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अच्छा सोचो, अच्छा करो, अच्छा बनो - पुंज प्रकाश


आज भी बौद्ध लामाओं को बचपन से यही शिक्षा दी जाती है कि अच्छा सोचो, अच्छा करो, अच्छा बनो। हमारे हिंदी रंगमंच को भी इस बात पर ग़ौर करना चाहिए, क्योंकि अच्छी सोच से ही सार्थक कला और स्वास्थ्य वातावरण का निर्माण हो सकता है। कुछ भी गढ़ने के लिए आशावादिता और नवाचार (experiments) का भरपूर होना एक अति-आवश्यक सोच है। अभी कुछ पढ़ रहा था कि विंस्टन चर्चिल का एक वक्तव्य पढ़ने को मिला। वो कहते हैं - "निराशावादी को हर अवसर में समस्या दिखती है; आशावादी को हर समस्या में अवसर दिखता है।" वर्जिन ग्रुप के फाउंडर और सफल उद्दमी रिचर्ड ब्रेन्सन कहते हैं - "सकारात्मक लोगों के लिए दिन अच्छा होता नहीं है बल्कि वे दिन को अच्छा बनाते हैं। दुनियां के सभी प्रभावशाली और सफल व्यक्ति सकारात्मक सोचवाले हैं, ना कि नकारात्मक।" बात बिल्कुल सही है क्योंकि सकरात्मकता आपके लिए असीम संभावनाएं का द्वार खोलता है, जबकि निराशा और नाकारात्मक सोच खुले द्वार भी बंद कर देता है। सकारात्मकता से सकारात्मकता का जन्म होता है, नकारात्मकता से नहीं। इसलिए जीवन में सफल जीवन के बने बनाए दुनियावी मान्यताओं से बाहर निकालकर रिस्क लीजिए और काम को पूरे जोश से अंतिम लक्ष्य तक कीजिए फिर आपको कोई रोक नहीं सकता। बाकी लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह मत कीजिए। दूसरे क्या कह या कर रहे हैं इस पर फोकस करने के बजाय हमें अपने और अपने कार्य को बेहतर बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए और सफलता के पीछे भागने के बजाय काम पर ध्यान केंद्रित कीजिए फिर सफलता आपके पीछे भागेगी।
बहरहाल, बचपन में कहानी सुनते थे कि लोग कोस-कोस भर पैदल या बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी या साईकल आदि से चलके लोग नाटक देखने जाते थे। कई बार बचपन में हम भी कुछ किलोमीटर चलके नाटक, नाच, नौटंकी और वीडियो फ़िल्म आदि देखने गए हैं और रात-रात भर जगके यह सब देखा है। वो सब निश्चित ही एक अद्भुत अनुभव रहा है।
पिछले कुछ नाटकों से हमारे नाट्यदल दस्तक, पटना की नाट्यप्रस्तुति के साथ भी कुछ ऐसा ही संयोग घटित हो रहा है। हमारे नाटक देखने लोग आरा (पटना से 54.5 किलोमीटर की दूरी), डालटनगंज (पटना से 332.8 किलोमीटर की दूरी), नवादा (पटना से 117 किलोमीटर की दूरी), गया (पटना से 98 किलोमीटर की दूरी) से लोग नाटक देखने आए, नाटक देखा; मिले जुले, नाटक पर अपनी प्रतिक्रिया दी और चले गए। पता नहीं और कहां-कहां से दर्शक आए होंगें।
हमारी टीम इन सब दर्शकों का तहे दिल से शुक्रगुज़ार है। हमारे दिलों में आपके प्रति अगाध सम्मान है और आपका भरोसा ही हमारी असली ताक़त है। मित्रों, इसी तरह आना जाना लगा रहे और हम अपनी पूरी लगन और मेहनत से आपके समक्ष सार्थक और समसामयिक नाट्य-प्रस्तुतियों को मंचित करते रहेगें। हमारा साफ़-साफ़ मानना है कि कला दर्शकों के लिए होती है पूर्वाग्रह से ग्रसित तथाकथित कलाकारों और विद्वानों के लिए नहीं। नाट्यशास्त्र में भरतमुनि जिसे सहृदय दर्शक कहते हैं कला का असली आंनद ऐसे दर्शक ही ले सकते हैं। खुले दिल और दिमाग से कला का रसास्वादन करने पर सच्ची और सार्थक कला ना केवल आपका स्वास्थ्य मनोरंजन करती है बल्कि आपको बौद्धिक रूप से परिष्कृत, प्रबुद्ध और संवेदनशील भी बनाने का साहस रखती है। बाकि एक सच्चे कलाकार को "महान" लोगों की झूठी प्रशंसा और कुंठित और पूर्वाग्रह से सराबोर निंदा से बचके रहना चाहिए क्योंकि इनके चक्कर में पड़ने से स्वयं अपना विनाश और समय की बर्बादी ही होगी; बाकी कुछ नहीं। कला विधा से जुड़ा हर व्यक्ति ज़रूरी नहीं कि कलात्मक सोच भी रखता हो। वैसे भी आजकल चारों तरफ़ मूढ़ता का बोलबाला है। लोग अपनी परेशानी से नहीं बल्कि दूसरे की ख़ुशी से ज़्यादा परेशान होते हैं - होते रहो हमें क्या ! परसाई जी कहते हैं कि "इस दुनियां में सबसे ज़्यादा ज़िंदगियाँ शुभचिंतकों ने बर्बाद की हैं।"

[फेसबुक पोस्ट से साभार]


© पुंज प्रकाश
(लेखक एवं रंगकर्मी)

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