(चित्र साभार : गूगल)
कहां से आता है प्रकाश ?
कहते हैं कि अंधेरे के पास बहुत वक्त होता है, प्रकाश हमेशा जल्दी में होता है। अंधेरा हमारे आसपास हर कहीं बिखरा है। हमारे बाहर भी और हमारे भीतर भी। वह रात के अंधेरे में भी है और दिन के उजाले में भी। हम हर समय उसे महसूस करते हैं। उससे भयभीत होते हैं। उससे मुक्त भी होना चाहते हैं और बार-बार उसकी तरफ लौट भी जाना चाहते हैं। हमारे चारो तरफ रौशनी भी है, लेकिन अंधेरे से हमारी पहचान इतनी गहरी है कि हम उसे अपने भीतर महसूस नहीं कर पाते। वह क्षण भर के लिए कौंधता है और लौट जाता है। अंधेरा शायद हमारे संस्कार और हमारी आदतों में है। हम अंधेरे में प्रकाश की तलाश करते तो हैं, लेकिन जरा देर उसमें रहने के बाद हमें फिर अंधेरे की तलब होने लगती है। अंधेरे के प्रति हमारा आकर्षण बहुत गहरा है। धर्म और अध्यात्म कहते हैं कि प्रकाश हमारा स्वभाव है। अंधेरा और कुछ नहीं, प्रकाश के अभाव का नाम है। हमारा दुनियावी अनुभव कहता है कि हमारा स्वभाव अंधकार है। बिना किसी प्रयास के अंधेरे में पड़े रहना हमें आसान लगता है। प्रकाश को अर्जित करना होता है। उसकी तीब्र इच्छा जगानी होती है अपने भीतर। वह दिख जाए तो उसे पकडे रखना होता है। अगर प्रकाश हमारा स्वभाव होता तो बुद्ध को यह नहीं कहना पड़ता कि अपना दीपक आप बनो। उपनिषदों को बार-बार यह याद नहीं दिलाना पड़ता कि प्रकाश हमारे भीतर ही कहीं छुपा हुआ है। उसे पहचान लें तो ब्रह्माण्ड के सारे रहस्य एक-एककर हमारे आगे खुलते चले जाएंगे। जीसस को यह बताना नहीं पड़ता कि लोग शैतान के बनाए अंधेरे के बंदी हैं। प्रकाश की पहचान ही उन्हें सत्य तक पहुंचा सकती है।
अपने भीतर के प्रकाश को पहचानने, जगाने और उसे प्रज्ज्वलित रखने का उपाय क्या है ? जो धार्मिक है, उनके लिए इस प्रकाश का रास्ता भक्ति, भजन-कीर्तन, मंदिर-मस्जिद, पूजा-पाठ और कर्मकांडों से होकर जाता है। जो आध्यात्मिक है, उनका प्रकाश तक पहुंचने का साधन अनासक्ति, वैराग्य, योग, ध्यान और समाधि है। धर्म और अध्यात्म दोनों की दृष्टि जीवन के प्रति नकारात्मक है। उनके लिए यह संसार मिथ्या है, माया है। जीवन अंधकार है। वह अंधकार जिसमें जाने कितनी सदियों, कितनी योनियों से भटक रहे हैं हम सब। इस मिथ्या संसार में आवागमन से मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण ही प्रकाश है। प्रकाश का यह दर्शन स्पष्टतः जीवन के अस्वीकार का दर्शन है। ध्यान, समाधि, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन मानसिक शांति, एकाग्रता और संतुलन तक के लिए तो ठीक है, उनके माध्यम से अगर आप संसार का अतिक्रमण कर किसी काल्पनिक मोक्ष या परम प्रकाश की तलाश में हैं तो यह छलावा और आत्मरति के सिवा कुछ नहीं। तमाम अस्तित्व, मोह-माया, बंधन, इच्छाओं और गति से परे कोई मोक्ष शून्य की ही कोई स्थिति ही हो सकती है और कोई भी शून्य अस्तित्व या ऊर्जा के पूरी तरह नष्ट हो जाने से ही संभव है। ऊर्जा चाहे जीवन की हो या पदार्थ की, कभी नष्ट होती नहीं। उसका रूपांतरण होता चलता है। हम विराट ब्रह्मांडीय ऊर्जा या कॉस्मिक एनर्जी के अंश हैं। छोटी-छोटी ऊर्जाएं जो अपना रूप बदल-बदलकर सदा इसी प्रकृति में बनी रहेंगी। अगला कोई जीवन हमें इस रूप में शायद नहीं मिले, लेकिन किसी न किसी रूप में मिलेगा जरूर। मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा दिवास्वप्न है। जीवन से पलायन का धर्मसम्मत तरीका। वैसे भी अपनी इस खूबसूरत दुनिया और जन्म-मरण के इस बेहद रोमांचक और चुनौतीपूर्ण चक्र में ऐसी कौन सी कमी है कि कोई मोक्ष की कामना करे ? यह सही है कि जीवन में संघर्ष बहुत हैं, मगर बगैर संघर्ष के कोई उपलब्धि सुख भी तो नहीं देती। सदियों से जारी प्रकाश की हमारी तलाश अगर कभी पूरी होनी है तो इसी जीवन में, इसी संसार में पूरी होनी है। जहां तक विज्ञान की दृष्टि है, वह भौतिक प्रकाश के पार कुछ भी नहीं देख पाता। हमारे भीतर जो कुछ है, वह बाहरी भौतिक उपादानों से ही निर्मित है। उस आंतरिक प्रकाश के लिए उसके पास कोई जगह नहीं जो हमारे समूचे जीवन को एक सकारात्मक दृष्टि और आनंद से आलोकित कर दे।
प्रकाश को अगर पाना है तो हमें अपने भीतर ही उसे पहचानना होगा। वह पहचान में आए तो अंधेरे का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। हमें हर समय और हर कहीं प्रकाश ही दिखेगा। अपने भीतर भी और बाहर भी। दिन में भी और रात में भी। जागृति में भी और निद्रा में भी। सवाल यह है कि हमारे भीतर का वह प्रकाश रहता कहां है ? धर्म और अध्यात्म कहते हैं कि वह इस संसार के पार किसी दूरस्थ आसमान में मौजूद है जिस तक पहुंचने के लिए हमें सांसारिकता के पार जाना होगा। और यह कि उस परम प्रकाश का एक छोटा-सा अंश हमारे ह्रदय के किसी अजाने कोने या मष्तिष्क के किसी रहस्यमय तहखाने में छिपा बैठा है जिसे जगाकर हम उस परम प्रकाश से एकाकार होने की पात्रता हासिल करते हैं। यह दर्शन कल्पना की ऊंची उड़ान के सिवा कुछ नहीं। प्रकाश दरअसल स्वयं को और अपने आसपास की चीजों को देखने, समझने की वह सहज, सरल और ममत्वपूर्ण दृष्टि है जिसे पूजा, योग या आराधना से नहीं, गहरी संवेदना से हासिल किया जा सकता है। उसे पाना है तो इस सोच को अपने भीतर बहुत गहरे उतारना होगा कि हम सब एक ही ब्रह्मांडीय ऊर्जा या कॉस्मिक एनर्जी के अंश हैं और इसीलिए यह समूची सृष्टि ही हमारा विराट परिवार है।
सृष्टि से संपूर्ण तादात्म्य और उस एकत्व से उत्पन्न संवेदना, प्रेम और करुणा ही उस प्रकाश को पाने का एकमात्र रास्ता है। यह संसार माया या मिथ्या नहीं है। अगर कोई ईश्वर है और सच है तो उसकी यह कृति मिथ्या कैसे हो सकती है ? यही हमारा घर है और यही गंतव्य। प्रकाश की हमारी तलाश भी यहीं पूरी होगी। हमारी खूबसूरत प्रकृति उस प्रकाश की प्रतिच्छवि है। सूरज-चांद-तारों में है उसका नूर। जुगनुओं में उसकी टिमटिमाहट। फूलों पर गिरती किरणों में उसकी मुस्कान। बच्चों की हंसी में उसकी मासूमियत। स्त्रियों में उसकी कोमलता और ममत्व। नदी, समुद्र, झरनों की गर्जना और पक्षियों के संगीत के पीछे वही प्रकाश है। बादलों में उसका वात्सल्य है। ओस की पाकीज़ा बूंदों में उसकी करुणा। प्रकृति से संपूर्ण सामंजस्य और उसकी संतानों के बीच परस्पर प्रेम और सहकार से वह प्रकाश प्रस्फुटित होता है। बाहर की जगमगाती रौशनी प्रकाश का भ्रम है। सबके प्रति संवेदना, प्रेम, करुणा और सम्मान में ही उसकी उपलब्धि है। यही उपलब्धि स्वर्ग है, यही मोक्ष और यही निर्वाण। इसे देखने और महसूस करने के लिए दुनिया भर के ज्ञान, धार्मिक कर्मकांड या देह को गला देने वाली साधना की नहीं, छोटे बच्चों की चमकती आंखों और मासूम दिल की दरकार होती है।
[फेसबुक पोस्ट से साभार]
लेखक-
ध्रुव गुप्त
[पूर्व आईपीएस अधिकारी एवं साहित्यकार]
संपर्क-
प्रगति पथ, चतुर्भुज काम्पलेक्स के पीछे, वेस्ट बोरिंग कनाल रोड, पटना-800 001 (बिहार)
dhruva.n.gupta@gmail.com
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