त्रिपुरा के चुनाव परिणाम को मैं भाजपा की जीत से अधिक वामपन्थी पार्टियों की हार के रूप में देखता हूँ। भाजपा अभी अपने स्वर्णिम काल में है, जब त्रिपुरा जैसे छोटे राज्य में हार-जीत उसके लिए कोई बड़ा अर्थ नहीं रखती। देश के अस्सी प्रतिशत भाग पर लहराता भाजपा का ध्वज उसकी दशा दिशा बताने के लिए पर्याप्त है, पर किसी समय देश की प्रमुख विपक्षी दल रहीं वामपन्थी पार्टियों का देश से सफाया होना विमर्श का एक बड़ा और आवश्यक मुद्दा छोड़ गया है। भारत जैसे देश में वामपन्थ अपने प्रचारित अर्थों के साथ कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता, पर माणिक सरकार जैसे स्वच्छ और निर्विवाद नेता के होते हुए पराजित होना बताता है कि भारतीय वामपन्थ अपनी राह से पूरी तरह भटक चुका है।
गरीब, पिछड़े और मजदूर की बात करना वामपन्थ का मूल सिद्धांत रहा है, पर आप यदि मोन पारें तो पाएंगे कि पिछले तीस पैंतीस वर्षों में वामपन्थियों ने कभी भी गरीब, मजदूर या किसान के मुद्दे पर कोई आंदोलन नहीं किया। उन्होंने यदि आंदोलन किया भी, तो सार्वजनिक रूप से एक दूसरे को चूमने के लिए किया, देश के टुकड़े कर सकने की स्वतंत्रता के लिए किया, एनजीओ के पैसे से शराब पीने की आजादी के लिए किया, या स्त्री को सार्वजनिक रूप से नग्न करने के लिए किया। सीधे शब्दों में कहें तो वामपन्थियों ने केवल नौटंकी की है, कभी भी किसान मजदूर की बात नहीं की।
अगर वामपन्थियों ने कभी किसान या मजदूर के मुद्दे पर काम किया होता, तो मात्र चालीस वर्ष पूर्व तक लगभग आधे उत्तर भारत को रोजगार देने वाला बंगाल पूरे देश में ऑर्केस्ट्रा के लिए लड़की सप्लाई करने वाला राज्य नहीं बनता, ना हीं सबसे सस्ते मलदहिया मजदूर सप्लाई करने वाले राज्य के रूप में पहचान बनाता। वामपन्थियों ने यदि मजदूरों की बात की होती तो त्रिपुरा में आज भी मजदूरों का वेतन देश के अन्य भाग से पच्चीस वर्ष पुरानी दर से नहीं मिलता।मात्र चालीस वर्ष पूर्व तक उत्तर प्रदेश, बिहार के मजदूर रोजगार की खोज में बंगाल या उत्तर पूर्व के राज्यों में ही निकलते थे, पर वामपन्थियों की बेकार नीतियों ने तीस वर्ष में ही बंगाल को बेरोजगारी का गढ़ बना दिया। भारत के पुनर्जागरण को दिशा देने वाले विद्यासागर, परमहंस, विवेकानंद, राजा राममोहन राय आदि का सभ्य बंगाल यदि दंगाग्रस्त बंगाल बन कर रह गया है तो यह वामपन्थियों की अदूरदर्शी नीतियों की ही देन है। ऐसे में यदि सामान्य प्रजा का इनसे मोहभंग होता है, तो इसमें आश्चर्यजनक क्या है।
झूठे और बकवास तर्कों के बल पर आतंकवादियों का समर्थन, धर्मपरिवर्तन कराने में ईसाई मिशनरियों का सहयोग, देश को गृहयुद्ध की ओर धकेलने के लिए चीन के सहयोग से माओवादी आतंकवाद को बढ़ावा देने जैसे कार्यों से इन्होंने न केवल सामान्य प्रजा का विश्वास खो दिया, साथ ही वैकल्पिक राजनीति की सम्भावनाओं की हत्या भी कर दी।
जिस सांस्कृतिक पुनर्जागरण के नाम पर वामपन्थी इस तरह की उलूल जुलूल क्रियाएं करते हैं, उनके कथित महान विचारक काल मार्क्स के अनुसार वह पुनर्जागरण का अंतिम चरण है जो आर्थिक और सामाजिक बराबरी मिल जाने के बाद प्रारम्भ होता है, पर भारत के इन विदूषकों ने सबसे पहले यही करना प्रारम्भ कर दिया। मुझे यह कहने में बिल्कुल भी झिझक नहीं कि जिस देश मे धर्मपरिवर्तन कराने के लिए ईसाई मिशनरियां किसी भी स्तर पर उतर जाती हों, उस देश में हिन्दुओं की परम्पराओं पर एकतरफा प्रहार बौद्धिकता नहीं, दलाली है। और यह दुर्भाग्य ही है कि वामपन्थी पिछले पचास वर्षों से यही दलाली करते रहे हैं।
भारत जैसे देश में जहाँ आज भी किसान और श्रमिक सबसे निम्न स्तर का जीवन जीने और आत्महत्या करने के लिए विवश हैं, वहां वामपन्थ के लिए सबसे ज्यादा संभावनाएं हैं, पर मुफ्तखोरी के आदी हो चुके मूर्खों को यह बात बिल्कुल भी समझ में नहीं आती।
खैर! त्रिपुरा में भाजपा की जीत ने असंख्य आशाओं को जन्म दिया है। आशा करता हूँ कि सत्तर वर्षों से निरन्तर सत्ता की सहायता से हो रहे ईसाई आक्रमण से स्वयं की रक्षा कर लेने वाले त्रिपुरा के नाथपंथियों के अच्छे दिन आएंगे और उनकी प्राचीन संस्कृति पर होने वाले वेटिकन प्रहार बन्द होंगे। आशा करता हूँ कि उत्तर-पूर्व में मजबूत होती भाजपा ईसाईकरण को रोकने के प्रयास करेगी। आशा करता हूँ कि नागालैंड को इटली होने से रोका जा सकेगा।
[फेसबुक पोस्ट से साभार]
लेखक-
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार
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