स्तनपान : सार्वजनिक अथवा एकान्त
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स्तन ही बालकों के पोषण का आधार क्यों हैं?
कदाचित् इसके स्थान पर हाथ की उँगली से दूध प्राप्त होता, तो ये अपेक्षाकृत अधिक सरल था। ऊँगली के विषय में सार्वजनिक अथवा एकान्त जैसा प्रश्न नहीं आता। किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। दूध तो केवल स्तनों से ही प्राप्त होता है।
बालकों को स्तनपान ठीक वैसे ही है जैसे पौधों को जल प्रदान करना। पौधे रोपना और उन्हें सींचना, मानव जाति के आरंभिक कार्यों में से एक है। पौधों को सींचने वाले घड़ों की आकृति व बालकों को सींचने वाले स्तनों की आकृति आश्चर्यजनकरूप से समान है।
कालिदास कहते हैं : "अतन्द्रिता सा स्वयमेव वृक्षकान् घटस्तनप्रस्रवणैर्व्यवर्धयत्।" [ कुमारसंभवम् 5/14 ]
इसका शाब्दिक अर्थ है : "आलस्य त्याग कर उन्होंने वहाँ के छोटे छोटे पौधों को अपने स्तनों जैसे घड़ों से सींचा।"
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हालाँकि ये अवांतर प्रसंग अथवा क्षेपक प्रसंग है किंतु केवल शाब्दिक अर्थ ही संस्कृत श्लोकों के मूल अर्थ से परिचित नहीं करवा सकता। इसके लिए छन्द और छन्द की चरित्रिक विशेषतायें अवश्य जाननी चाहिए।
उल्लिखित श्लोक में "वंशस्थ" छन्द है। वंशस्थ के विषय में संस्कृत विद्यार्थियों की जिह्वा पर रहता है : "षाङ्गुण्यप्रगुणा नीतिर्वंशस्थेन विराजते।" अर्थात् "कुल छः प्रकार की के गुण-नीति वर्णन के लिए वंशस्थ छन्द का प्रयोग किया श्रेयस्कर है।"
उपदेशात्मक शैली में इस छन्द का बहुधा प्रयोग है। जिस प्रकार बाँस के डंडे में लगी हुयी छाता अपनी छाया से मनुष्य की कार्यशक्ति को बढ़ा देती है, उसी प्रकार वंशस्थ ने "आतपत्र" की उपाधि दिलाकर महाकवि "भारवि" को चमत्कृत कर कर दिया।
इस छन्द का आदि-परिचय श्रीकृष्ण स्तुति में मिलता है, जहाँ श्लोक का अर्थ है : "जिस श्री कृष्ण ने अपनी मुख वायु से आनंददायक वंशी के छिद्र को फूँककर पंचम राग गाते हुए ब्रजबंधुओं तथा नारद आदि संगीत विशेषज्ञों के घमंड को समाप्त कर दिया, वह श्री कृष्ण हमें पवित्र करें।"
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तो अब पुनः कालिदास की स्तन और घड़ा तुलना पर लौटें तो अधिक सटीक भाव प्राप्त होंगे। छन्द अन्वेषणा और शाब्दिक अर्थ के समायोजन से श्लोक का भाव है : "स्त्री को चाहिए कि वो आलस्य त्याग कर स्तनों का प्रयोग ठीक वैसे ही करे जैसे पौधों के लिए घड़ों का प्रयोग है।"
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"स्तनपान" एक ऐसा कार्य है जिसका कोई प्रशिक्षण बालक को नहीं दिया जाता। स्तन के स्पर्श मात्र से ही बालक अपना कार्य आरंभ कर देता है। कदाचित् इसलिए पूतना ने श्रीकृष्ण की हत्या के लिए अपने स्तनों पर विष लगाया था, चूँकि अबोध बालक सर्वाधिक समीपता स्तनों से रखता है।
इसी बात को सिडमंड फ़्रायड ने कहा, और वो विषय प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कहलाए। तथापि इसी बात को वेदव्यास लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व कह चुके हैं किंतु उन्हें इस बात के लिए श्रेय नहीं मिलता। (इस विषय पर फिर कभी।)
"स्तनपान एकान्त में हो या सार्वजनिक?" -- ये प्रश्न कुल दो जड़ों जुड़ा है।
प्रथम तो ये कि "स्तनों का कार्य दिखना है या बालकों को सींचना?"
और द्वितीय ये कि "स्तनों के दर्शन/छुपने का महत्व यौनिकता के रूप में माता के द्वारा बालक को पोषित करने के रूप में नहीं।"
"अभिज्ञानशाकुन्तम्" में एक प्रसंग है, जिसमें सर्वदमन भरत स्तनपान करते बालक को लगभग घसीटते हुए खींच लेते हैं : "अर्धपीतस्तनं मातुरामर्दक्लिष्टकेसरम्। प्रक्रीडितुं सिंहशिशुं बलात्कारेण कर्षति॥"
ये घसीटना और खींचना कब हुआ?
जब ये स्तनपान खुले में हो रहा था। यदि यही कार्य सिंह अपने आवास में कर रहे होते तो कदाचित् ये न होता। किंतु हम मनुष्य हैं, हम जानवरों से कई चरण आगे की यात्रा तय कर के पुनः उनमें मिलने का प्रयास क्यों कर रहे हैं।
क्यों हो रहा है ये प्रहसनमूलक प्रवाद-पर्व?
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स्तनों की सार्वजनिकता अथवा एकांतता का महत्व "स्तनपान" के विवाद से अलग है। इसके वैज्ञानिक कारण हैं। आज जिन देशों में "स्तनपान" का अनुपात घट गया है, वहाँ गर्भाशय कैंसर के मामले बढ़ गये हैं।
स्तन के अग्रभाग का सीधा संपर्क होता है गर्भाशय की ग्रंथि से। जब स्तन के अग्रभाग पर वायु, स्पर्श अथवा तापमान का प्रभाव पड़ता है तो इसका स्पष्ट परिणाम स्त्री को गर्भाशय पर प्रतीत होता है। कदाचित् इसलिए रतिक्रिया में स्तन का महत्व है।
ऋतुसंहार मे कालिदास ने कहा भी है : "हेमंत ऋतु में शोभनीय सुडोल स्तन का नैशः अतिमर्दन होता है।"
इसलिए स्तन सार्वजनिकता के योग्य नहीं। एकांतता ही स्तनों के लिए श्रेयस्कर है।
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जब लाखों सदी पूर्व मानव जाति को श्रेष्ठता के परीक्षण के लिए जंगलों और समुद्रों से आच्छादित पृथ्वी पर एकाकी छोड़ दिया गया, तो उसने अपने साहस और बुद्धिमत्ता से प्रकृति की आपदाओं और बाधाओं से द्वंद्व किया। वो समय मानव जाति के लिए स्वयं की परीक्षा थी और इक्कीसवीं सदी में सफलतापूर्वक आने का मार्ग।
आज हम पर्याप्त विकसित यहाँ खड़े हैं। किंतु फिर भी प्रजनन के मार्ग वही हैं। आज भी मादायें गर्भ धारण करती हैं, प्रसव होता है और वही स्तनपान।
स्तन संख्या में दो होते हैं, और केवल स्त्री जाति को प्राप्त होते हैं। दोनों की उपस्थिति कुछ यूँ होती है : "मध्ये यथा श्याममुखस्य तस्य मृणालसूत्रन्तरमप्यलभ्यम्" अर्थात् "दोनों के मध्य उतना भी स्थान नहीं, जितना कि एक कमलनात का सूत्र समा सके।"
और जिस कन्या के चित्र पर ये वाद-विवाद चल रहा है, वो स्तनों की इस व्याख्या पर भी खरी नहीं उतरती।
हालाँकि समग्र विश्व के गुरु होने और ज्ञान प्रदान करनेका गर्व धारण करने के बाद अब हम कुछ उत्पादित करने के स्थान पर इस विषय पर बहस कर रहे हैं कि "स्तनपान के समय स्तन को ढाँक के रखा जाए अथवा नहीं?"
अस्तु।
[ पुनश्च : इंदौर में वनों में पार्वती तुकेश्वर महादेव मंदिर है। अहिल्याबाई होल्कर द्वारा जीर्णोद्धार करवाए गये प्राचीन मंदिरों में से एक है। मंदिर का गर्भगृह काफ़ी अंदर होने के बावजूद सूर्यनारायण की पहली किरण मां पार्वती की प्रतिमा पर ही पड़ती है। यहाँ जगन्नमाता पार्वती की सफेद संगमरमर की प्रतिमा है, जिसके एक हाथ में कलश है और गोद में स्तनपान कर रहे बाल गणेश हैं। प्रतिमा के ठीक सामने शिवलिंग है। आज भी माता पार्वती की प्रतिमा को ठीक वैसे ही शृंगार किया जाता है जैसे एक स्तनपान करवाती माँ का वस्त्र विन्यास होता है। मानव सभी जातियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि वो सभ्य है। सभ्यता का नाश होते ही पुनः आदिम युग में होंगे हम। ]
[फेसबुक पोस्ट से साभार]
लेखक-
योगी अनुराग
मथुरा, उत्तर प्रदेश
[ चित्र : इंटरनेट से साभार ]
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