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एक रात की मेहमान (कहानी) - मालती मिश्रा


कहानी- एक रात की मेहमान 

जेठ की दुपहरी थी बाहर ऐसी तेज और चमकदार धूप थी मानों अंगारे बरस रहे हों ऐसे में यदि बाहर निकल जाएँ तो ऐसा लगता मानो किसी ने शरीर पर जलते अंगारे रख दिए, घर के भीतर भी उबाल देने वाली गर्मी थी, अम्मा, दादी, छोटी दादी और मंझली काकी सब हमारे ही बरामदे और गैलरी में बैठे थे क्योंकि गैलरी दोनों ओर से खुली होने के कारण अगर पत्ता भी हिलता तो गैलरी में हवा आती थी, बाबूजी और छोटे काका बरामदे से उतरकर जो आम का छोटा सा पेड़ था उसी की छाँव में चारपाई पर बैठे बतिया रहे थे। मैं और मेरे तीनों छोटे भाई अम्मा के डर से सोने की कोशिश कर रहे थे, कितनी भी गर्मी हो हम तो खेल-खेल में सब भूल जाते थे पर घर के बड़े हम बच्चों की भावनाओं को समझे बिना ही जबरदस्ती 'लू लग जाएगी' कहकर सुला देते, कितना कहा था अम्मा से कि धूप में नहीं खेलेंगे, काका की घारी में खेल लेंगे पर वो भला कहाँ मानने वाली थीं, डाँट-डपट कर सुला दिया। बीच-बीच में भाई कोहनी मारता अम्मा सो गईं? 
"चुप, वो बैठी हैं।" कहकर मैं आँखें मूंदकर सोने का उपक्रम करती। तभी बाहर से बातों की आवाजें पहले की अपेक्षा कुछ तेज हो गईं, बाबूजी की आवाज़ आ रही थी। शायद कोई मेहमान आया है, अम्मा बाबूजी और दादी की मिली-जुली आवाजें सुनकर मैंने अंदाजा लगाया। फिर क्या था मैं भूल गई अम्मा की डाँट और उठकर बरामदे में आ गई तो देखा एक महिला.. नहीं लड़की सिर झुकाए बैठी है, उसके गाल आँसुओं और पसीने से भीगे हुए हैं और हमारे घर की सभी स्त्रियाँ उसे घेरकर बैठी हैं, मंझली काकी पंखा झल रही थीं। बाबूजी बोले-"हमने तो जब ये छोटी थी तब देखा था इसीलिए पहचाने नहीं,  हमें लगा इतनी दुपहरी में कौन आ सकता है भला, वो भी ऐसी हालत में!" 'ऐसी हालत में!' मेरा माथा ठनका तो मैंने फिर एक नजर उस लड़की पर डाली, वह गर्भवती थी। मैं इतनी बड़ी नहीं थी कि गर्भावस्था की समस्याओं को समझ पाती लेकिन अगर बाबूजी ऐसा बोल रहे हैं तो निस्संदेह परेशानी की बात होगी। 
"पता नहीं कितने पत्थर दिल हैं निगोड़े जो जरा भी दया नहीं आई ऐसी हालत में भी।" कहते हुए मंझली काकी मानो रो ही पड़ीं। छोटी काकी भी आ गई थीं उस आगंतुक के लिए लोटे में पानी और दउरी (मूंज और कुश की बनी प्लेट के आकार की छोटी टोकरी) में गुड़ की दो-चार डली रखकर लाईं। "लो पानी पी लो और रोओ नहीं अब, ये भी तुम्हारा ही घर है।" अम्मा बोलीं। 
मैं चुपचाप बैठी सबकी बातें सुनकर माजरा समझने का प्रयास कर रही थी। कुछ देर के बाद जो कुछ मैंने समझा वो ये था कि वो लड़की मेरे बाबूजी के ममेरे भाई की बेटी थी ससुराल में पति से या शायद पूरे परिवार से झगड़ा हुआ उन लोगों ने उसे घर से निकाल दिया। बेचारी ऐसी दयनीय स्थिति में बिना कोई सामान, बिना पैसे के पैदल चलती हुई यहाँ तक आ पाई थी, उसका मायका यहाँ से भी दो-तीन कोस की दूरी पर था इसलिए वो यहीं आ गई थी। उसके पति के द्वारा दी गई गालियों को काकी ये कहकर नहीं बता पाईं कि इतनी गंदी गालियाँ वह ज़बान पर नहीं ला पाएँगी। सारी आपबीती जान बाबूजी भड़क गए बोले- बुलाओ कैलाश (लड़की का पिता) को और उस लड़के को यहीं बुलाओ हम देखते हैं कितना बड़ा तीसमार खाँ है साला, हिम्मत कैसे हुई उसकी इसे हाथ लगाने की!" बाबूजी का क्रोध देख मेरे क्रोध को भी बल मिला मेरा भी मन कर रहा था कि अपनी पत्नी पर अत्याचार करने लाला वो शख्स मेरे सामने आ जाए तो उसे उसकी सही जगह दिखा दूँ हालांकि मैं भी जानती थी कि मैं कुछ नहीं कर सकती, परंतु बहुत खुशी हुई थी साथ ही गर्व भी कि मेरे बाबूजी अन्य लोगों की तरह बेटी पर हुए अत्याचार को चुपचाप सहने वालों में से नहीं थे। 
मेरा इंतजार समाप्त हुआ, छोटे काका जाकर शाम तक कैलाश काका को बुला लाए थे। मैं बेचैन थी ये देखने के लिए कि कैलाश काका के दामाद को बुलाकर बाबूजी उसकी कैसे खबर लेते हैं। रातभर कैलाश काका हमारे ही घर रुके, दूसरे दिन उनके दामाद को भी बुलाया गया, हम बच्चे बड़ों की बातें नहीं सुन सकते खासकर जहाँ सिर्फ पुरुष हों, इसलिए मैं उन लोगों के बीच की बातें न जान पाई, पर मैं जानती थी कि मेरे बाबूजी अब उन दीदी को उनकी ससुराल तो नहीं जाने देंगे, अब पता चलेगा महाशय को कि पत्नी पर हाथ उठाने का नतीजा क्या होता है। 
उनके बीच क्या बातें होती रहीं मुझे कुछ पता नहीं चल पाया किंतु दोनों ही ओर सुगबुगाहट और खलबली सी महसूस होती रही। कभी दूर से ही उन दीदी की आँखों से बहते आँसू देखा तो कभी मंझली काकी का गुस्से से तमतमाया चेहरा। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे महिला और पुरुष दो टोलियों में बँट गया हो पर फिर भी मुझे पता था मेरे बाबूजी ने कभी गाली देने वाले को माफ नहीं किया, फिर इसने तो गाली, मारपीट सब की थी, बस संशय था तो एक ही कि वह मेरे बाबूजी की अपनी नहीं किसी अन्य की बेटी थी तो निर्णय भी किसी अन्य का  ही माना जाएगा। 
शाम होने वाली थी दीदी तैयार हो रही थीं नई साड़ी पहनकर पैरों में महावर, बिंदी, सिंदूर लगाकर दुल्हन सी लग रही थीं, विदाई होने लगी वो दादी, अम्मा और दोनों काकी के गले लगकर खूब रोईं। मैंने अम्मा से कहा- "ये अपने माँ-बाप के घर ही तो जा रही हैं, इन्हें तो खुश होना चाहिए, फिर रो क्यों रही हैं?" 
माँ-बाप के घर कैसे जा सकती हैं? शादी करके माँ-बाप ने तो जैसे पल्ला झाड़ लिया होता है न, मर्दों की दुनिया है वही हमारा भगवान है, मारे-कूटे, गाली बके चाहे जान से मार डाले, हम औरतों को सब कुछ सहन करके अपनी बलि देने के हमेशा तैयार रहना पड़ता है।" काकी का क्रोध मानो फूट पड़ा।
मैं अवाक् खड़ी कभी उन दीदी को देख रही थी जो बेबस, निरीह उस बकरी सी प्रतीत हो रही थीं जिसे सजा-धजा कर बलि के लिए ले जाया जा रहा हो और कभी अपने बाबूजी और कैलाश काका को।

लेखिका 
मालती मिश्रा, दिल्ली
malti3010@gmail.com

Comments

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