआ
"एक दो दिन और रुक जाता तो सूख ही जाता"        
तब तक प्रज्ञा दरवाजा खोल चुकी थी
"देखो ये शर्ट पर खून के दाग लग गए हैं पता नहीं साफ़ होंगे कि नहीं" उसने घर में प्रवेश करते हुए प्रज्ञा से कहा
"अभी तक ठीक नहीं हुआकितने दिन हो गए इसको? और तुम्हारी दो शर्टें मैं पहले ही धोबी को दे चुकी हूँ, खून के दाग धोने के लिए इतनी आसानी से नहीं छूटते लाओ डेटोल लगा दूं"
"तुम नाहक़ परेशान मत हो मैं नहाने जा रहा हूँवहीं बाथरूम में लगा लूँगा...वैसे कौन सा डेटोल रखा है बाथरूम में? वह पुराना जलने वाला या फिर नया हरा वाला?"
"नया हरा वाला" प्रज्ञा ने उत्तर दिया
"वह पुराना जलने वाला होता तो ज्यादा अच्छा होता जब तक दवा तकलीफ नहीं देती, ज़ख्म को भरोसा ही नहीं होता कि वह उसे ठीक कर पायेगी"
सुयोग बाथरूम में घुसते हुए मुस्कुराकर बोला प्रत्युत्तर में प्रज्ञा भी उसके इस बेतुके अवलोकन पर मुस्कुरा दी अपने होमवर्क में उलझा हुआ आदित्य भी अपने कमरे से बाहर निकल आया। खाने का समय हो गया था और प्रज्ञा रसोई में वापस उलझ गई रसोई के पास रखी डाइनिंग चेयर पर बैठकर आदित्य टीवी देखने लगा
"फिर टीवी ऑन कर दिया तुमने?" माँ ने फटकारा
"बस न्यूज़ देखने दो" आदित्य ने आग्रह किया
आदित्य का हाई स्कूल था इस साल और माँ की चिंता उसकी पढ़ाई को लेकर थी।
प्रज्ञा ने मेज़ पर खाना लगा दिया। सुयोग भी नहा धोकर और कपड़े  बदलकर खाने की मेज़ पर आ गया आदित्य अभी भी अपने टीवी में मग्न था खाना लगाकर प्रज्ञा भी आकर कुर्सी पर बैठ गई
"ये पपड़ी की कहानी भी बहुत पुरानी हैप्रज्ञा बचपन में ऐसी कितनी चोटें लगती थीं...बस तीन दिन न कोई डेटोल न कोई पट्टी..."
प्रज्ञा और सुयोग के सम्बन्ध अच्छे थे उनकी करीब सोलह साल की शादी ने गृहस्थ जीवन के कई उतार-चढ़ाव देखे थे दाम्पत्य के कई पहलुओं में दोनों एक दूसरे के अच्छे संपूरक थे सुयोग कम बोलता था, तो प्रज्ञा बातूनी थी सुयोग बाहर और दफ्तर में कम बोलता था, पर घर में वह प्रज्ञा से कम नहीं था दरअसल,घर में ज्यादातर विषय वही छेड़ा करता था प्रज्ञा और कभी-कभी आदित्य को भी, उसकी  भाषण नुमा बातों का अनचाहे भी शिकार होना पड़ता था आज पपड़ी का विषय भी प्रज्ञा के लिए अनचाहा थापर उसे सुनने से ऐसा कोई गुरेज नहीं था
"आजकल बीड़ियाँ प्लास्टिक की थैली में आती हैं। पहले बीड़ियों के यही बण्डल कागज़ के बनते थे। गुलाबी रंग के कागज़, नीले रंग के कागज़ उसी कागज़ के बण्डल का टुकड़ा चोट पर चिपका लिया जाता था और तीन दिन...बस तीन दिन तीन दिन में चोट के आस पास पपड़ी बन जाती थी और फिर वह पपड़ी अपने आप सूख कर झड़ जाती थी
उसने बोलना ज़ारी रखा प्रज्ञा ने अपना ध्यान अपने काम पर लगा लिया, पर सुयोग का बोलना ज़ारी रहा
“...और कभी कभी, जब चोट थोड़ी गहरी होती तो कुछेक दिन और गहरी चोट में इंतज़ार करना पड़ता था पपड़ी इतनी जल्दी नहीं सूखती थी। उसे हटाने के कुतूहल में उसे रोज़ थोड़ा थोड़ा खुरचते थे अपने नाखूनों से।“
अब स्वयं सुयोग को भी आभास हो चला था कि उसकी बातें कोई नहीं सुन रहा है। फिर भी उसका बोलना ज़ारी रहा।
“...थोड़ा बीच का हिस्सा कभी-कभी हरा रह जाता था। और अगर उस हिस्से को ज्यादा खुरच दिया, तो घाव फिर से नया हो जाता था आजकल डेटोल लगाओ तब भी कुछ नहीं होता देखो कितने दिनों से हरा है ये घाव" सुयोग का एकांकी ज़ारी था
प्रज्ञा खाते खाते सुन रही थी आदित्य टीवी में मग्न था
"बचपन के ज़ख्म जल्दी भर जाते हैं क्योंकि त्वचा नयी होती है और कोशिकाओं को बनने में कम समय लगता है और जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है....कोशिकाओं का पुनर्निर्माण शिथिल हो जाता है" प्रज्ञा ने भी अपनी जीव विज्ञान की समझ का परिचय दिया
"बुढ़ापे के आगमन की सूचना देने के लिए, मेरी चोट का अच्छा उपयोग किया है तुमने" सुयोग ने मुस्कुराते हुए कहा
"अच्छा सुनो कल मैं दफ्तर से सीधे बरेली के लिए निकल जाऊँगा सदर में नए तहसीलदार आये हैं उन्हें कुछ समझना है सो मुझे बुलाया है" सुयोग ने प्रज्ञा को अगले दिन का कार्यक्रम समझा दिया
"और सोमवार को वापस?" प्रज्ञा ने पूछा
"देखता हूँ शायद एक दो दिन और रुकना पड़े" सुयोग ने जवाब दिया
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अक्तूबर माह के रविवार की सुबह थी। बरेली के एयरफ़ोर्स मैदान में बाबा रामदेव का शिविर लगा हुआ था करीब चार से पाँच हज़ार लोग उस मैदान में चटाई लेकर बैठे हुए थे सामने एक स्टेज पर बाबा रामदेव का आसन था उस आसन पर बैठे-बैठे वह अनेकों योग मुद्राएँ वहाँ उपस्थित जनता को सिखा रहे थेबीच-बीच में रुक कर वह उन आसनों के लाभ इत्यादि समझाते बड़े-बड़े लाउडस्पीकर उनकी आवाज को कोने-कोने में पहुँचाने में मदद कर रहे थे मौसम सुहाना ही था न ज्यादा गर्मी थी और न ज्यादा ठण्ड बरेली के उच्च और उच्च माध्यम वर्ग के प्रतिष्ठित लोग, बाबा रामदेव के शिविर का हिस्सा थे सुयोग को इस शिविर के समापन की प्रतीक्षा थी करीब आधे घंटे बाद शिविर समाप्त हुआ तो श्यामाचरण जी शिविर से निकल कर सुयोग से मुखातिब हुए
"आप ये सब भी करते हैं?" सुयोग ने पूछा
"बूढ़े शरीर को जिस गति भी राहत मिले, उसी गति चल पड़ता है और फिर योग करना तो अच्छी बात है"
"हाँ। पर ये बाबाजी ही मिले आपको योग सिखाने के लिए?"
"क्यों क्या बुराई है इनमें?"
"राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ...और सुना है इनकी दवाओं में जानवरों के अंश भी पाए गए थे"
"उनकी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं से हम जैसे लोगों को क्या लेना देना और फिर इसमें बुराई क्या हैरही जानवरों के अंश पाए जाने की बात तो शरीर का बुढ़ापा सिर्फ दर्द समझता है, और उसका निवारण इसके अलावा कुछ नहीं पर पता नहीं धर्म भ्रष्ट करके भी यदि मुझे गठिया के दर्द से राहत मिल जाए तो क्यों नहीं"
"शायद आप ठीक ही कहते हैं दर्द से राहत पाना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है" सुयोग ने श्यामाचरण जी का अनुमोदन किया
श्यामाचरण जी ने हाथ हिलाकर एक रिक्शे को इशारा किया। करीब 70 की उम्र के श्यामाचरण जी बरेली के एक प्राइमरी स्कूल में प्रधानाचार्य के पद से निवृत्त हुए थे सेवा निवृत्ति के बाद अपने गाँव चले गए पांच-छः साल वहीं गाँव में रहे, अपने बेटों के साथ और जब आखिरकार बेटों और बहुओं से नहीं बनी तो वापस बरेली आ गए। तब से यहीं प्राइमरी स्कूल के पीछे छोटे सी जगह में वृद्धाश्रम चलाते हैं पत्नि बहुत पहले बीमारी में चल बसी थीं। वृद्धाश्रम का प्रस्ताव स्वयं श्यामाचरण जी ने ही प्रशासन को दिया थाचार साल पहले तब सुयोग राणा यहीं सदर में तहसीलदार थे वृद्धाश्रम का प्रस्ताव सुयोग ने ही सामाजिक अधिकारिता विभाग से पारित कराया था प्रशासन ने अनुमति तो दे दी, पर भवन निर्माण के लिए पैसा नहीं जुटा पाया सो सुयोग ने ही शहर के तमाम धनाढ्य लोगों से थोड़ा-थोड़ा चंदा इकठ्ठा कर, दो मंजिला वृद्धाश्रम का निर्माण कराया श्यामाचरण जी वहीं रहते थे इमारत में छः कमरे थे नीचे के तीन कमरों में से एक में रसोई, एक मल्टीपर्पज हाल था जिसमें खेलने के लिए कैरम बोर्ड पड़ा हुआ था, और एक कमरा खुद श्यामाचरण जी का था इसके अलावा नीचे एक आँगन और थोड़ी सी खाली जगह भी थी ऊपर तीन बड़े कमरे थे, और हर कमरे में चार लोगों के रहने और सोने की सुविधा थी इमारत के सामने प्राइमरी स्कूल का खुला मैदान था स्कूल के समय इसका उपयोग स्कूल के बच्चे करते थे, और शाम को समय वृद्धाश्रम के वृद्ध
"नए तहसीलदार कैसे हैं? भटनागर जी" सुयोग ने रिक्शे पर चलते हुए पूछा
"अच्छे हैं आपके नाम का सहारा लेकर सहयोग मिल ही जाता है" श्यामाचरण जी ने कहा
"आपके आश्रम में वृद्धों की गिनती कहाँ तक पहुँची?"
"ग्यारह कल ही एक और सदस्य आए हैं मेरे परिचित हैं कई सालों पहले हमने कुछ दिन साथ काम किया था यहीं रामपुर के पास एक गाँव है, सरदारनगर वहीं के हैं"
"अध्यापक हैंया फिर प्रधानाचार्य?"
"नहीं...नहीं। न अध्यापक हैं और न प्रधानाचार्य किसी और सिलसिले में हमारा परिचय हुआ था" श्यामाचरण जी बोले
"वही पुरानी कहानी? जायदाद का बटवारा...?" सुयोग ने पूछा
"हाँ.... बस वही पुरानी कहानी" श्यामाचरण जी ने एक लम्बी आह भरी
"न जाने इन गांवों को क्या होता जा रहा है श्यामाचरण जी? शहर के लोग सोचते हैं कि गाँव के लोग कितने सीधे और सरल होते हैं यहाँ आकर देखो तो मालूम पड़े.... कि हमारे गाँवों की सच्ची तस्वीर क्या है....अपने ही माँ-बाप को बेटे अपने घर से बाहर कैसे निकाल सकते हैं?"
"निकलना या निकल जाने के लिए कहना... तो फिर भी ठीक है अब इनका किस्सा ही ले लो। जो कल आये हैं अनोखे लाल। चार बेटे हैं बटवारे में तय हुआ कि इनका खाना-पीना सबसे बड़े भाई के हिस्से में आएगा बड़े भाई ने तो भरपाई कर ली अपने हिस्से में थोड़ी सी जमीन बढ़ाकर पर बड़ी बहू को इससे क्या मतलब पति के कहने पर बहू ने भोजन तो दिया, पर बदले में उस भोजन की कीमत वसूली मजदूरी लेकर अब दिन भर अनोखेलाल खेतों में काम करते तब जाकर कहीं रात को बहू खाना परोसती और वह भी गालियों के अचार और चटनी के साथ। बूढ़ा शरीर आखिर कब तक साथ देता इनसे काम होता नहीं था और काम होता था तो बीमारी पकड़ लेती कभी ताप तो कभी साँस की दिक्कत एक दिन आया जब बहू के लाख धकियाने के बाद भी अनोखेलाल काम पर जाने के लिए उठ नहीं पाए बहू ने खूब खरी-खोटी सुनाई बस पलटकर जवाब क्या दे दिया, बहू ने उस दिन इन्हें खाना नहीं दिया भूखे पेट अनोखे लाल दूसरे बेटे के घर पहुँचे उस बेटे ने भी पहले तो बड़े भाई को जमकर सुनाई। फिर अनोखे लाल जी तीसरे और फिर चौथे बेटे के पास गए वह दोनों भाई भी कहाँ सुनने वाले थे। सो भाइयों में कलह हो गई। बीच में पिसे अनोखेलाल रोटी तो किसी ने नहीं दी बड़ा भाई अपना हक़ जताकर पिताजी को अपने घर ले आया। पर सोने को जगह न दी अनोखे लाल रात भर ठण्ड में बाहर सिकुड़ते रहे सुबह तबियत खराब हो गई, तो किसी ने अस्पताल तक नहीं भेजा अगले दिन से खाना तो मिलने लगा पर तबियत खराब होती रही आधे से ज्यादा शरीर लकवे से ग्रस्त है मुँह से बोल नहीं सकते चलने-फिरने के लिए व्हील चेयर का प्रयोग करना पड़ता है। एक हाथ थोड़ा बहुत उठता है, सो निवाला मुँह तक पहुँच जाता है कल ही अस्पताल लेकर गए। जाँच वगेरह कराई डॉक्टर ने कहा कि जितने भी दिन चल जाएँ.... बहुत समझो"    
रिक्शा वृद्धाश्रम के आगे पहुँच कर रुक गया
श्यामाचरण जी ने रिक्शे वाले को पैसे देकर विदा किया। इमारत के दरवाजे पर एक छोटा सा बोर्ड लटका था 'मित्र मंडली'वृद्धाश्रम का नाम था, जो संभवतः श्यामाचरण जी ने ही दिया था 
"कलियुग....यही तो कलियुग है" श्यामाचरण जी ने एक लम्बी साँस ली
"मुझे ये सोचकर ज्यादा डर लगता है...कि अगर ये कलियुग नहीं हैतो कलियुग कैसा होगाऔर उस युग के माँ-बाप के साथ क्या होगा?"
नाश्ते का समय हो चला था 'मित्र मंडली' के लगभग सभी सदस्य स्कूल के सामने बने प्रांगण में सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे लकड़ी का एक तखत भी वहीं पड़ा हुआ था, जिसपर लोकल अखबार बेतरतीब बिखरे पड़े थे रसोई में महाराज समोसे तल रहा था श्यामाचरण जी ने महाराज को पहले ही बता दिया था कि सुयोग राणा आने वाले हैं इसलिए उनकी पसंद के समोसे तले जा रहे थे 'मित्र मंडली' का पूरा खर्च दान-पुण्य से चलता था दानदाताओं की सूची में बरेली के समृद्ध व्यापारी और नौकरी पेशा वाले लोग शामिल थे इनमें से कुछ नियमित थे, तो कुछ कभी-कभार जब जितना मन हुआ, दे दिया करते थे बाद मेंकुछ सामाजिक संस्थान जैसे मंदिर इत्यादि भी इससे जुड़ गए खर्च चलाने के लिए अच्छी-खासी रकम जुट जाती थी ऊपर से वृद्धाश्रम में सदस्य भी कम ही थेश्यामाचरण जी बड़ी ही नेकनीयती से 'मित्र मंडलीका खर्च चलाते थे न कोई फिजूलखर्ची और न ही ज़बरदस्ती की कंजूसी जिसका जो खाने का मन हुआ महाराज से कहक़र बनवा लिया न हुआ तो बाहर से मँगवा लिया महाराज को भी अच्छी खासी तनख्वाह देकर रखा गया था
"आइये, सब लोग बाहर ही बैठे हैं यहीं बैठकर नाश्ता किया जाए या फिर अन्दर चलें?" श्यामाचरण जी ने सुयोग से पूछा
"मेरा ख़याल है सब लोगों के साथ बाहर ही बैठा जाए धूप अगर तेज़ हुई तो देखेंगे" सुयोग ने उत्तर दिया
"नमस्कार!" सुयोग ने सब से अभिवादन किया
"नमस्कार आइये"
"बाकी सब से तो आप पहले ही मिल चुके हैं इनसे आज पहली बार मुलाक़ात हो रही है ये हैं अनोखे लाल जी"
"नमस्ते" सुयोग ने अभिवादन में हाथ जोड़े जैसे कि उसे उम्मीद थी, अनोखेलाल जी एक व्हीलचेयर पर बैठे हुए थे अपनी 'नमस्ते' के प्रत्युत्तर में सुयोग ने उनके होठों पर थोड़ी सी हरकत देखी चेहरे पर कोई भाव न था आशीष देने के लिए अनोखेलाल ने अपना दाहिना हाथ उठाना चाहा, पर ठीक से उठा नहीं सकेहाथ की हरकत देखकर सुयोग आगे बढ़ा और उनका हाथ थाम लिया
"कोई बात नहीं सब ठीक हो जाएगा मुझे आशा है, एक दिन आप अपने पैरों पर चल सकेंगे" उसने कहा
"डॉक्टर भी यही कहता है अगर ठीक से तीमारदारी हो सकी तो एक दिन फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं अनोखे लाल" श्यामाचरण जी ने सुयोग का समर्थन किया
"क्यों नहीं होगी तीमारदारी? बिलकुल होगी और मुझे बस एक महीने के भीतर आपको अपने पैरों चलते हुए देखना है।" सुयोग ने उनके मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा अनोखे लाल की आँखों से आँसुओं की अविरल धार बहने लगी लाचार थेआँसू छुपा भी नहीं सकते थे हाथ काम न करते थे, और कमबख्त आँखें थीं, कि अभी भी पनियल होना भूली न थीं सुयोग ने देखा तो उनके चेहरे को अपनी कमर से चिपका लिया
"ये ख़ुशी के आंसू हैं" पास ही कुर्सी पर आसीन परशुराम जी ने माहौल को हल्का करने के प्रयास में कहा
"परशुराम जी, ये ख़ुशी के नहीं अचरज के आँसू हैं जिस दुनिया में अपनी ही संतान दुलत्ती मार कर घर से बाहर धकेल देती हैउसी दुनिया में कोई ऐसा भी है जो बेवजह ही गले लगा लेता है ये इस जीवन का सबसे बड़ा अचरज है" श्यामाचरण जी ने कहा
"सब करनी का गणित है जो किया है वह तो भरना ही पड़ेगा..." एक और वृद्ध हरप्रसाद भी बोलने के लिए प्रेरित हो उठे पर सुयोग ने बीच में ही उन्हें टोक दिया।
"इस दुनिया के परे कोई दुनिया नहीं है। जो है बस यहीं है स्वर्गनरक सब यहीं है..." सुयोग को मालूम था हरप्रसाद जी इसके आगे क्या कहने वाले हैं, सो उसने उनकी बात पूरी कर दी सुयोग के सामने हरप्रसाद जी यह जुमला कई बार दोहरा चुके थे
"पर एक बात मेरी समझ में नहीं आती" सुयोग ने प्रश्न उठाया
"कुछ ऐसे भी लोग होते होंगे जो करते तो होंगे, पर भरते नहीं होंगे या फिर ये एक ऑटोमेटिक प्रक्रिया है, जैसे बैंक का डेबिट और क्रेडिट चलता है उसी तरह? कभी तो ऐसा होता होगा कि आदमी ने पैसा जमा नहीं किया पर निकाल लिया, या फिर आदमी ने पैसा जमा किया पर निकाल नहीं सका गलती तो किसी से भी हो सकती है आखिर भगवान् भी तो इंसान है" सुयोग ने तर्क दिया
"सही कहते हो 'भगवान् भी तो इंसान है'। पर सच ये है कि इस जन्म की बही इसी जन्म में बंद हो तो अच्छा है बहुत अभागे होते होंगे ऐसे लोग जिनकी बही इसी जन्म में बंद नहीं होती" हरप्रसाद जी ने अपने ही तर्क को आगे बढाया
"आपके लिए ये कुछ बूँदी के लड्डू लाया हूँ मैं आपको बहुत पसंद हैं न?" सुयोग ने हरप्रसाद जी की तरफ एक बैग बढ़ाते हुए कहा
"मैंने तो यूँ ही कह दिया था। वैसे भी यहाँ सब कुछ मिल जाता है पर तुम्हें याद रहा, मेरे लिए यही बहुत है" हरप्रसाद जी ने आभार जताया
"मुझे चलना होगा भटनागर जी के साथ कुछ देर बैठना है अगली बार क्रिसमस की छुट्टी में आऊँगा। देर तक बैठेंगे और कहीं बाहर जाने का भी कार्यक्रम बनाते हैं" सुयोग ने विदा लेनी चाही।
"अच्छा नमस्ते"
"खुश रहो बेटा।" सबने आशीष दिया।
सुयोग ने विदा लेने से पहले एक बार और अनोखेलाल को देखा उनकी आँखों से आँसुओं की धार अब भी बह रही थी
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अगले दो महीनों में सुयोग चार बार वृद्धाश्रम गया वहाँ रह रहे वृद्धों के लिए वह, हर बार वह कुछ न कुछ ले जाता उनसे बात करना उसे अच्छा लगता थाकाम की व्यस्तता से समय निकाल कर वहाँ जाना उसे बहुत सुकून देता था जब वह बरेली में था, तब तो वह सप्ताह में दो बार भी आ जाया करता था लखनऊ पहुँच कर दूरी बढ़ गई थी, पर उनसे मिलने के उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी उसे स्वयं भी आश्चर्य होता था, कि वह इन अजनबी बूढ़ों के लिए इतनी सहृदयता कहाँ से जुटा लाया था श्यामाचरण जी ने एक बार पूछा भी था पर वह टाल गया। इस बार जब वह बरेली आया तो श्यामाचरण जी ने गौर किया कि सुयोग अनोखेलाल के लिए कुछ ज्यादा ही चिंतित रहने लगा है पर इसमें भी उन्हें कुछ अजीब सा नहीं लगा शायद, अनोखेलाल ही हैं जो वृद्ध होने के साथ-साथ बीमार भी हैं सुयोग ने उनकी तीमारदारी के लिए सब प्रबंध कर दिया था ऐसा लगता था कि अनोखेलाल को फिर से हृष्ट-पुष्ट देखना सुयोग ने  अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था इस बार भी जब श्यामचरण जी ने वही सवाल छेड़ा तो सुयोग ने टाला नहीं
"तुम्हारा घाव भर गया" उन्होंने सुयोग से पूछा
"कहाँ? थोड़ा भरता है कि नाखूनों में फिर से खुजली हो जाती है खैर, जल्द ही भरना चाहिए"
"कभी-कभी घाव भरने के बाद भी एक टीस रह जाती है"
"आप कुछ पूछना चाहते हैं?"
"जिस दौर में अपने बच्चे माँ बाप को सहन नहीं कर पाते...वह कौन सी टीस है जिसे भरने के लिए तुम इतना मन लगाते हो...न बताना चाहो तो कोई बात नहीं पर बता दोगे तो एक मन की हलचल ख़त्म हो जाएगी"
सुयोग अनोखे लाल की व्हील चेयर धकिया रहा था और श्यामाचरण जी उनके साथ साथ टहल रहे थे
"मन पर एक बोझ है बहुत पुराना है और बहुत भारी भी..." सुयोग ने बताना शुरू किया
"मेरी पहली पोस्टिंग थी, बांदा जिला में मेरे पास एक ड्राइवर काम करता थामुकुंद। फील्ड में ज्यादा जाना होता था सो वह ड्राइवर अक्सर मेरे साथ ही रहता था एक बार मुझे कहीं रात में जाना था, और वह ड्राइवर दिन भर गाड़ी चलाकर थकन से चूर था पर मुझे तो गाड़ी चलाना आता नहीं था सो मैंने मुकुंद को जगाया और गाड़ी निकालने के लिए कहा उसने कहा कि वह गाड़ी चलाने की अवस्था में नहीं है बहुत नींद में था वह उसके लाख कहने पर भी, मैंने उसे गाड़ी चलाने के लिए विवश किया चलाते समय नींद का एक झोंका आया और गाड़ी एक पेड़ से टकरा गई। मैं पीछे बैठा था सो कुछ खरोंचें ही आईं पर उसने वहीं दम तोड़ दिया करीब एक सप्ताह तक मैं सो नहीं सका मैं उसके माँ-बाप के पास गया कि मुझे क्षमा कर दें। मैंने प्रस्ताव रखा कि मैं उनकी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी उठाऊँगा, उम्र भर मुकुंद उनका इकलौता बेटा था उत्तर में उन्होंने क्या कहा, जानते हैं?"
श्यामाचरण जी उत्सुकता भरी नज़रों से सुयोग को देखते रहे
"उन्होंने कहा कि उन्हें मेरी सेवा की ज़रुरत ही नहीं है। अच्छी-खासी जमीन थी उनके पास मुकुंद को खेती करना पसंद नहीं था ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, तो नौकरी भी नहीं कर सकता था इसलिए ड्राइवरी करता था उनके पास सब कुछ था उन्हें मेरी मदद की ज़रुरत ही नहीं थी मुकुंद एक ऐसा बैंक अकाउंट है, जिससे मैंने बहुत बड़ी रकम निकाल ली है...बिना एक पाई जमा किये..."
सुयोग भावुक हो उठा
"यहाँ आकर कुछ सिक्के कमा लेता हूँ, उस अकाउंट में जमा करने के लिए शायद एक दिन हिसाब बराबर हो जाए"
"इस बैंक पर आपका विश्वास कहीं अंधा तो नहीं है?"
"गीता में लिखा है..." उसने समझाने का प्रयास किया
"दरअसल गीता में कुछ लिखा ही नहीं है बस एक बैंक का वर्णन है और मुझे उस बैंक में अगाध आस्था है कभी आजमा कर देखिये अपने अतीत पर नज़र डालिए और तब इसका आँकलन कीजिये आपका भी कोई न कोई अकाउंट ज़रूर होगा और अगर कुछ गड़बड़ है तो समय रहते ठीक कर लीजिये उसके दरबार में खड़े होने के लिए सबको तैयार होकर जाना पड़ेगा"
"आप सच कहते हैंशायद ईश्वर आपके अकाउंट को जल्दी ही दुरुस्त कर दे, ऐसी आशा है"
"देखिये, इस बार मैं क्या लाया हूँ  चावल की कड़क रोटियां और गन्ने के रस की खीर...."
"चावल की रोटियां...वाह"
अनोखे लाल व्हील चेयर पर गुमसुम बैठे थे उनकी आँखें नम थीं गन्ने के रस की खीर और चावल की रोटी का नाम सुनकर उनकी आँखों में आँसुओं की कुछ बूँदें और जुड़ गई थीं
"बचपन में मेरी ताई जी बड़े प्यार से खिलाती थीं हमारा एक बड़ा से घर था गाँव में दादी-दादा थे नहींऔर ताऊ जी मेरे पिताजी से काफी बड़े थे उम्र मेंदादी-दादा का प्यार भी हमें ताऊजी और ताईजी से ही मिला तब हमारे घर का बटवारा नहीं हुआ था आँगन के बीच में एक बड़ा सा पुआल रखा जाता थाठण्ड में तापने के लिए गन्ने पे सूखे पत्तों की पताई से सुलगता था पुआल और चूल्हे की तेज़ आँच से उतारकर ताईजी कुछ न कुछ खाने के लिए दे देती थीं चावल की रोटी और गन्ने के रस की खीर मुझे बहुत अच्छी लगती थी  स्वेटरटोपी, मफलर के वह दिन बटवारे के बाद अपने आप छिन गए घर के बीच जहाँ पुआल रखा जाता था,वहाँ अब चार फुट ऊँची दीवार खड़ी हो गई थी एक पुआल उधर और एक पुआल इधर ठण्ड का मौसम साल दर साल आता रहा, पर अब ठण्ड काटती थी... महसूस होती थी भाईयों को शायद कभी पता ही नहीं चला कि गर्माहट रिश्तों में थी, पुआल की आंच में नहीं...."
"आपकी बातें सुनकर अनोखे की भी आँखें भर आईं...देखो।" श्यामाचरण जी ने कहा
सुयोग ने अपनी जेब से रूमाल निकाला और अनोखेलाल की आँखों से बहती हुई धार समेट ली
"आप पुरबिया राणा हो न? और ये अनोखेलाल जी भी इत्तेफाक से राणा ही हैं, पर ये तराई के राणा हैं एक ही होते हैं क्या?" श्यामाचरण जी ने कुतूहलवश पूछा
"पता नहीं शायद एक ही होते हों"   
एक महीने की सेवा ने अपना असर दिखा दिया अनोखे लाल जी के पैरों में हरकत होने लगी थी वह अपना दाहिना हाथ खाने के लिए प्रयोग करने लगे थेपर आवाज उनकी जुबान में अब भी नहीं लौटी थी डॉक्टर ने कहा था कि यदि उनकी ऐसी ही सेवा होती रही, तो छः से आठ महीने में वह बोलने लगेंगे और करीब एक साल के भीतर वह पूरी तरह स्वस्थ हो जायेंगे 
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तीन रोज़ पहले ही कोई पूछ रहा था कि इस बार सावन कैसा रहेगा धान की फसल के लिए पानी होगा या नहीं और आज देखियेऐसा लगता है जैसे पिछले साल का सावन गया ही कहाँ था दूर-दूर तक आसमान में बदलियों का शासन था गहरी और कालीबवंडर की टोह लेती बदलियाँ पिछले दो दिन की बारिश ने ज़मीन को गले तक तर कर दिया था सामने की सड़क जो सतह से चार फुट ऊपर थी, बड़ी मुश्किल से अपनी उपस्थिति का एहसास करा पा रही थीआस पास का धरातल तो पूरी तरह जलमग्न था सड़क के उस पार, महाशय जी की आरामशीन भी पानी में तैर रही थी लकड़ी का बुरादा तैर कर इधर-उधर बिखर गया था पेड़ों के बड़े-बड़े तने, जो पहले पानी में उतराने लगे थे अब पसीजकर भारी हो गए थेवापस डूब गए महाशय जी के आराम करने के लिए डाली गई खटिया दो ही दिन में गल गई मशीन के पुर्जों में पानी भर चुका था और उस तालाब नुमा अहाते मेंछत को जलमग्न धरातल से जोड़ती हुई आरामशीन की आरी ही सीधी खड़ी रह गई थी। शाम की मैली उबासी में, आरी के दाँतों की परछाईं, महाशय जी की बसी बसाई दुनिया का क़त्ल करती नज़र आती थी
कितने परिश्रम से जुटाया था जीने का सामान? कुदरत के एक ही झटके ने सब कुछ तबाह कर दिया उनका वास्तविक नाम मंगल सिंह था पर आदर से लोग उन्हें महाशय जी, या फिर सिर्फ महाशय कहते थे । ये नाम उन्हें अपने पिता से मिला था उनके पिता का अच्छा खासा रौब था और उनके दादा का...पिता से भी अच्छा महाशय जी का परिवार थोड़ी दूरी  पर बसे एक गाँव में रहता था पुश्तैनी खेती-बाड़ी के अलावा और कोई व्यवसाय न था दसवीं पास थे, पर नौकरी नहीं मिल सकी थी और खेती बाड़ी में महाशय जी को कोई रुचि न थी वह अपना अलग व्यापार शुरू करना चाहते थे मेहनती थे ही। बड़े भाई के साथ बटवारे के बाद उनके हिस्से में थोड़ी सी जमीन, और आधा घर आया अपने हिस्से की ज़मीन में से आधी ज़मीन बेचकर आरामशीन लगाईं, और लकड़ी का व्यवसाय शुरू कियातराई के जंगलों में पेड़ों की कटाई का काम ज़ोरों पर था इमारती लकड़ी की बड़े बाज़ारों में अच्छी माँग थी इसलिए यही रोज़गार उन्हें सही लगा आरा मशीन को जमाये हुए दो साल भी नहीं हुए थे, कि बरसात ने सब कुछ उखाड़ फेंका एक सप्ताह गुजरा तो बारिश थोड़ी कम हुई मशीन के अहाते से पानी तो उतर गया था, पर अपने पीछे महाशय जी के लिए एक लम्बे संघर्ष की पूँछ छोड़ गया था
मशीन के सारे कलपुर्जे बेकार हो चुके थे अहाते में पड़ी लकड़ी जलाने के अलावा किसी काम की न रह गई थी मशीन को फिर से जमाने में अच्छा-खासा खर्च आएगा। और इस खर्च के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे? क्या बची हुई आधी जमीन जो उन्होंने अपने बुरे दिनों के लिए रख छोड़ी थी, को बेचने का समय आ गया था?और अगर अगले साल फिर बारिश हो गई तो? नहींबची हुई ज़मीन अभी नहीं बेच सकते कोई और इंतजाम सोचना होगा
बिजौरिया में उनके नाना की ज़मीन के बटवारे को लेकर कुछ विवाद चल रहा था दरअसल, उनके नाना के कोई बेटा नहीं था नाना की दोनों बेटियाँ उस संपत्ति में बराबर की हिस्सेदार थीं पर उनकी मौसी की ओर से एक वसीयत सामने आई, जिसके अनुसार उनकी पूरी संपत्ति उनकी मौसी के नाम होनी थी महाशय जी के पिताजी ने वसीयत पर आपत्ति दर्ज की, और ये स्थापित हो गया कि वास्तव में वसीयत नकली थी सालों केस चला था, और दोनों पक्षों का खूब पैसा खर्च हुआनकली वसीयत के मामले में कचहरी मौसा को अच्छी खासी सज़ा सुना सकती थी पर महाशय जी के बड़े भाई ने ले देकर मामला रफा दफा करा दिया, और बदले में पूरी ज़मीन अपनी माँ के नाम करा ली अब चूँकि ज़मीन महाशय जी की माँ के नाम हो चुकी थी, तो महाशय जी का भी उसमें बराबर का हिस्सा बनता था पर बड़े भाई ने एक फूटी कौड़ी देने से भी मना कर दिया और दें भी क्यों? पूरी लड़ाई लड़ी उनके भाई ने तो फिर हिस्से पर अधिकार भी उन्हीं का होना चाहिए महाशय जी अच्छी तरह जानते थे, कि उनका भाई उन्हें उनका हिस्सा सीधे तरीके से नहीं देगा उनका व्यवसाय ठप हो चुका था, बची हुई ज़मीन बेचने के नौबत थी सब कुछ ठीक होता तो शायद न भी हाथ फैलाते पर, कुदरत ने उनकी जो कमर तोड़ी तो वह जाकर अपने भाई के दरवाजे पर खड़े हो गए। उम्मीद के अनुसार भाई ने भी ठेंगा दिखा दिया, और बेइज्जत करके घर से निकाल दिया महाशय जी ने कानूनी कार्यवाही की धमकी दी। आख़िरकार, एक कचहरी से निकल कर ज़मीन दूसरी कचहरी में पहुँच गई 
उस दिन शाम और रात का फर्क पता ही नहीं चलता था शाम उतनी ही घनी थी, उतनी ही काली और उतनी ही डरावनी पिछले कुछ दिनों से हो रही भीषण बरसात ने अनपेक्षित किन्तु आवश्यक विराम लिया था बिजली के खम्भों के बारिश में गिर जाने की वजह से तीन चार दिन से बिजली नहीं आ रही थी कीट-पतंगे लालटेन की लौ के चारों ओर मंडरा  रहे थे दूर पोखर के पानी में उतराते मेंढक अपनी ‘टर्र-टर्र’ से सारे वातावरण को गुंजायमान कर रहे थे घर की दीवार पर चिपकी छिपकलियाँलालटेन की रोशनी देखकर उमड़ आये पतंगों पर अपनी पैनी शिकारी निगाह जमाये बैठी थीं पल भर के लिए पतंगे का ध्यान भटका, कि गप्प से छिपकली के हलक में उस रात महाशय जी के बड़े भाई अपने चारों बेटों को लेकर महाशय जी के घर आ धमके महाशय जी का पंद्रह साल का बेटा अपनी माँ के साथ कमरे में दुबक कर बैठा हुआ था कमरे में जलती लालटेन की मद्धिम रोशनी उसकी किताब में छपे काले अक्षरों का मर्म समझाने के लिए पर्याप्त नहीं थीपर माँ के डर से वह फिर भी किताब में मन लगाने का स्वांग कर रहा था उस लड़के का पूरा ध्यान उस छिपकली पर था, जो अभी-अभी चार पतंगों का शिकार करके अपने अगले शिकार पर घात लगाने की तैयारी में थी
 "चार से इसका पेट नहीं भरा होगा क्या? लालची छिपकली"
उसने सोचा पिता के कहने पर उसकी माँ ने पानी का जग और गिलास बाहर बैठक में पहुंचा दिए थे थोड़ी देर के बाद ही दोनों भाईयों के स्वर मुखर हो गए    
"अपनी अर्जी कचहरी से वापस लेलो उस ज़मीन पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं है" बड़े भाई ने कहा
"अम्मा और पिताजी की छोड़ी हुई हर चीज़ पर हम दोनों का बराबर का हक़ है" छोटे भाई ने भी अपना स्वर रौबीला बनाने का प्रयास किया
"न तो ये ज़मीन पिताजी ने छोड़ी है, और न ही ये हमारे बटवारे में शामिल थी ये बटवारे के बाद की ज़मीन है, और इसका बटवारा नहीं हो सकता और फिर मैंने, और मेरे बच्चों ने रुपया बहाया है इसके लिए पटवारी को, वकील को, जज को सबको हमने पैसा दिया है तो इस पर हक़ भी हमारा हुआ"
"जितना पैसा आपने खर्च किया है, उसका पूरा हिसाब-किताब करने के बाद ही हिस्सेदारी होगी आप निश्चिन्त रहें और आपको क्या लगता हैअगर आप न होते तो मैं यूँ ही हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता? चूँकि आप इसमें शुरू से शामिल थे, मैंने इसमें दखल देना उचित नहीं समझा मुझे मालूम होता कि ज़मीन मिलने के बाद आपकी नीयत खराब हो जाएगी तो हरगिज़ मैं आपके साथ होता" अपने बड़े भाई को उत्तेजित होते देख महाशय जी भी उत्तेजित हो गए
"नीयत तेरी खराब हो गई है मंगल पर मैं भी देखता हूँ तू कैसे अर्जी वापस नहीं लेता नंगे पैरों दौड़ धूप की है मैंने इस ज़मीन के लिए और अगर इसकी प्यास खून से ही बुझती है... तो ये भी सही तीन दिन का समय है तेरे पास अगर तूने अपना हक़ न छोड़ा तो देख लेना अंजाम तूने सोचा भी नहीं होगा"
"देखिये भाईसाबमुझे अमानत में खयानत करने का कोई शौक़ नहीं है मुझे जो मिला मेरे हिस्से में वही बहुत है पर मेरा जमाया हुआ पूरा काम चौपट हो गया मेरे पास कुछ भी नहीं बचा अपने छोटे भाई की मदद समझ कर ही ज़मीन का कुछ हिस्सा दे दीजिये"
बड़े भाई की धमकी भरे स्वर से महाशय जी की उत्तेजना ठंडी पड़ गई चार हट्टे-कट्टे भतीजों का महाशय जी के पास कोई उत्तर नहीं था उन्हें अच्छी तरह ज्ञान था, कि ज़मीन के लिए खून खराबा मिट्टी की नस में ही शामिल है कोई अचरज नहीं कि भाई भाई का ही लहू बहा दे
"अगर तू पहले मेरी चौखट पर आकर भीख मांगता... तो मैं पसीज भी जाता ये हथकंडे अपना कर तूने मुझसे जबरदस्ती की है इसका भुगतान तो तुझे करना ही होगा"
धमकी भरा स्वर और मुखर हो गया थोड़ी देर और कहा सुनी चलती रही। बड़े भाई के बेटे भी अपने चाचा को धमकियाँ देने लगे, कि अर्जी वापस ले लोभीतर अपनी माँ के पास बैठा सुयोग अब भी उस घात लगाए बैठी छिपकली को घूर रहा था  
**********
दफ्तर से लौटकर सुयोग खाना खाने बैठा ही था कि उसका फोन बज उठा श्यामाचरण जी का फोन था
फोन पर बात ख़त्म करके सुयोग वापस कुर्सी पर बैठा, तो प्रज्ञा उसकी थाली में खाना परोस चुकी थी सुयोग कुछ विचलित जान पड़ता था प्रज्ञा से रहा न गया
"किसका फोन था?"
"श्यामाचरण जी का"
"कल मुझे छुट्टी लेकर बरेली जाना होगा अनोखे लाल जी का देहांत हो गया"
सुयोग की आँखों में आंसू थे, कुछ वैसे ही लम्बी धार वाले आंसू जो अनोखेलाल की आँखों में वह देखा करता था
"मैं खाना नहीं खा सकूंगा। अभी मन नहीं है तुम रख दो"
प्रज्ञा उसे कुर्सी से उठकर भीतर कमरे में जाते हुए देखती रही कुछ न बोली सुयोग ने अनोखे लाल की सेवा में कोई कसर न छोड़ी थी यहाँ तक कि अपने खर्चे पर एक नर्स का भी इंतजाम कर दिया था जो रोज़ सुबह आकर अनोखेलाल की मालिश करती, और उन्हें फिजिओथेरपि भी कराती तन से वह स्वस्थ भी होने लगे थे अंगों में हरकत आने लगी थी चेहरे पर कांति भी दिखाई देती थी पर सुयोग जानता था कि वह ज्यादा दिन जी नहीं सकेंगे डॉक्टर ने कहा था कि गुर्दे खराब हो चुके हैं उनकी शराब पीने की लत की वजह से, वह लाख तीमारदारी के बावजूद ज्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं सुयोग उदास था कितनी जल्दी सब कुछ हो गया? अभी चार महीने पहले ही तो उनकी मुलाक़ात हुई थी पर जो होना था वह हो चुका था 
"कौन हैं ये अनोखे लाल?" सोते समय प्रज्ञा ने सुयोग से पूछा सुयोग के आँसू अब सूख चुके थे
"उस साल बरसात में पिताजी का जमा जमाया बिजनेस बंद हो गया बरसात सब कुछ बहा ले गई उसके बाद जीवन बहुत मुश्किल था माँ अनपढ़ थीकोई नौकरी करने का प्रश्न ही नहीं था मुझे याद है जब माँ ने आरामशीन की ज़मीन और बचे हुए कबाड़ को बेचने का फैसला किया, तो गाँव के लोग गिद्ध की तरह जमा हो गए थे जैसे मुफ्त में कब्ज़ा करने को आतुर बैठे हों बिजनेस के सिलसिले में जिनके पिताजी के साथ अच्छे सम्बन्ध थे वह भी...पिताजी का ताऊ जी के साथ ज़मीन को लेकर एक विवाद था पिताजी उसमें हिस्सा चाहते थे, और ताऊ जी देना नहीं चाहते थे पिताजी ने कचहरी में अर्जी डाल दी, कानूनी लड़ाई के लिए लड़ाई लड़ने के तो पैसे उनके पास थे भी नहींपर उन्हें लगा कि ताऊ जी डर कर कुछ समझौता कर लेंगे, और उनका बिजनेस फिर से खड़ा हो जाएगा मुझे पता नहीं कौन सही था और कौन गलत उस रात मैं अपनी परीक्षा की तैयारी कर रहा था बरसात बहुत हो चुकी थी और घर में बिजली भी नहीं थी तब ताऊ जी आये थे हमारे घर; अपने चारों बेटों के साथ काफी देर तक मैं पिताजी को ताऊ जी के साथ संघर्ष करते, घिघियाते सुनता रहा ताऊ जी को अपने चार बेटों का बहुत घमंड था कहीं भी कोई भी विवाद हुआ, वह उन बेटों को ले जाकर खड़ा कर देते थे उस रात मैं खुद को कितना निर्बल और असहाय महसूस कर रहा था डर के मारे मैं कमरे से बाहर ही नहीं निकल सका पिताजी की कोई मदद करने की तो बात ही दूर थी दीवार पर नज़रें गढ़ाएहाथ जोड़े मैं उस पतंगे के जान बचा कर उड़ जाने की प्रार्थना करता रहा छिपकली बहुत देर से घात लगाए बैठी थी पर मैं कुछ नहीं कर सका एक महीने बाद मैं स्कूल से गाँव वापस जा रहा था। मैंने देखा कि हमारी आरामशीन के पास बहुत भीड़ जमा है भीड़ को चीर कर मैं बहुत आगे पहुँच गया। ठीक वहाँ जहाँ पिताजी के शरीर के दोनों हिस्से अलग-अलग पड़े थे सर से लेकर पैरों तक उनको आरामशीन ने दो टुकड़ों में चीर दिया था खूनऔर बस खून था वहाँ पर"
"मेरे अलावा माँ का कोई सहारा नहीं था मेरे हाई स्कूल के लिए अपने गहने बेच करफिर इंटर के लिए ज़मीन का एक टुकड़ा बेचकर...बस कैसे गुज़र होती थी पता नहीं फिर कहीं किसी घर में चौका कर लिया, कहीं कपड़े  धो लिए...फिर मैंने भी पढ़ाई के साथ छोटा मोटा काम उठा लिया हम लोग बरेली आकर एक बंजारों की ज़िन्दगी बिताने लगे मैंने लोगों के घर अखबार बाँट कर अपनी पढ़ाई का खर्च भी उठाया है पर कुछ फायदा नहीं हुआ परिश्रम के पेड़ पर जब मीठे फल आने लगे तो उन्हें चखने के लिए माँ रही ही नहीं"
"पिताजी कहते थे कि उनके परदादा ज़मींदार थे बहुत ज़मीन थी उनकी फिर धीरे-धीरे बटवारे होते चले गए ज़मीन कटती गई पहले-पहल आदमी के लिए ज़मीन कटीपर जब रकबे सुई बराबर टुकड़ों में सिमटते गए, तो ज़मीन के लिए आदमी कटने लगा आखिर उतनी ही सीमित ज़मीन को कितने टुकड़ों में बाँट सकता था कोई? और कैसी विडम्बना हैज़मीन के लिए खून अपना ही बहाना पड़ता हैहक़ जताने के लिए किसी और का बहाया तो कोई हक़ नहीं बनता...." वह सिसकने लगा था।     
प्रज्ञा ये नहीं जानती थी वह स्तब्ध थी एक साधारण सी जान पड़ने वाली ज़िन्दगी के पीछे इतना बड़ा हादसा छुपा हुआ था उसने सुयोग को अपने आगोश में भर लिया पर सुयोग की आँखें अब भी सूखी थीं
"पुलिस आई तो ताऊ जी ने उन्हें भी पैसे खिला दिए, और केस दब गया ये अनोखे लाल मेरे वही ताऊ जी हैं, जिन्होंने पिताजी की इतनी निर्मम हत्या की और पुलिस कुछ नहीं कर पायी उन्हें न्याय नहीं मिला"
**********
"श्यामाचरण जी क्रिया कर्म की तैयारी कीजिये उनके बेटों में से कोई नहीं आने वाला" सुयोग ने कहा
"मुझे भी ऐसा ही लगता है पर मुखाग्नि कौन देगा?"
"मैं दूंगा मेरे ताऊ जी थे वह सगे ताऊ जी।"
श्यामाचरण जी के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई
"मंगल सिंह राणामेरे पिताजी थे" उसने कहा
श्यामाचरण जी को काटो तो खून नहीं पूरा शरीर सुन्न हो गया था, जैसे लकवा मार गया हो
"इसलिए मैं उन्हें मुखाग्नि दूंगा"
अनोखे लाल को मुखाग्नि देने की बात श्यामाचरण जी के दिमाग से पूरी तरह निकल चुकी थी ये तो कोई और ही बवंडर था, जिसने श्यामाचरण जी को शून्य कर दिया था
"आपने कभी बताया नहीं," इतना ही निकला उनके मुँह से।
"और अनोखे ने भी कभी कुछ नहीं बताया"
"वह कैसे बतातेवह तो बोल ही नहीं सकते थे और पढ़े लिखे थे नहींकि लिख कर बताते"
"ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे" हवाईयाँ अब भी उनके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रही थीं एक कातिल के रंगे हाथों पकडे जाने पर जो भाव आते हैं,श्यामाचरण जी के चेहरे के भाव उससे भी भयावह थे जैसे कुछ और छुपा था इस सच के पीछेज्यादा भयावह और ज्यादा कटु
"कैसे मिलेगी शान्ति? उनके अकाउंट में तो पूरा का पूरा ऋण बैलेंस था और हमेशा से था"
श्यामाचरण जी का डर सच बनकर उनके सामने आने ही वाला था किसी भी क्षण। वह चुपचाप सुयोग को बोलते हुए सुन रहे थे
"ज़िन्दगी भर निकाला ही। जमा कुछ भी नहीं किया कैसे मुक्ति मिलेगी? मैं कोई पुरबिया राणा नहीं। मैं भी यहीं सरदारनगर का ही रहने वाला हूँ सरदार नगर के पास जो क़स्बा है मिलकवहीं मेरे पिताजी की आरामशीन थी आप उन दिनों सरदारनगर के प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे....जब मैं यहाँ तहसीलदार था,मिलक के दरोगा से मेरी अच्छी जान पहचान हो गई थी पुलिस की इन्वेस्टिगेशन की पूरी फ़ाइल उन्होंने मेरे हवाले कर दी थी किस को कितना पैसा दिया गया, और उस कुकर्म में किस किस के खिलाफ पुख्ता सबूत थे मुझे तीन साल पहले ही पूरी जानकारी मिल गई थी अनोखे लाल को तो फिर भी एक मौका दे सकता है ईश्वर। शायद उनके लालच को समझ सके पर आप किस मुँह से उसका सामना करोगे? चंद रुपयों के लिए एक शिक्षक होकर आपने मेरे ताऊ जी का साथ दियामेरे पिता के क़त्ल में आरी के बीचोबीच सर रखकर....सिर्फ कुछ रुपयों के लिए जी तो चाहता था कि आपकी पूरी नस्ल को जड़ से मिटा दूँ। और मैं कर सकता था पर फिर मुझे माँ का संघर्ष याद आता थाजिसने मेरा जीवन सँवारने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया उसके दिए हुए जीवन को मैं यूँ....तुम्हारे खून से नहीं रंग सकता था..." उसका स्वर कठोर हो चला था होठ भिंच गए थे फिर उसने स्वयं को सँभालते हुए अपने आँसू पोंछ डाले श्यामाचरण के होठ सूख गए थे वह अब भी खामोश खड़े सुयोग को सुन रहे थे
"चलिए, हमें प्रस्थान करना चाहिए" सुयोग ने कहा
"आपने उनकी इतनी सेवा की?"
"बेटों के जुल्म का शिकार होकर, अगर वह यूँ ही मर जाते तो उनका बैलेंस जीरो हो जाता जो किया वही भुगता उन्हें मुक्ति मिल जाती। उनकी आँखों से बहने वाले आँसू मेरे लिए नहीं थे वह जानते थे कि मैं कौन हूँ, और उनकी सेवा क्यों कर रहा हूँ वह आँसू उनकी अपनी मुक्ति के लिए थे, जिससे मैंने उन्हें महरूम कर दिया था"
"न मेरे ताऊ जी को मुक्ति मिलेगी और न ही आपको"
दाहिनी कलाई पर उसका बाएँ हाथ का नाख़ून उसके पुराने ज़ख्म की पपड़ी से संघर्ष कर रहा था
"अब जाकर सूखा ये ज़ख्म" सुयोग ने अपनी नंगी कलाई श्यामाचरण जी को दिखाते हुए।


लेखक परिचय-
 पीलीभीत के एक गाँव में जन्मे (10 मार्च 1978) अबीर की पढ़ाई सैनिक स्कूल घोड़ाखाल, नैनीताल में हुई। हरकोर्ट बटलर टेक्निकल यूनिवर्सिटी से केमिकल इंजीनियरिंग में डिग्री ली। आई आई टी खड़गपुर में अधूरी  पढ़ाई के बाद IIM कलकत्ता से मैनेजमेंट में डिप्लोमा किया। 

पिछले तेरह सालों से अबीर इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं। इस्पात, आयल एंड गैस, ऑटोमोटिव और स्पेशिलिटी केमिकल जैसे क्षेत्रों में वह काम कर चुके हैं। फिलहाल, वडोदरा स्थित एक केमिकल कंपनी में कार्यरत हैं। अबीर का कहानी संग्रह 'सिर्री' हाल ही मैं प्रकाशित हुआ है। यह कहानी उसी संग्रह से है।


ईमेल- abbir.anand@gmail.com




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तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड (कहानी)/                              कहते हैं यह एक सच वाकया है जो यूरोप के किसी शहर में हुआ था।          बताया यूँ गया कि एक बुजुर्ग औरत थी। वह शहर के पुराने इलाके में अपने फ्लैट में रहती थी। शायद बुडापेस्ट में, शायद एम्सटर्डम में या शायद कहीं और ठीक-ठीक मालुमात नहीं हैं। पर इससे क्या अंतर पडता है। सारे शहर तो एक से दीखते हैं। क्या तो बुडापेस्ट और क्या एम्सटर्डम। बस वहाँ के बाशिंदों की ज़बाने मुख्तलिफ हैं, बाकी सब एक सा दीखता है। ज़बानें मुख्तलिफ हों तब भी शहर एक से दीखते रहते हैं।             वह बुजुर्ग औरत ऐसे ही किसी शहर के पुराने इलाके में रहती थी, अकेली और दुनियादारी से बहुत दूर। यूँ उसकी चार औलादें थीं, तीन बेटे और एक बेटी, पर इससे क्या होता है ? सबकी अपनी-अपनी दुनिया है, सबकी अपनी अपनी आज़ादियाँ, सबकी अपनी-अपनी जवाबदारियाँ, ठीक उसी तरह जैसे खुद उस बुजुर्ग औरत की अपनी दुनिया है, उसकी अपनी आज़ादी। सो साथ रहने का ...

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मित्रों आज के दौर को देखते हुए मैं आप सभी पर अपनी एक सलाह थोपना चाहूंगा। मुझे ये सलाह थोपने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी ये आप लेख को अंत तक पढ़ते पढ़ते समझ ही जायेंगे। पिछले कुछ दिनों से मेरा एक परम-मित्र बड़ी ही भंयकर समस्या में उलझा हुआ था। उसके खिलाफ न जाने किन-किन तरहों से साजिशें रची जा रही थी, कि वह अपने मुख्य-मार्ग से भटक जाये। उसका एकमात्र पहला लक्ष्य ये है कि वह अपनी पढ़ाई को बेहतर ढंग से सम्पन्न करे। कुछ हासिल करें। समाज में बेहतर संदेश प्रसारित करें। वो मित्र अभी विद्यार्थी जीवन निर्वाह कर रह रहा है। वह अपने परिवार और समाज को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य के प्रति वचनबद्ध है। उसकी सोच सिर्फ अपने को जागरूक करने तक ही सीमित नहीं है अपितु समाज को भी जागृत करने की है। जिससे कुछ भोले-भाले अभ्यर्थियों को सही दिशा-निर्देश के साथ-साथ उन्हें अपने कर्त्तव्यों का सही-सही पालन भी करना आ जाए। किंतु इसी समाज के कई असमाजिक सोंच रखने व्यक्ति जो सिर्फ दिखावे की समाजिक संस्था में गुप्त रूप से उनके संदेशों को मात्र कुछ रूपयों के लालच में आम जनों तक फैलाने में कार्यरत हैं। जिससे वह व्यक्त...