मरने वाला कोई ज़िंदगी चाहता हो जैसे !
विनोद खन्ना आज हमारे बीच नहीं रहे। उनके बारे में मैं जब भी सोचता हूं, उनमें एक बेचैन और भटकती आत्मा के दर्शन होते हैं मुझे। जीवन की तमाम उपलब्धियों से परे अज्ञात की तलाश में निकला हुआ एक व्यक्ति। भारत विभाजन बे बाद भारत आये एक संपन्न व्यापारी परिवार की संतान विनोद खन्ना का दिल व्यापार में नहीं था। उनकी तलाश कुछ और थी। 1968 में सुनील दत्त की फिल्म 'मन का मीत' में एक खलनायक के तौर पर उनकी फ़िल्मी पारी शुरू हुई जो खलनायकी के कई-कई मीलस्तंभ पार करते हुए नायकत्व तक पहुंची। सातवे दशक में वे अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और राजेश खन्ना के साथ हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय नायकों की क़तार में शामिल थे। शिखर कुछ दूर नहीं था, लेकिन यहां भी उनकी तलाश ने भटका दिया। 1982 में सब छोड़-छोड़कर वे पहुंच गए ओशो के आश्रम में। ओशो के जूठे बर्तन धोए, उनके बाग़ के माली बने और उनके सबसे अंतरंग शिष्य भी।आश्रम के उनके समकालीन साधक बताते हैं कि आश्रम के पांच सालों में आध्यात्मिक उपलब्धियों का शिखर उनसे दूर नहीं था जब वे आश्रम त्याग कर घर लौट गए। 1987 में फिल्मों में उनकी वापसी हुई डिंपल के साथ सफल फिल्म 'इंसाफ' से। सफलता का कारवां फिर चल निकला ही था कि न जाने क्या हासिल करने पहुंच गए सियासत की गलियों में। भाजपा के टिकट पर गुरदासपुर से कई बार सांसद बने और अटल सरकार में राजयमंत्री भी। अच्छी सफलता के बावजूद राजनीति उन्हें रास नहीं आई और बीच-बीच में फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं भी करते रहे। 'दबंग-1', 'दबंग-2' और 'दिलवाले' उनकी आखिरी उल्लेखनीय फ़िल्में थीं। एक लंबी बीमारी के बाद दुनिया से बोर होकर आज उन्होंने यह दुनिया भी छोड़ दी और निकल गए एक और यात्रा पर। एक ऐसी अज्ञात यात्रा पर जहां से उनके बारे में अब किसी को कोई खबर नहीं मिल पाएगी !
स्वर्गीय विनोद खन्ना को श्रद्धांजलि ! #VinodKhanna
[फेसबुक से साभार]
©ध्रुव गुप्त
dhruva.n.gupta@gmail.com
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