Skip to main content

स्तनपान : सार्वजनिक अथवा एकान्त - योगी अनुराग


स्तनपान : सार्वजनिक अथवा एकान्त
____________________________________

स्तन ही बालकों के पोषण का आधार क्यों हैं?

कदाचित् इसके स्थान पर हाथ की उँगली से दूध प्राप्त होता, तो ये अपेक्षाकृत अधिक सरल था। ऊँगली के विषय में सार्वजनिक अथवा एकान्त जैसा प्रश्न नहीं आता। किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। दूध तो केवल स्तनों से ही प्राप्त होता है।

बालकों को स्तनपान ठीक वैसे ही है जैसे पौधों को जल प्रदान करना। पौधे रोपना और उन्हें सींचना, मानव जाति के आरंभिक कार्यों में से एक है। पौधों को सींचने वाले घड़ों की आकृति व बालकों को सींचने वाले स्तनों की आकृति आश्चर्यजनकरूप से समान है।

कालिदास कहते हैं : "अतन्द्रिता सा स्वयमेव वृक्षकान् घटस्तनप्रस्रवणैर्व्यवर्धयत्।" [ कुमारसंभवम् 5/14 ]

इसका शाब्दिक अर्थ है : "आलस्य त्याग कर उन्होंने वहाँ के छोटे छोटे पौधों को अपने स्तनों जैसे घड़ों से सींचा।"

•••
हालाँकि ये अवांतर प्रसंग अथवा क्षेपक प्रसंग है किंतु केवल शाब्दिक अर्थ ही संस्कृत श्लोकों के मूल अर्थ से परिचित नहीं करवा सकता। इसके लिए छन्द और छन्द की चरित्रिक विशेषतायें अवश्य जाननी चाहिए।

उल्लिखित श्लोक में "वंशस्थ" छन्द है। वंशस्थ के विषय में संस्कृत विद्यार्थियों की जिह्वा पर रहता है : "षाङ्गुण्यप्रगुणा नीतिर्वंशस्थेन विराजते।" अर्थात् "कुल छः प्रकार की के गुण-नीति वर्णन के लिए वंशस्थ छन्द का प्रयोग किया श्रेयस्कर है।"

उपदेशात्मक शैली में इस छन्द का बहुधा प्रयोग है। जिस प्रकार बाँस के डंडे में लगी हुयी छाता अपनी छाया से मनुष्य की कार्यशक्ति को बढ़ा देती है, उसी प्रकार वंशस्थ ने "आतपत्र" की उपाधि दिलाकर महाकवि "भारवि" को चमत्कृत कर कर दिया।

इस छन्द का आदि-परिचय श्रीकृष्ण स्तुति में मिलता है, जहाँ श्लोक का अर्थ है : "जिस श्री कृष्ण ने अपनी मुख वायु से आनंददायक वंशी के छिद्र को फूँककर पंचम राग गाते हुए ब्रजबंधुओं तथा नारद आदि संगीत विशेषज्ञों के घमंड को समाप्त कर दिया, वह श्री कृष्ण हमें पवित्र करें।"
•••

तो अब पुनः कालिदास की स्तन और घड़ा तुलना पर लौटें तो अधिक सटीक भाव प्राप्त होंगे। छन्द अन्वेषणा और शाब्दिक अर्थ के समायोजन से श्लोक का भाव है : "स्त्री को चाहिए कि वो आलस्य त्याग कर स्तनों का प्रयोग ठीक वैसे ही करे जैसे पौधों के लिए घड़ों का प्रयोग है।"

##

"स्तनपान" एक ऐसा कार्य है जिसका कोई प्रशिक्षण बालक को नहीं दिया जाता। स्तन के स्पर्श मात्र से ही बालक अपना कार्य आरंभ कर देता है। कदाचित् इसलिए पूतना ने श्रीकृष्ण की हत्या के लिए अपने स्तनों पर विष लगाया था, चूँकि अबोध बालक सर्वाधिक समीपता स्तनों से रखता है।

इसी बात को सिडमंड फ़्रायड ने कहा, और वो विषय प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कहलाए। तथापि इसी बात को वेदव्यास लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व कह चुके हैं किंतु उन्हें इस बात के लिए श्रेय नहीं मिलता। (इस विषय पर फिर कभी।)

"स्तनपान एकान्त में हो या सार्वजनिक?" -- ये प्रश्न कुल दो जड़ों जुड़ा है।
प्रथम तो ये कि "स्तनों का कार्य दिखना है या बालकों को सींचना?"
और द्वितीय ये कि "स्तनों के दर्शन/छुपने का महत्व यौनिकता के रूप में माता के द्वारा बालक को पोषित करने के रूप में नहीं।"

"अभिज्ञानशाकुन्तम्" में एक प्रसंग है, जिसमें सर्वदमन भरत स्तनपान करते बालक को लगभग घसीटते हुए खींच लेते हैं : "अर्धपीतस्तनं मातुरामर्दक्लिष्टकेसरम्। प्रक्रीडितुं सिंहशिशुं बलात्कारेण कर्षति॥"

ये घसीटना और खींचना कब हुआ?
जब ये स्तनपान खुले में हो रहा था। यदि यही कार्य सिंह अपने आवास में कर रहे होते तो कदाचित् ये न होता। किंतु हम मनुष्य हैं, हम जानवरों से कई चरण आगे की यात्रा तय कर के पुनः उनमें मिलने का प्रयास क्यों कर रहे हैं।

क्यों हो रहा है ये प्रहसनमूलक प्रवाद-पर्व?

##

स्तनों की सार्वजनिकता अथवा एकांतता का महत्व "स्तनपान" के विवाद से अलग है। इसके वैज्ञानिक कारण हैं। आज जिन देशों में "स्तनपान" का अनुपात घट गया है, वहाँ गर्भाशय कैंसर के मामले बढ़ गये हैं।

स्तन के अग्रभाग का सीधा संपर्क होता है गर्भाशय की ग्रंथि से। जब स्तन के अग्रभाग पर वायु, स्पर्श अथवा तापमान का प्रभाव पड़ता है तो इसका स्पष्ट परिणाम स्त्री को गर्भाशय पर प्रतीत होता है। कदाचित् इसलिए रतिक्रिया में स्तन का महत्व है।

ऋतुसंहार मे कालिदास ने कहा भी है : "हेमंत ऋतु में शोभनीय सुडोल स्तन का नैशः अतिमर्दन होता है।"

इसलिए स्तन सार्वजनिकता के योग्य नहीं। एकांतता ही स्तनों के लिए श्रेयस्कर है।

##

जब लाखों सदी पूर्व मानव जाति को श्रेष्ठता के परीक्षण के लिए जंगलों और समुद्रों से आच्छादित पृथ्वी पर एकाकी छोड़ दिया गया, तो उसने अपने साहस और बुद्धिमत्ता से प्रकृति की आपदाओं और बाधाओं से द्वंद्व किया। वो समय मानव जाति के लिए स्वयं की परीक्षा थी और इक्कीसवीं सदी में सफलतापूर्वक आने का मार्ग।

आज हम पर्याप्त विकसित यहाँ खड़े हैं। किंतु फिर भी प्रजनन के मार्ग वही हैं। आज भी मादायें गर्भ धारण करती हैं, प्रसव होता है और वही स्तनपान।

स्तन संख्या में दो होते हैं, और केवल स्त्री जाति को प्राप्त होते हैं। दोनों की उपस्थिति कुछ यूँ होती है : "मध्ये यथा श्याममुखस्य तस्य मृणालसूत्रन्तरमप्यलभ्यम्" अर्थात् "दोनों के मध्य उतना भी स्थान नहीं, जितना कि एक कमलनात का सूत्र समा सके।"

और जिस कन्या के चित्र पर ये वाद-विवाद चल रहा है, वो स्तनों की इस व्याख्या पर भी खरी नहीं उतरती।

हालाँकि समग्र विश्व के गुरु होने और ज्ञान प्रदान करनेका गर्व धारण करने के बाद अब हम कुछ उत्पादित करने के स्थान पर इस विषय पर बहस कर रहे हैं कि "स्तनपान के समय स्तन को ढाँक के रखा जाए अथवा नहीं?"

अस्तु।

[ पुनश्च : इंदौर में वनों में पार्वती तुकेश्वर महादेव मंदिर है। अहिल्याबाई होल्कर द्वारा जीर्णोद्धार करवाए गये प्राचीन मंदिरों में से एक है। मंदिर का गर्भगृह काफ़ी अंदर होने के बावजूद सूर्यनारायण की पहली किरण मां पार्वती की प्रतिमा पर ही पड़ती है। यहाँ जगन्नमाता पार्वती की सफेद संगमरमर की प्रतिमा है, जिसके एक हाथ में कलश है और गोद में स्तनपान कर रहे बाल गणेश हैं। प्रतिमा के ठीक सामने शिवलिंग है। आज भी माता पार्वती की प्रतिमा को ठीक वैसे ही शृंगार किया जाता है जैसे एक स्तनपान करवाती माँ का वस्त्र विन्यास होता है। मानव सभी जातियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि वो सभ्य है। सभ्यता का नाश होते ही पुनः आदिम युग में होंगे हम। ]


[फेसबुक पोस्ट से साभार]


लेखक-
योगी अनुराग
मथुरा, उत्तर प्रदेश



[ चित्र : इंटरनेट से साभार ]

Comments

Popular posts from this blog

भागी हुई लड़कियां (कविता) : आलोक धन्वा

एक घर की जंजीरें कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं जब घर से कोई लड़की भागती है क्या उस रात की याद आ रही है जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी जब भी कोई लड़की घर से भगती थी? बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी? और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के आज अपने ही घर में सच निकले! क्या तुम यह सोचते थे कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए रचे गए? और वह खतरनाक अभिनय लैला के ध्वंस का जो मंच से अटूट उठता हुआ दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था? दो तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं कभी वह खत जिसे भागने से पहले वह अपनी मेज पर रख गई तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से उसका संवाद चुराओगे उसका शीशा उसका पारा उसका आबनूस उसकी सात पालों वाली नाव लेकिन कैसे चुराओगे एक भागी हुई लड़की की उम्र जो अभी काफी बची हो सकती है उसके दुपट्टे के झुटपुटे में? उसकी बची-खुची चीजों को जला डालोगे? उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे? जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से बहुत अधिक सन्तूर की तरह केश में तीन उसे मिटाओगे एक भागी हुई लड़की को मिट...

गजानन माधव मुक्तिबोध की कालजयी कविताएं एवं जीवन परिचय

ब्रह्मराक्षस गजाननमाधव मुक्तिबोध   शहर के उस ओर खंडहर की तरफ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठंडे अँधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन बात गहरी हो। बावड़ी को घेर डालें खूब उलझी हैं, खड़े हैं मौन औदुंबर। व शाखों पर लटकते घुग्घुओं के घोंसले परित्यक्त भूरे गोल। विद्युत शत पुण्य का आभास जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर हवा में तैर बनता है गहन संदेह अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि दिल में एक खटके सी लगी रहती। बावड़ी की इन मुँडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक बैठी है टगर ले पुष्प तारे-श्वेत उसके पास लाल फूलों का लहकता झौंर - मेरी वह कन्हेर... वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का शून्य अंबर ताकता है। बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य ब्रह्मराक्षस एक पैठा है, व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज, हड़बड़ाहट शब्द पागल से। गहन अनुमानिता तन की मलिनता दूर करने के लिए प्रतिपल पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात स्वच्छ करने - ब्रह्मराक्षस...

जनकृति पत्रिका का नया अंक (अंक 33, जनवरी 2018)

#जनकृति_का_नवीन_अंक_प्रकाशित आप सभी पाठकों के समक्ष जनकृति का नया अंक (अंक 33, जनवरी 2018)  प्रस्तुत है। यह अंक आप पत्रिका की वेबसाइट www.jankritipatrika.in पर पढ़ सकते हैं। अंक को ऑनलाइन एवं पीडीएफ दोनों प्रारूप में प्रकाशित किया गया है। अंक के संदर्भ में आप अपने विचार पत्रिका की वेबसाइट पर विषय सूची के नीचे दे सकते हैं। कृपया नवीन अंक की सूचना को फेसबुक से साझा भी करें। वर्तमान अंक की विषय सूची- साहित्यिक विमर्श/ Literature Discourse कविता मनोज कुमार वर्मा, भूपेंद्र भावुक, धर्मपाल महेंद्र जैन, खेमकरण ‘सोमन’, रामबचन यादव, पिंकी कुमारी बागमार, वंदना गुप्ता, राहुल प्रसाद, रीना पारीक, प्रगति गुप्ता हाईकु • आमिर सिद्दीकी • आनन्द बाला शर्मा नवगीत • सुधेश ग़ज़ल • संदीप सरस कहानी • वो तुम्हारे साथ नहीं आएगी: भारत दोसी लघुकथा • डॉ. मधु त्रिवेदी • विजयानंद विजय • अमरेश गौतम पुस्तक  समीक्षा • बीमा सुरक्षा और सामाजिक सरोकार [लेखक- डॉ. अमरीश सिन्हा] समीक्षक: डॉ. प्रमोद पाण्डेय व्यंग्य • पालिटिशियन और पब्लिक: ओमवीर करन • स्वास्थ्य की माँगे खैर, करे सुबह की...

भारतीय शिक्षा प्रणाली - शक्ति सार्थ्य

[चित्र साभार - गूगल] कहा जाता है कि मानसिक विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य होता है, जिससे वह व्यक्ति अपने विकास के साथ साथ देश के विकास में भी मुख्य भूमिका अदा कर सके। अब सवाल उठता है कि- क्या भारत की शिक्षा प्रणाली हमारे मानसिक विकास के लिए फिट बैठती है? क्या हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय या फिर स्कूल छात्रों के मानसिक विकास पर खरा उतर रहे है?  क्या वह छात्रों को उस तरह से शिक्षित कर रहे है जिसकी छात्रों को आवश्यकता है? क्या छात्र आज की इस शिक्षा प्रणाली से खुश है? क्या आज का छात्र रोजगार पाने के लिए पूर्णतया योग्य है? असर (ASER- Annual Status Of Education Report) 2017 की रिपोर्ट बताती है कि 83% Student Not Employable है। इसका सीधा सीधा अर्थ ये है कि 83% छात्रों के पास जॉब पाने की Skill ही नहीं है। ये रिपोर्ट दर्शाती है कि हमारे देश में Youth Literacy भले ही 92% प्रतिशत है जो अपने आप में एक बड़ी बात है, लेकिन हमारी यही 83% Youth Unskilled भी है। जहाँ हमारा देश शिक्षा देने के मामले में हमेशा अग्रणी रहा है, और उसमें भी दिन-प्रतिदिन शिक्षा ...

कुकुरमुत्ता (कविता) - सुर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

कुकुरमुत्ता- एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए देशी पौधे भी उगाए रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता पहाड़ी से उ...

तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड (कहानी) - तरुण भटनागर

तेरह नंबर वाली फायर ब्रिगेड (कहानी)/                              कहते हैं यह एक सच वाकया है जो यूरोप के किसी शहर में हुआ था।          बताया यूँ गया कि एक बुजुर्ग औरत थी। वह शहर के पुराने इलाके में अपने फ्लैट में रहती थी। शायद बुडापेस्ट में, शायद एम्सटर्डम में या शायद कहीं और ठीक-ठीक मालुमात नहीं हैं। पर इससे क्या अंतर पडता है। सारे शहर तो एक से दीखते हैं। क्या तो बुडापेस्ट और क्या एम्सटर्डम। बस वहाँ के बाशिंदों की ज़बाने मुख्तलिफ हैं, बाकी सब एक सा दीखता है। ज़बानें मुख्तलिफ हों तब भी शहर एक से दीखते रहते हैं।             वह बुजुर्ग औरत ऐसे ही किसी शहर के पुराने इलाके में रहती थी, अकेली और दुनियादारी से बहुत दूर। यूँ उसकी चार औलादें थीं, तीन बेटे और एक बेटी, पर इससे क्या होता है ? सबकी अपनी-अपनी दुनिया है, सबकी अपनी अपनी आज़ादियाँ, सबकी अपनी-अपनी जवाबदारियाँ, ठीक उसी तरह जैसे खुद उस बुजुर्ग औरत की अपनी दुनिया है, उसकी अपनी आज़ादी। सो साथ रहने का ...

हम अपनी ब्रेन पर इन्वेस्टमेंट क्यों और कैसे करें - शक्ति सार्थ्य

मित्रों आज के दौर को देखते हुए मैं आप सभी पर अपनी एक सलाह थोपना चाहूंगा। मुझे ये सलाह थोपने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी ये आप लेख को अंत तक पढ़ते पढ़ते समझ ही जायेंगे। पिछले कुछ दिनों से मेरा एक परम-मित्र बड़ी ही भंयकर समस्या में उलझा हुआ था। उसके खिलाफ न जाने किन-किन तरहों से साजिशें रची जा रही थी, कि वह अपने मुख्य-मार्ग से भटक जाये। उसका एकमात्र पहला लक्ष्य ये है कि वह अपनी पढ़ाई को बेहतर ढंग से सम्पन्न करे। कुछ हासिल करें। समाज में बेहतर संदेश प्रसारित करें। वो मित्र अभी विद्यार्थी जीवन निर्वाह कर रह रहा है। वह अपने परिवार और समाज को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य के प्रति वचनबद्ध है। उसकी सोच सिर्फ अपने को जागरूक करने तक ही सीमित नहीं है अपितु समाज को भी जागृत करने की है। जिससे कुछ भोले-भाले अभ्यर्थियों को सही दिशा-निर्देश के साथ-साथ उन्हें अपने कर्त्तव्यों का सही-सही पालन भी करना आ जाए। किंतु इसी समाज के कई असमाजिक सोंच रखने व्यक्ति जो सिर्फ दिखावे की समाजिक संस्था में गुप्त रूप से उनके संदेशों को मात्र कुछ रूपयों के लालच में आम जनों तक फैलाने में कार्यरत हैं। जिससे वह व्यक्त...