[चित्र साभार-गूगल]
गाँवों से सुदूर शहर में रहने वाले लोग उन्हें हमेशा ओछी नज़रों से देखते आये हैं। उन्हें लगता है कि ये अभी भी पिछड़े हुए है। हां हम ये जरूर कह सकते है कि एक-दो अपवाद को छोड़ दे तो गाँवों के लोग अब भी बेहतर जीवन व्यतीत कर रहे है। जिस तरह से वे लोग प्रकृति से जुड़े हुए है, "कहा जाता है कि प्रकृति इन्हीं के संरक्षण में है"। यदि इन्होंने प्रकृति की चिंता करनी बंद कर दी तो लालची-कार्पोरेट इस प्रकृति को हमसे पलभर में ही छीन ले जायेंगे। उन्हें सिर्फ धन कमाने से मतलब है। वो सिर्फ कृत्रित जीवनशैली पर ही निर्भर है और इसी को प्रमोट करते आये है। कृत्रित जीवनशैली सिर्फ बिमारियां ही तैयार करती है, और इन बीमारियों से लड़ने का साहस निम्न आये वाले व्यक्तियों के बस में बिल्कुल भी नहीं है। यहाँ एक बात तो स्पष्ट होती है कि कार्पोरेट-घराने बिल्कुल भी नहीं चाहते कि प्रकृति को बढ़ावा दिया जाए। हालांकि दिखावे का स्वांग अवश्य रचते आये है, कि वह प्रकृति के संरक्षण मे हमेशा भागी रहे है। ये बात आजतक किसे से नहीं छुपी है कि किस तरह से उन्होंने सरकारी मुलाजिमों को पैसों का लालच देकर प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है।
यदि 'गाँव-देहात' को खत्म कर दिया जाए, तब हम अपनी जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। लोगों को चाहिए कि वह गाँव और उनके वासियों को प्रमोट करें। जिससे गाँवों से हो रहे विस्थापन को रोका जा सके। उनके द्वारा देशी तकनीक से बनाये गये उत्पादों में वृद्धि की जा सके। सही और शुद्ध अनाज निर्मित किया जा सके। जो देश में फैल रही तरह-तरह की बीमारियों से लड़ने में हमारी मदद करें। और सबसे जरुरी गाँवों का विस्तार हो सके। वहाँ के रहने वालेंं नागरिकों की आय में वृद्धि हो सके। नई- नई देशी तकनीक को विकसित किया जा सके। और वो ठीक से शिक्षित भी हो सके। यदि हमारे देश के गाँव तरक्की करेंगे, तो हमारे देश को नई ऊंचाई छूने से कोई भी नहीं रोक सकता। और यदि जब देश प्रगति करेगा तो देश का प्रत्येक नागरिक भी तरक्की की चादर ओढ़ सकेगा।
गाँव-देहात आज भले ही तरक्की की नई-नई ऊंचाई छूने में शहरों की अपेक्षा पीछे हो। किंतु वह दिन दूर नहीं जब शहरी नागरिक गाँव की ओर उन्मुख करेंगे। जब शहरी क्षेत्रों की हवा पूरी तरह से दूषित हो जायेगी तब वहाँ के नागरिकों को गाँव की वैल्यू समझ आयेगी। आज हम जिस तरह से शहर के विकास में निरंतर बढ़ोत्तरी करते जा रहे है, एक दिन यही विकास शहरों को तबाह कर देगा। वहाँ की हवा में ज़हर घोल देगा। दिल्ली जैसे शहरों की प्रदूषित हवा इसका जीता-जागता उदाहरण है।
यहाँ ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं है कि शहरों का विकास नहीं होना चाहिए। शहरों का विकास होना जरुरी है, लेकिन जिस तरह से आंखों पर पट्टी बांध कर शहरों को विकसित किया जा रहा है ये बिल्कुल ही गलत है। जिस तरह से वृक्षों को काटकर वहाँ ऊंची-ऊंची इमारत खड़ी की जा रही है, और उन्हें एयरकंडीशनर का रूप प्रदान किया जा रहा है, ये एक तरह से प्रकृति की हत्या का षणयंत्र रचना हुआ। और जिस शहर में प्रकृति की हत्या हो जाती है, तो वहाँ बीमारियों का उदय होता है। जिसके चलते आम आदमी को शारीरिक कष्टता के साथ-साथ आर्थिक मार भी झेलनी पड़ती। जहाँ एक ओर बेरोजगारी की बढ़ती समस्या के बीच ये समस्या एक असहनीय पीड़ा का प्रतीक है।
गाँव-देहात की खूबसूरती (प्रकृति) को खत्म करने से पहले हमे अपनी आने वाली पीढियों की चिंता अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि इनके बिना हम अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते। अधूरे है हम प्रकृति के बिना। ना तो हम अपनी पीढ़ी को इनके बिना मजबूत खड़ा कर सकते। ना ही हम अपनी आने वाली पीढ़ी को प्रकृति के साक्षात दर्शन करा सकते और न ही उनका महत्व समझा सकते। ना ही हम उन्हें शुद्ध भोजन-पानी दे सकते। ना ही खेल के वो मैदान जहाँ पक्षियों का मधुर संगीत उनकी थकान महसूस ही नहीं होने देता। ना ही नदियों को वो शीतल जल जहाँ वो स्नान करके आनंदित होते। न ही वो स्वादिष्ट फल जिसका ज़ायका मात्र लेने से आत्मिक तृप्ति होती। ना ही वो छायादार वृक्ष जिसकी छांव में चौपाल लगा सकते। और ना ही वो घुमावदार गलियां जहाँ वो अपनी नटखट हरकतों को अंजाम दे सकते।
शहरों का अपना महत्व है। किंतु इसके विस्तार में हमें गाँवों का महत्व नहीं भूलना चाहिए। हमें हमारी विरासत में मिली प्रकृति को नष्ट नहीं करना चाहिए। ना जाने ऐसे कितने उदाहरण है जब शहरों का विस्तार हुआ तब वहाँ की प्रकृति को नजरअंदाज कर दिया। साथ में ऐसे भी कितने उदाहरण है जब शहरों का विस्तार हुआ और प्रकृति में भी विस्तार किया गया। पुराने वृक्षों के संरक्षण के साथ-साथ नये वृक्षों को भी लगाया। जिससे वो शहरों दुनिया के सबसे खूबसूरत शहर बन गये। और वहाँ का जन-जीवन भी विकसित हुआ। लोगों की दिनभर की थकान उस खूबसूरती को निहारने में कहाँ गुम हो गई ये किसी को पता भी नहीं चला। अक्सर ऐसे उदाहरण हमारे 'गाँव-देहात' में देखने को बहुतयात मिल ही जातें है।
[Via- गाँव-देहात]
© शक्ति सार्थ्य
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