दिवाली पर प्रकाशक (राजपाल एंड सन्स) ने तोहफ़ा दिया है... और किताब अब आप सबके हाथ में है...
यह सिर्फ एक "स्त्री" की नहीं बल्कि आपकी-मेरी हम सबकी माँ की कहानी है
किताब ऑर्डर करने के लिए लिंक : अमेज़न प्री-बुकिंग लिंक पुस्तक 'मैं से मांँ तक'
हम सभी ने अपनी माँ को माँ बने हुए देखा... माँ बनते हुए नहीं। बच्चे के जन्म के बाद से लेकर उसके परिपक्व हो जाने और उसके भी बच्चे हो जाने तक की यात्रा आजीवन चलती है। घर-परिवार, माहौल, समाज सभी इसमें सहयोगी होते हैं। मगर वे नौ माह जब बच्चा माँ के भीतर उसी का अंग बनकर पलता है, वे दोनों एक ही शरीर की तरह जीते हैं, कैसे होते हैं वे नौ माह? ख़ुशख़बरी मिलने के पहले दिन से लेकर बच्चे के जन्म तक के नौ माह एक बेहद अनोखी और एहसासों के अलग-अलग रंगों से सराबोर यात्रा रहती है।
हिंदुस्तान में आज भी स्त्री के लिए माँ बनना वैसा ही है जैसे जीने के लिए साँस लेना। कोई भी स्त्री माँ 'न बनना' न ख़ुद चुनती है न चुन सकती है। अब बदलते ज़माने में आत्मनिर्भर स्त्री शादी न करना चुनने की हिम्मत जुटाने लगी है, मगर वह अकेली स्त्री भी माँ बनने की ख़्वाहिश रखती है। प्रियंका चौपड़ा ने तो यहाँ तक कह दिया था कि उन्हें एक पुरुष की आवश्यकता सिर्फ अपने बच्चे पैदा करने के लिए है, मगर क्या स्त्री कभी भी इस बात पर
मंथन करती है कि माँ क्यों बनना? कब बनना?
मैंने अपने अब तक जीवन में तीन पीढ़ियाँ देखीं, एक नानी-दादी की जिनके दौर में एक स्त्री 20-22 बच्चे पैदा करती थी या 20-22 बार गर्भवती होती थी, उनमें से कितने बच्चे बचते थे यह उनकी किस्मत और शारीरिक हालत पर निर्भर करता था। मेरे माता-पिता दोनों 9-9 भाई-बहन हैं। फिर हमारी माँओं वाला दौर आया, और बच्चों की अधिकतम संख्या 5 और फिर 2 पर आ गई। अब हमारा दौर है जहाँ अब अधिकांश दंपति एक में ख़ुश हैं। हालांकि अब भी दो बच्चे चाहने वाले बहुत हैं ताकि उनके बच्चों को एक 'सगा' भाई/बहन मिले।
यह सब तो ठीक है मगर कोई भी स्त्री माँ क्यों बनती है? या माँ क्यों बने का कोई जवाब मुझे किसी भी प्रेगनेंसी किताब में नहीं मिला। अपनी प्रेगनेंसी के समय मैंने कई प्रेगनेंसी बुक्स पढ़ीं मगर सभी टेक्निकल बातों पर आधारित थीं। मानसिक स्थिति या एहसासों की बात किसी में भी एक या दो लाइन से ज़्यादा नहीं लिखी होती थी। तब यही लगा कि हमारे यहाँ इन नौ माह को कितना हल्के में लिया जाता है। कोई भी गहराई में उतर कर बन रही माँ और बन रहे पिता के बारे में बात क्यों नहीं करता? वे कैसा अनुभव कर रहे हैं प्रतिक्षण.. उनकी बातें, उनके एहसास, उनकी जिम्मेदारी, उनके सपने, उनकी ज़िंदगी में आने वाले बदलाव ये सब क्यों कहीं नहीं लिखे जाते?
प्रेगनेंसी के दौरान कई ऐसी बातें भी होती हैं जिनके बारे में कोई डॉक्टर, कोई बुजुर्ग महिला ख़ुद से शिक्षा नहीं देती जब तक आपको कोई समस्या न हो जाए। ऐसे में हम कहाँ से जानें?
मेरी यह किताब माँ बनने के उन नौ माहों पर आधारित है जिन्हें आज भी कम से कम हमारे देश में सिर्फ एक बच्चे के जन्म की भविष्यवाणी से जोड़ा जाता है न कि उस स्त्री के शारीरिक और मानसिक उतार-चढ़ावों से। "अरे प्रेगनेंसी में तो ऐसा होता ही है... सबको होता है आप निराली थोड़ी हैं" इस तरह की बातें दुनिया की सबसे सुंदरतम घटना को कितना हल्का बना देती हैं बस इसी अहसास ने मुझे इस किताब को लिखने के लिए उकसाया।
यह किताब सिर्फ प्रेग्नेंट महिलाओं के लिए नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति(महिला/पुरुष) के लिए है जो अपने जीवन के उन नौ माहों के बारे में जानना चाहता है जो उसने अपनी माँ के भीतर उसका अंग बनकर जिए हैं।
उम्मीद है इस किताब में आप सब ख़ुद को और अपनी माँ को कहीं न कहीं ढूँढ पाएँगे।
लेखिका
अंकिता जैन
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