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सरप्राईज़ (कहानी) : शक्ति सार्थ्य

आजकल कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहता था विराग। ऑफिस मेँ भी ओवर टाईम करता। और घर पर भी घण्टोँ काम करता। शायद वो अपनी पुरानी यादोँ से पीछा छूड़ाना चाहता था।
उसकी और 'सुरभि' की यादें।
दरासल बात उन दिनोँ की है जब विराग बी.एस.सी. सेकेण्ड ईयर मेँ था। यूँ तो विराग और सुरभि एक ही कॉलेज मेँ पढ़ते थे पर कॉलेज के सेकेण्ड ईयर तक उनकी कोई मुलाकात तक नहीँ हुई थी। या यूँ कहिये कि अब तक दोनोँ एक दूसरे को जानते तक नहीँ थे। एक दिन जब विराग कॉलेज कैँटीन मेँ अपने दोस्तोँ के साथ खड़ा था, तो वहाँ एक लड़की आयी और कैँटीन वाले से बोली, 'भईया एक कोल्ड्रिँग देना।'
कमर तक लम्बे बाल। होँठो पर हल्की लेकिन प्यारी मुस्कान। काजल से गहरी बड़ी आँखे। चेहरे पे एक ऐसा निखार जो पूरी कैँटीन को चमका दे। सीधी। हल्कि सी पतली। उसके कानोँ की बाली से होता हुआ सूर्य का मध्दम प्रकाश उसके गालोँ पे मानोँ अठखेलियाँ खेल रहा हो। सातोँ रंग मानोँ यही हो। विराग उसे देखता ही रह गया।
कुछ देर बाद वो लड़की वहाँ से जाने लगी। यूँ तो विराग को शुरु से ही लड़कियोँ मेँ कोई खास दिलचस्पी नहीँ थी, पर उस लड़की को देखकर विराग को न जाने क्या हुआ कि विराग भी अपने दोस्तोँ को काम का बहाना बनाके वहाँ से निकल गया। और लड़की के पीछे पीछे चल दिया। कुछ दूर चलने पर जब लड़की को अहसास हुआ कि वो कैटीँन मेँ खड़ा लड़का उसका पीछा कर रहा है, तो वो रुकी और उस लड़के से बोली, 'आप
मेरा पीछा क्योँ कर रहे
हो।' उस लड़की की अवाज मेँ इतना कशिश था कि विराग को कुछ समझ ही नहीँ आया। उस लड़की ने अपना सवाल
पुनः पूछा, 'एक्सक्यूजमी मैँ.. मैँ आपसे पूछ रही हूँ, मैँ कब से देख रहीँ हूँ कि आप मेरा पीछा कर रहे हो।'
विराग का ध्यान टूट गया और घबराकर बोला,
'आप मुझे गलत मत समझिये मैँ आपका पीछा नहीँ कर रहा था। बल्कि मैँ तो आपका पर्स लौटाने आया हूँ जो आप कैँटीन मेँ छोड़ आयी थी।' लड़की ने कहा, 'आई एम सॉरी, मैँ समझी कि आप मेरा पीछा कर रहे हो।'
और वो पर्स लेकर वहाँ से चल दी।
तभी विराग ने उस लड़की से कहा, 'सुनिये, क्या मैँ आपका नाम जान
सकता हूँ?'
'सुरभि, सुरभि पाठक नाम है मेरा' लड़की ने कहा और हल्की मुस्कान बिखेर वहाँ से चली गई।
मोबाईल फोन की घण्टी ने विराग का ध्यान तोड़ दिया।
'हैलो, निकिता' विराग ने कहा।
'हाय विराग, कैसै हो?' निकिता ने कहा।
'बस ठीक हूँ, तुम बताऔँ
कैसी हो?' विराग ने कहा।
ये हाय हैलो का सिलसिला कुछ देर तक चलता रहा। वैसे फोन पर बात शुरु करने
का ये तरीका कितना आसान और बेहतर है।
हाय-हैलो और इधर-उधर की बात करने के बाद निकिता सीधे प्वांईट पर आ गई।
'है..लो.. विराग... म..मैँ कल तुम्हेँ एक सर..र..प्राईज़ देना चाहती हूँ।' थोड़ा हिचिकते हुए निकिता ने कहा।
'क्या?' सोचते हुए जल्दी मेँ विराग बोल बैठा।
'नहीँ, ये तो मैँ तुम्हे कल ऑफिस मेँ ही बताऊँगी।' कन्धे उचकाये और हंसते हुए निकिता कह गई।
'फिर भी..' इतना ही कह पाया विराग तब तक निकिता ने फोन काट दिया था।
विराग और निकिता दोनो बहुत अच्छे मित्र है और एक ही ऑफिस मेँ काम करते है। यूँ तो विराग ने अपनी फ्रेण्ड लिस्ट मेँ
कभी भी किसी महिला को तबज्जोँ नहीँ दिया था।
जब से सुरभि उसकी लाईफ मेँ आयी तब से शायद... और हाँ उसकी मित्रता सूची मेँ अब तक केवल दो ही लड़कियाँ रह
चुकी है। यहाँ रह चुकी शब्द का प्रयोग सिर्फ सुरभि के लिए है।
सुरभि उसकी सिर्फ अच्छी दोस्त
ही नहीँ थी बल्कि उसका प्यार
भी थी। उसका पहला प्यार। दिन। रात। उठते-बैठते। चलते- फिरते ख्वाब थी। उसके दिल पे अपना राज कर चुकी थी वह।
सुरभि की एक अदा उसे बहुत ही लुभाती थी। सामने से नाराज होकर कुछ दूर चलने के बाद मुड़कर एक हल्की मनमोहक मुस्कान जो उसके होँठो और आँखोँ मेँ सन्तुलन कर सबकुछ कह जाती।
कैँटीन की मुलाकात के बाद विराग और
सुरभि की अगली मुलाकात लाईब्रेरी मेँ हुई थी। जहाँ विराग मैँथ की बुक जमा करने गया था और सुरभि केमिस्ट्री की बुक निकलवाने के लिए।
विराग बुक जमा करके मुड़ा ही था कि.. तभी अचानक उसके आगे सुरुभि आ गई।
'ओ.. हाय!' सुरभि ने कहा।
'हाय!' विराग ने कहा।
'सॉरी यार उस दिन मैँ तुम्हेँ गलत समझ बैठी' शर्म और आँखो मेँ लजा के कारण सिर झुकाये सुरभि ने कहा।
'हाँ, लेकिन आप तो उस दिन मुझसे माफी माँग चुकी हो न' झेपते हुए विराग बोला।
'हाँ, लेकिन मैँने सोचा कि...'
बीच मेँ रोकते हुए विराग ने कहा, 'मेँसन नॉट..' यार कहते कहते वो भी रुक गया।
कुछ देर तक दोनो के आस पास से सिर्फ
खामोँशी ही गुजरती रही। 'आपका नाम...? उस दिन मैँ.. जल्दी जल्दी मेँ आपसे पूछना भूल गई थी।'
न सुरभि की अवाज मेँ थोड़ा मृदुपना था और अपनी गलती का अहसास
भी।
'विराग... विराग सक्सेना!' तवाक् से अपना बता दिया विराग ने।
फिर क्या? दोनो मेँ दोस्ती हो गई और वक्त के साथ-साथ प्यार भी। दोनोँ की केमिस्ट्री जमने लगी थी। आये दिन मुलाकाते। फोन से बातें। चैटिंग। आदि का सिलसिला शुरू हो गया।
यादेँ.. यादेँ.. सिर्फ यादेँ। विराग परेशां था। न चाहते हुए भी सुरभि उसके दिमाग के साफ्टवेयर मेँ घुसी चली आ रही थी। यादेँ बनकर।
क्या करेँ...? क्या करेँ...? वो समझ ही नहीँ पा रहा था। बस अपना सिर पकड़े बैठ गया।
फोन की घण्टियोँ ने उसे चौँका दिया। मोबाईल स्क्रीन पर निकिता का नाम उभरकर आ रहा था। 'रात के दो बजे निकिता फोन पे।' अपने आप से कहा।
'ओ.. हैलो, निकिता..!' ऐसी अवाज बनाकर बोला जैसे अभी अभी सो कर उठा हो।
'अरे विराग आज तुमने फेसबुक खोली क्या?' निकिता ऐसी बोली जैसे कि फेसबुक पर आज उसे कोई गिफ्ट मिल रहा हो और वो उसे खोते खोते बचा गई हो।
'नहीँ!' विराग बोला।
'तो खोलो अभी, देखो आज अमित ने कितनी बेहतर कविता पोस्ट की है, और हाँ, तुम्हेँ तो टैग की है उसने' कुछ ज्यादा ही उत्साहित थी वह। और गुड नाईट कहके फोन काट दिया।
अमित.. कविता.. ओ.. हाँ, याद आया। एक मैसेज आया तो था।
उसे आज रात खा लेने वाली लग रही थी। दिमाग काम करना बंद करने लगा था। नीँद जैसे उससे मीलोँ दूर हो। क्या करे वह? समझ नहीँ पा रहा था। आखिरकर लैपटॉप उठाकर फेसबुक खोल के बैठ गया। और टैग पोस्ट पढ़ने लगा।
अमित की कविता-
यूँ वेबजह धोखा देता है तू खुद को
कि ये पल
ये शमां कितने हसीँ है
इनमेँ क्योँ नही रह जाता तू
क्योँ उखाड़ नहीँ फेँकता पुरानी यादेँ
क्योँ घुट-घुट के जी रहा तू
तूझे जीना चाहिए
हसीं ख्वाब लेकर
एक पुकार लेकर
कि तू कभी न रुठेगा खुद से
कि तू कभी न अफसोस करेगा बीते कल पे
कि तू कभी न थमेगा अब से
कि तू...
कविता पढ़ते ही विराग अवाक् सा रह गया। छल्लाने लगा खुद पे। कि कैसे भूल जाऊँ उसे। कि कैसे मिटाऊँ यादेँ उसकी। ये कोई खेल नहीँ कवि महोदय जी जिसे उस वक्त तक याद किया जाता है जब तक कि वो चलता हो।
कवि का क्या वो कुछ भी लिख सकता है। मेरे दिल से पूछो कि क्या बीत रही है मेरे दिल पे। तीन साल का रिस्ता ऐसे खत्म करना कोई मामूली बात है क्या? और फिर वो रिस्ता जो रुह तक गया हो। नहीँ, कवि महोदय नहीँ! ये इतना आसान नहीँ किसी के जीवन मेँ लागू करना।
नहीँ.. नहीँ..!
गुस्से मेँ उसने वो पेज़ हटा दिया और होम पेज़ पर आ गया।
अचानक सुरभि की फ्रेण्ड रिक्वेस्ट देखते ही उसका सारा गुस्सा, बदन पे आया गर्म पसीना ठण्डा गया। और एक कपकपी उसके बदन मेँ दौड़ गई।
सुरभि... वो भी फ्रेण्ड रिक्वेस्ट, इसने तो मुझे ब्लॉक कर दिया था।' असमंजस मेँ पड़के उसने अपने आप से कहा। और तुरंत ही कर्न्फम वाला बटन दबाया।
सुरभि फेसबुक पर ऑनलाईन ही थी।
मैसेज वॉक्स मेँ तब तक एक मैसेज भी आ चुका था। 'आई एम सॉरी विराग, और साथ मेँ उसका कार्टून भी था।'
विराग कभी सोँच भी नहीँ सकता कि जिसने मुझसे न मिलने और बात न की कसम खाई थी।
आज मुझे रिक्वेस्ट और मैसेज़ दोनो एक साथ भेज दिये।'
लैपटॉप को रिफ्रेश किया तब तक निकिता का मैसेज़ आ गया। 'कैसा फील हो रहा है इस समय विराग।'
'मतलब' विराग ने कहा।
तब तक सुरभि का एक और मैसेज़ आ चुका था।
'क्या? अभी तक नाराज हो मुझसे।'
विराग को कुछ समझ नहीँ आ रहा था। ये क्या हो रहा है उसके साथ?
विराग कुछ देर के लिए बीते दिनोँ मेँ चला गया।
'तुम कभी ऐसा कर सकते हो, मैँ कभी सोँच भी नहीँ सकती।' बौखलाते हुए सुरभि ने कहा था।
'आखिर क्या किया मैँने?' सफाई देते हुए विराग ने कहा।
'क्या किया तुमने? ये देखो। देखोँ न।' गुस्से मेँ तेज और लाल-ताल। उसका हाथ पकड़ते हुए बोली।
विराग और निकिता के शादी का कार्ड था वो।
'अरे ये तो बस ऐसी ही.. निकिता ने अपनी शादी का कार्ड छपवाया था। और हाँ, मैँ और निकिता दोनो ही प्रिटिँग प्रेस वाले के पास उसके शादी के कार्ड छपवाने गये थे। प्रेस वाला इतना व्यस्त था कि विशाल का नाम सुन ही नहीँ पाया और मेरा नाम सुनकर, शायद उसने यही नाम नोट कर लिया होगा। तो विशाल की जगह मेरा नाम विराग गलती से छप गया।
'ओह! नो, पहले तुम ये तय करोँ कि तुम झूठ बोल रहे हो या निकिता।' ऐसे बोल रही थी जैसे अपने रिस्ते पर शक हो और रिस्ते को खत्म करने आयी हो।
'तो क्या हुआ उसने कह दिया। और हाँ अब हम दोनोँ शादी कर लेँगे, उसी दिन। उसी मण्डप पे।' सुरभि की चुटकी लेते हुए मजाक के लहजे मेँ विराग ये बात कह गया।
'तो क्या तुम लोग अब शादी करोँ। मैँ जा रहीँ हूँ। और हाँ अब मैँ तुमसे कभी न तो मिलूँगा और न बात करुँगी। शादी कर लेँगे।' बड़बड़ाती हुई चली गई।
अक्सर छोटी छोटी गलतियोँ पर जो मजाक के लहजे मेँ बदल जाती हो पर सुरभि ऐसा ही वर्ताब करके चली जाती। लेकिन इस बार पूरे तीन माह हो गये थे। न तो वो लौटी थी और न ही फोन किया था। और साथ मेँ फेसबुक से ब्लॉक भी कर दिया था।
वो अपनी यादोँ से लौटा तब तक सुरभि के चार मैसेज और निकिता के तीन मैसेज़ स्क्रीन पर उभर आये थे।
'मुझे तुमसे ऐसा वर्ताब नहीँ करना चाहिए था। निकिता ने मुझे बताया कि तुम कई दिनोँ से कुछ ज्यादा ही काम कर रहे हो और चिढ़चिड़ापन को अपने स्वाभाव मेँ ले आये हो। उससे तुम्हारी ये हालत देखी नहीँ गई, तो उसने मुझे कॉन्टेक्ट करके बताया। उस दिन जो भी हुआ उसकी मर्जी से हुआ। वो ये नहीँ जानती थी कि बात यहाँ तक पहुँच जायेगी। वरना वो ऐसा कभी न करती। और हाँ उसने ये भी बताया था कि उसकी वो होने वाली शादी भी टूट गई। वो लोग बहुत लोभी थे। दूसरी जगह अच्छा रिस्ता पाकर विशाल का विवाह वहाँ तय कर दिया।
जब निकिता के घर वालोँ ने एक्शन लिया तो वो उस कार्ड का फायदा उठाकर किनारे हो गये।
इतना सबकुछ हो गया तुम्हारी जिँदगी मेँ और तुमने मुझे बताया तक नहीँ।
तुम मुझे रोक तो लेते एक बार। मुझे कॉन्टेक्ट तो कर सकते थे।
अरे कॉन्टेक्ट कैसे करते मैँने तो अपने सभी कॉन्टेक्ट तुमसे परे हटा लिये थे। एक बार मुझे और माफ कर दो न विराग! प्लीज़ एक बार और यार।
विराग के समझ मेँ कुछ नहीँ आ रहा था। बस 'माफ किया' मैसेज मेँ टाईप कर सुरभि को भेज दिया।
तब तक निकिता का एक मैसेज़ और आ गया, 'क्या? बात हुई सुरभि से कि नहीँ! और हाँ ये तुम्हारा ऑफिस वाला सरप्राईज था। मैँने सोँचा तुम्हेँ कल ऑफिस मेँ बताऊँगी लेकिन सुरभि जिद कर बैठी तो आज तुम्हे बताना पड़ा।
विराग सभी मैसेज़ पढ़ते पढ़ते अपने को रिलेक्स महसूस कर रहा था और साथ मेँ चेहरे पे एक हल्की सी मुस्कान भी ले आया था।
रिप्लाई मेँ विराग ने निकिता को बस थैँस और स्माईली भेज दिया।
! समाप्त !
[नोट- ये कहानी मेरे मित्र 'पलश थोम्ब्रे' के आग्रह करने पर लिखी गई है]
©शक्ति सार्थ्य
shaktisarthya@gmail.com

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