(चित्र साभार : गूगल)
रूठना-मनाना
जब तक वो कुछ कहता, वह वहाँ से जा चुकी थी। ये आज पहली बार ऐसा नहीं हुआ था उसके साथ। जब भी वह उससे नाराज हो जाती, ठीक ऐसे ही बिना सफाई सुने चली जाती।
प्रेम में ऐसे रूठने-मनाने के किस्से चलते ही रहते है। अक्सर देखा गया है प्रेम में स्त्रियाँ ही ज्यादा रूठती है, और देर तक मानती भी नहीं है। किंतु ये सच है स्त्रियाँ पुरूषों जितनी कठोर नहीं होती। वो सिर्फ कठोरता का दिखावा करती है। उनका कोमल हृदय किसी से आज तक छिपा नहीं है। पुरूष हमेशा से कठोरवादी रहा है। वो रूठा तो समझो वह वापस आने के सभी रास्ते लॉक कर चुका होता है। अक्सर ये भी सच है पुरूषों में दिखावे का रूठना मनाना आता ही नहीं है। वो इस रूठने-मनाने की कला को हमेशा से बकवास मानता आया है। उसका अपना मत है कि इन छोटी छोटी बातों पर रूठने मनाने में समय की व्यर्थता है।
स्त्रियाँ कभी-कभी समान्य से चल रही जीवनशैली में जानबूझकर रूठने के बहाने तलाश करती रहती है, जिससे उनकी जीवनशैली में कुछ ऐसा हो जिससे वह बोरियत भूलकर मनाने की प्रक्रिया को जी सकें, आनंदित हो सकें। और वे एक दिन अपने इस चक्रव्यूह को रचने में कामयाब भी हो जाती है। और यही वो क्षण होते जब वो अपनी रूठने की कला के जरिये अपनी मनमानी पूर्ण कर पाती है। और वो अपनी सभी दबी ख्वाहिशें खुलकर सामने रख पाती है।
सामान्यतः पुरूष उनके रूठने की सभी साजिशों को जानता है, फिर भी अनजान बना रहता है। यही वो पल होते है जब दोनों अपने-अपने बचपने में लौट जाते है। जहाँ उनकी अधूरी रही ख्वाहिशे जन्म लेती है। ये सच है कि जब हम छोटे होते है तो हम अपने बचपने को समझ नहीं पाते और ना ही ठीक से जी पाते है। वो इसलिए कि हमें उस समय अपने बचपने की कद्र नहीं होती। और ना ही कोई हमें इस ओर इंगित कर पाता, और हम इस तरह उस मूल्यवान समय को यूं ही बेवजह व्यर्थ में जाने देते है। यही वो क्षण है रूठने-मनाने के जिसके जरिये हम अपने बचपने में पुनः वापस जा सकते है।
रूठना-मनाना कोई आज का नहीं है ये युगों-युगों से चला आ रहा। भगवान कृष्ण ने अपने कार्यकाल में गोपियों को कितनी बार मनाया है। स्वंय बालक कृष्ण भी अपनी मैय्या से रूठ जाया करते थे। और उनकी मैय्या उन्हें मनाया करती थी। कभी कभी बालक कृष्ण की मैय्या भी रूठ जाया करती थी और बालक कृष्ण उन्हें मनाया करते थे। ये रूठना-मनाना एक तरह की लीला ही है, जिसे भगवान कृष्ण ने वखूबी खेली थी। जो आज भी प्रासंगिक है।
रूठने मनाने में जो समय खर्च होता है, बाकई में यही वो समय होता है जब हम अपने साथी को सही तरह से जान पाते है और हमारा साथी हमें। यही हमारे प्रेम की मजबूत आधारशिला बनता है। यही हमारे विश्वास का प्रतीक भी होता है। यही हमारे एक होने की वजह होता है। यही हमारे अमरत्व होने का कारण भी। जो हमें जीवन में हर पल संभलकर चलने की ओर प्रेरित करता है।
रूठने-मनाने कि क्रिया को हमारी फिल्मों में भी प्रमुखता से दर्शाया गया है। जिसमे नायिका नायक से रूठ जाया करती है और नायक उसे अपने तरीके मनाता है। ये रूठने मनाने का दृश्य अधिकतर किसी सुंदर गीत के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता रहा है भारतीय फिल्मों में, जिसमें नायक तरह-तरह के लुभावने अभिनय के जरिये नायिका के चेहरे पर मनमोहन मुस्कान उकेरने में सफल होता है। और गीत के अंत में रूठने वाली नायिका बिना किसी डिमांड के आसानी से नायक से प्रेरित भी हो जाती है।
'रूठना-मनाना एक तरह से निस्वार्थ क्रिया है जिसे प्रेम के जीवित रहने के लिये प्रयोग में लाया जाता है।' यदि हमारे भीतर प्रेम जीवित रहता है तो हमें ये संसार हमेशा सुखी नज़र आता है। और हम इस संसार को सुखी बनाने के लिए समय-समय पर नये-नये प्रयोग करने में सफल भी होते रहते है। रूठना-मनाना हमारे जीवनचक्र में हमेशा चलते रहना चाहिए जिससे हमारे पारस्परिक रिश्ते मजबूत नींव के तले निडर होकर ठिके रहें।
© शक्ति सार्थ्य
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