(चित्र साभार -गूगल)
स्त्री का संघर्ष और चिंतन
(मीरा और श्रृंखला की कड़ियों के संदर्भ में)
आज हमें यह परखने की जरूरत है कि क्या महिलाएं अपनी सामाजिक-आर्थिक रूढ़ियों से स्वतंत्र हो सकी हैं? यदि हां तो कितनी? और यदि नहीं हो सकी हैं तो क्यों? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए हमें बार-बार अपना इतिहास याद आता है और वे ऐतिहासिक नारियां याद आती हैं। मीरा, सुभद्रा कुमारी चौहान, झांसी की रानी, महादेवी वर्मा आदि जिन्होंने सामाजिक विरोध का सामना करते हुए अपना जीवन यापन किया और नारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। आज हमें इन्हीं से अपनी प्राणशक्ति प्राप्त करना होगी और इन्हीं के कर्मो को अपने जीवन में उतारना होगा। तभी हमें संघर्ष करने की शक्ति प्राप्त हो सकती है।
अक्सर स्त्रियां सामाजिक आर्थिक रूप से संघर्ष करती हुई मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या तक करने के उतारू हो जाती है। लेकिन यह कोई समाधान नहीं है। हम स्त्रीयों को संघर्ष करके ही जीना होगा। आज हमें मीरा जैसी सशक्त व संघर्षशील महिलाओं की जरूरत है तथा हमें आज मीरा को अपने अंतर में उतारने की जरूरत है। आज मीरा को स्त्री विमर्श में शामिल किया जाने लगा है, मीरा आज सबसे ज्यादा प्रासांगिक है। जब मीरा को राणा जैसे राजा या कहें कि पूरे सामंती समाज ने कष्ट व उलाहना दिए, तब मीरा ने आत्महत्या की कोशिश नहीं की, बल्कि उनके खिलाफ संघर्ष किया। मीरा को आज से कहीं ज्यादा सामंती समाज मिला था। मीरा के पति भोजराज की मृत्यु के बाद समूचा राणा राजपरिवार उनका अभिभावक बन बैठा। मीरा के कृष्ण भक्ति व साधु संगति उन्हें रास नहीं आयी। वे मीरा के प्रति निमर्म होते चले गए। किंतु मीरा एक निर्भीक चेतनापूर्ण नारी थीं। उन्होंने अडिग रह कर राणा के अत्याचारों का सामना किया।
आज के संदर्भ में कहते है कि स्त्री का रूप बदला है स्त्री नई व बदली हुई नज़र आती है। लेकिन स्त्री की नयी छवि में एक पुरानी दबी-ढकी, डरी हुई स्त्री उसके साथ खड़ी रहती है तथा कदम कदम पर उस पुरानी स्त्री को संघर्ष करते हुए चलना पड़ता है। विख्यात लेखिका सिमोन द बोउआर का कथन ‘मुक्ति की शुरूआत बटुए से होती है’ का अर्थ सिर्फ आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है। आज स्त्री यह नहीं चाहती कि वह मुक्त हो कर अकेली रहे। आज नारी स्वतंत्रता को गलत अर्थ में लिया जाता है कि वह मुक्त होकर अकेली रहना चाहती है भारत में नारी मुक्ति को पश्चिम की नारी मुक्ति से जोड़ कर देखा जाता है जैसे अमेरिका में स्त्रियों ने स्वतंत्रता के लिए अपनी ब्रा को हाथों में लेकर प्रर्दशन किया था, भारत में वैसी स्वतंत्रता की मांग नहीं है। वैसा उन्मुक्त स्वछंद जीवन तो भारत की स्त्रियों को मंजूर ही न हो। भारत की सामाजिक परिस्थितियां पश्चिम के समाज से भिन्न हैं। क्यों हम मीरा के संघर्ष को नहीं देखते? नारी के संघर्ष को यदि हम मीरा के संदर्भ में देखेगें तो ही समझ पायेंगे कि मीरा जैसी राजघराने की बेटी और राणा के परिवार की पुत्र-वधू ने संघर्ष को जो रास्ता अपनाया और उसी पर अडिग रहीं। कृष्ण भक्ति के अपने मनचाहे रास्ते पर चलने के लिए उन्होंने राणा का भेजा हुआ विष तक का पान किया। क्यों? क्योंकि उनमें कृष्ण के प्रति सच्ची श्रद्धा थी। कृष्ण की लगन थी। राणा ने उन्हें तरह तरह से बांधने की कोशिश की लेकिन मीरा में मुक्ति की छअपटाहट इतनी तीव्र थी कि वे किसी बंधन में न बंध सकी और कृष्ण में ही लीन रहीं। आज उनकी वही चेतना आज की स्त्री के लिए प्रेरक है
‘सिमोन द बोउआर’ का एक अन्य कथन कि- ‘‘औरत पैदा नहीं होती, औरत बनायी जाती है’’ लेखिका या यह कथन मीरा पर सटीक बैठता है। समाज, परिवार ने उन्हें भी संस्कार में बंधी, मर्यादा में रहने वाली औरत ही बनाया था लेकिन मीरा ने अपनी इस स्थिति को अस्वीकार कर दिया। यदि मीरा सामंती समाज की रूढ़ियों के नीचे दब कर औरत बन जाती तो मीरा न बन पाती। लेकिन मीरा को सामंती समाज में औरत बनना मंजूर ना था। पितृसत्तात्मक व्यवस्था तो अपने हितों के लिए समाज में औरत बनाने का काम करती ही है। कहते हैं कि औरत के लिए ज़माना, समाज कभी नहीं बदलता, लेकिन मीरा जैसी दृढ़प्रतिज्ञ स्त्रियां आज इसे बदल कर दिखा रही हैं। जिस तरह तत्कालीन सामंती प्रथाओं और जड़ पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरोध में मीरा का स्वर विद्रोही हुआ, आज की समकालीन स्त्रियों का स्वर क्यों मुखर नहीं हो सकता। मीरा भगवद् प्रेम के द्वारा क्रांति का बिगुल बजाना चाहती थीं। मुक्ति की चाह ने ही मीरा को एक विद्रोही स्त्री का रूप दिया। उन्होंने न परिवार न समाज की परवाह की।
हर रचना अपने परिवेश व युग का आईना होती है। मीरा भी अपने उसी सामंती युग की देन हैं। स्त्रियों के प्रति कू्रर समाज में ही मीरा का निर्माण हुआ था तथा उन्होंने सामंती समाज से लोहा लिया और अपने परिवेश की स्त्रियों में नृशंस व्यवस्था से छुटकारा पाने की अलख जागायी। राणा का कोई भी यत्न उन्हें कृष्णभक्ति से नहीं रोक पाया। यहां तक कि राणा ने अपने स्वतंत्र आचरण की घोषणा करने वाली मीरा को बदनाम करने की पूरी कोशिश की लेकिन कृष्ण के प्रति दृढ़ अनुरक्ति ने मीरा के व्यक्तित्व को अद्भुत आत्मविश्वास दिया। तभी मीरा ने कहा- ‘‘राणा जी म्हाने या बदनामी लागे मीठी
कोई निन्दो कोई बिन्दो मैं चलूंगी चाल अनूठी।’’
मीरा अपने समय के समाज का सामंती पतनशीलता से संर्धष करती हुई एक निर्भीक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में भक्तिकाल में अपनी अलग छाप छोड़ती हैं। उनमें एक असाधारण स्त्री के गुण व त्याग का विवेक है। उनका संघर्ष असत्य, अन्याय व असहिष्णुता से है और राणा में ये तीनों ही गुण थे। इस तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए जब मीरा जैसी राजसी लेकिन असहाय अकेली स्त्री ने संघर्ष किया तो आधुनिक नारी के पास तो सुविधायें मौजूद हैं, वह अपनी इच्छाशक्ति के बल पर नारी मुक्ति के स्वप्न को साकार कर सकती है। इसी मुक्ति की जीवनधारा को हासिल करने के लिए आज मीरा का स्मरण करना होगा। मीरा जैसी मुक्ति की इच्छाशक्ति आज की स्त्री के पास भी है इसलिए मीरा आज ज्यादा प्रसांगिक हैं। आज की स्त्रियों को मीरा से नयी चेतना व नया संदर्भ प्राप्त करने ही होंगे व एक बार फिर से नई मीरा बनना ही होगा। आज न जाने कितनी मीराओं की जरूरत है यूं तो प्रत्येक नारी में मीरा छिपी हुई है बस उसे पहचानने भर की देर है।
1942 में लिखी गई महादेवी वर्मा जी की कृति ‘श्रृंखला की कड़ियां’ नामक पुस्तक आज इतनी प्रासांगिक है कि आज के सारे प्रश्न महादेवी ने अपने समय में ही खड़े कर दिए थे। उन्होंने अपनी पुस्तक की ‘अपनी बात’ में कहा-‘‘कि वास्तव में अंधकार स्वंय कुछ न होकर आलोक का अभाव है इसी से तो छोटे से छोटा दीपक भी उसकी सघनता को नष्ट कर देने में समर्थ है’’ अर्थात् स्त्री पर अमानवीयता या अत्याचार तभी तक हो रहा है जब तक वह स्वयं मातहत बन कर अत्याचार सहेगी। उसे अपना दीपक स्वयं ही बनना होगा जैसे डा0 अम्बेडकर ने कहा-अप्पः दीपो भव। आज स्त्री को यह अपेक्षा नहीं रखनी होगी कि कोई आ कर उसके जीवन का अंघेरा दूर करेगा और जिस दिन स्त्री ने यह बीड़ा उठा लिया उस दिन कोई उसे रोक नहीं पायेगा। महादेवी जी ने इस पुस्तक में आज की स्त्रियों के अनेक प्रश्न उठाये हैं साथ ही उनका समाधान भी दिया है। उन्होंने सबसे ज्यादा बड़ा प्रश्न स्त्रियों के लिए सम्पत्ति के स्वामित्व का माना अर्थात जब तक स्त्री को संपत्ति का अधिकार व आर्थिक स्वतंत्रता नहीं मिलेगी उसका सर्वोन्मुखी विकास संभव ही नहीं है। यदि स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम होगी तब वह किसी के उपर भार स्वरूप नहीं होगी। क्योंकि पुरूष को यही दंभ सबसे ज्यादा होता है कि वह उसका पालन पोषण करता है और स्त्रियों की आर्थिक दासता ही उनकी मानसिक दासता में तब्दील हो जाती है और वह दासों की तरह सुबह से शाम तक घर के कामों में जुटी रहती है। जब किसी स्त्री की मानसिक दासता नहीं होगी तब ही वह अपने अधिकारो के विषय में सोच सकती है और फिर कोई भी वस्तु उसके लिए अप्राप्य नहीं ही होगी।
कहते हैं मनुष्य सबसे जयादा संघर्षशील होता है वह यह क्षमता लेकर उत्पन्न होता है। लेकिन नारी पुरूष से ज्यादा संघर्षशील होती हैं। आज स्त्री घर व बाहर दोनों जगह संघर्ष कर रही है। भारतीय परिवारों में धीरे धीरे लड़कियों को कमजोर बनाया जाता है कि तुम तो लड़की हो, वहां नहीं जा सकती या जाओगी, फंला मेहनत का काम नही कर सकती। भारतीय समाज में लड़के व लड़की को अलग-अलग आर्शीवाद दिए जाते हैं। लड़की खुलकर हंसे तो उस पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं। भारतीय समाज की रूपरेखा, समाज में नारी की स्थिति, उसके अधिकारों का आधार नारी की शिक्षा पर निर्भर करता है यदि नारी शिक्षित होगी तो वह समाज में अपने अधिकारों को रेखांकित कर पायेगी। महादेवी जी ने अपनी पुस्तक श्रृंखला की कड़ियां में कहा-‘‘जब तक हम अपने यहां गृहणियों को बाहर आकर इस क्षेत्र में कुछ करने की स्वतंत्रता नहीं देगें तब तक हमारी शिक्षा में व्याप्त विष बढ़ता ही जायेगा’’ अर्थात महादेवी जी ने अपने समय में ही स्त्रियों को बाहर निकल कर काम करने की प्रेरणा दे दी थी, लेकिन पुरूष को स्त्री के बाहर निकलने से डर है। क्या उसे लगता है कि वह बाहर निकलेगी तो वह बिगड़ जायेगी? जैसा कि वह स्वयं बिगड़ा हुआ है या कि उसकी इज्जत करना छोड़ देगी? यदि पुरूष का व्यवहार सौहार्दपूर्ण है तब स्त्री उसकी इज्जत करेगी ही करेगी। पुरूष में असुरक्षा की भावना घर करती जा रही है इसलिए पुरूष स्त्री को घर की चारदीवारी में ही देखना चाहता है लेकिन आज स्त्री को घर व बाहर दोनों जगह संघर्ष करना पड़ता हैं। आज के परिदृश्य में स्त्री को घर से ज्यादा बाहर की दुनिया में कई तरह के संघर्ष से गुजरना पड़ता है। सबसे वड़ा प्रश्न उसकी सुरक्षा का है। जो मुंह बाय खड़ा है और उसका समाधान नज़र नहीं आता।
यों तो हिन्दी साहित्य अपनी नींव से ही स्त्री विषयक विशलेषणों से भरा हुआ है लेकिन 1857 में बाबा पदमनजी का ‘यमुना पर्यटन’ मराठी भाषा का पहला स्त्री विषयक उपन्यास माना जाता है। इसमें एक स्त्री को यात्रा के दौरान किस प्रकार प्रकार समाज और परिवार द्वारा प्रताड़ित विधवा स्त्रियों के दुखों का दर्शन होता है, उससे वह कैसे भीतर से कैसे बदलने लगती है। यानि कि वह यात्रा उसकी आध्यात्मिक यात्रा भी बनती है। यमुना के विधवा होने पर कर्मकांड के अनुसार उसकी सास उसके केशवपन की व्यवस्था करती है। लेकिन दृढ़ता हासिल कर चुकी यमुना चुपचाप घर छोड़ती है और पति के एक ईसाई मित्र के घर में आश्रय लेकर पुनर्विवाह भी करती है यानि उस समय भी लेखक इतना आधुनिक हो सकता है यह सोचने की बात है और बेड़ियों में जकड़ी स्त्री का ऐसा चित्रण बहुत ही साहस की बात हो सकती थी। इसके बाद 1870 में प0 गौरी दत्त की कृति ‘‘देवरानी जिठानी की कहानी’’ हिन्दी का पहला स्त्री विषयक उपन्यास है इसमें घर परिवार के सारे विषय समाहित है, मसलन, बहुओं की समस्या, स्त्री शिक्षा की जरूरत, बाल विवाह आदि अनेक विषय स्त्रियों की दशा का विवरण देती है। फिर 1882 में आई ‘‘सीमान्तनी उपदेश’’। एक अज्ञात स्त्री के द्वारा उस समय की स्त्री की दशा का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। सीमान्तनी उपदेश की लेखिका ने अपनी पुस्तक में औरतों की करूण दशा का करूण आवाज़ में चित्रण किया है और खासकर विधवा स्त्रियों की दशा का। किताब के शुरूआती पन्नों में लेखिका ने खुदा से जो प्रार्थना की है-‘‘हे खुदा! स्त्रियों की खबर ले’’ इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस वक्त स्त्रियों पर जुल्म की कितनी इंतहा हो चुकी होगी। क्योंकि जब किसी पर जुल्म की इंतहा हो चुकी होती है तब ही वह ईश्वर, खुदा, भगवान को याद करता है। स्त्री की यदि दिशा और दशा ठीक हो तो वह अपने काम में मशगूल रहती है। इस तरह की फरियाद करते समय लेखिका व उस समय की तमाम स्त्रियों को कितने दुख मिल चुके होगें तथा लेखिका उस समय की स्त्रियों के हालात से बावस्ता थीं। वे कहती हैं-
‘इस कैद में हम जिन्दगी काटेगी कब तलक;
रहबर कोई नहीं ऐ रब तू ख़बर ले’ ( सीमन्तनी उपदेश पृ. 40)
यह आवाज़ उस अज्ञात स्त्री के अन्तःकरण से निकली आवाज़ है जो उस समय अपना नाम भी उजागर नहीं कर सकती थी। इसमें कितना दर्द है और यह आवाज उस समय की सभी स्त्रियों की स्थिति का पता देती है। सीमन्तनी उपदेश की वह स्त्री तो यहां तक कह देती है कि ‘‘हे जगत पिता! क्या तूने हमको पैदा नही किया, क्या हमारा पैदा करने वाला कोई और है’’ इस संवाद से जाहिर होता है कि स्त्रियों के साथ भेदभाव प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। जब सभी एक ही तरीके से पैदा हुए है तथा एक ही पिता की संतान है तो यह भेदभाव कैसा? इसी भेदभाव की परम्परा आज तक चली आ रही है। फिर प्रेमचंद जी ने तो अपने सभी उपन्यासों में भारतीय स्त्री का सर्वस्व उतारा ही। साथ ही अनेक साहित्यकारों ने स्त्री जीवन की व्यथा कथा कही।
आज तक निर्ममता पूर्ण अत्याचार लड़कियों पर बचपन से ही शुरू हो जाते हैं। उस परिवार व समाज का कौन रखवाला हो सकता है जहां स्त्रियां सिर्फ भगवान भरोसे होती हैं। स्त्रियों को दुख सहने की असीम शक्ति ईश्वर ने प्रदान की है। अभी हाल ही का एक समाचार बिलासपुर में महिलाओं की नसबंदी के दौरान लापरवाही का किस्सा हृदयविदारक है। सोचकर ही कलेजा मुंह को आता है कि औरत में कितनी सहनशक्ति होती है तभी धरती को मां और मां को धरती कहा गया है। धरती की तरह दुख सहने वाली मां ही धरती हो सकती है।
महादेवी वर्मा ने अपनी पुस्तक श्रृंखला की कड़ियां के अध्याय ‘हिन्दू स्त्री का पत्नीत्व’ नामक अध्याय में बहुत बड़ी बात कही-‘‘भारतीय पुरूष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंगबिरगें पक्षी पाल लेता है; उपयोग कि लिए गाय या घोड़ा पाल लेता है उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही वह उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है।’’ कितनी महत्वपूर्ण बात कही महादेवी जी ने यानि स्त्री एक बंधुवा जानवर की तरह होती है जैसे पशु को हांका जाता है पुरूष स्त्री को भी ऐसे ही हांकना चाहता है और हांका भी है। यह पुरूष के विवेकहीन होने का प्रमाण है। कुछ पुरूष आज भी स्त्री को इसी नज़र से देखते हैं। भारत गावों का देश है यहां हर पांच किलो मीटर पर एक गांव बसता है शहर से दूर इन गावों में इस तरह की कुप्रथायें फलफूल रही हैं और शायद शहरों में भी। ये कैसा समाज है ? जहां कोई भी सामाजिक प्राणी अपनी आवश्यकता के अनुसार किसी भी दूसरे व्यक्ति की खुशीयों का गला घोंट दें। पुरूष स्त्री को घर व कपड़ा दे कर उसे सारी उम्र के लिए अपने आधीन नहीं रखता है? यही पुरूषवादी सोच समय समय पर मनुष्य के पतन का कारण बनती है। वर्तमान समय में वह स्त्री को मानसिक तौर से भी ऐसा दंड देता है कि जिसके दाग जन्मजन्मान्तर तक रिसते रहते हैं। पुरूष को यह नहीं मालूम कि स्नेह ही मानवता के मंदिर का देवता है और स्नेह से ही वह अपने परिवार को वंचित रखता है। स्त्री की कोमल भावनाएं कुचल जाने पर जब स्त्री के हृदय से स्नेह खत्म हो जाता है तब स्त्री भी विद्रोहिणी बन जाती है जिससे समाज, घर परिवार में कलुषता की व्याप्ति होती है।
भारतीय समाज पुरूष प्रधान है। पुरूष प्रधान क्यों बना रहना चाहता है शायद अपनी दुर्बलता छुपाने के लिए। परन्तु पुरूष की दुर्बलता का दंड स्त्री भोगती है। इस प्रकार स्त्री न जाने कितने अभिशाप लेकर जीती चली जाती है। महादेवी ने स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता को सर्वोपरि माना। समाज, परिवार में स्त्री की धार्मिक व सामाजिक स्थिति चाहे कितनी भी उन्नत हो जब तक वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होगी वह विश्वास से नहीं भर सकती। आर्थिक परवशता ही उसे प्रेरणा शून्य, संज्ञा शून्य तक बना डालती है।
महादेवी वर्मा का स्त्री विशलेषण आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक व आधुनिक है। जीवन में किसी भी वस्तु का अभाव मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता। इसलिए प्राचीन काल से स्त्री दबती आई है और जब दबने की इंतहां हो गई तब उसे विद्रोहिणी होना ही था। अतः स्त्री आज अपने अधिकारो के प्रति सचेत हुई है। परन्तु आज भी वह धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से उन्नत होने पर भी आर्थिक दृष्टि से विपन्न ही है। महादेवी अपनी किताब के अध्याय ‘स्त्री की अर्थ-स्वातंत्रय का प्रश्न’ में कहती हैं-‘‘निरन्तर आर्थिक परवशता भी जीवन में उसी प्रकार प्रेरणा शून्यता उत्पन्न कर देती है। किसी भी सामाजिक प्राणी के लिए ऐसी स्थिति अभिशाप है जिसमें वह स्वावलम्बन का भाव भूलने लगे, क्योंकि इसके अभाव में वह अपने सामाजिक व्यक्तित्व की रक्षा नही कर सकता।’’ समाज व परिवार में पूरी तरह से स्वतंत्रता तो नहीं मिल सकती लेकिन समानता का अधिकार तो मिल ही सकता है। और परिवार में स्त्री, पुरूष, बच्चों का विकास तब ही संभव है जब समानता का व्यवहार प्रयोग में लाया जाए। यही आज का स्त्री विमर्श है। जिसे गलत अर्थो में प्रयुक्त कर नारी को बदनाम किया जाता है कि नारी स्वतंत्र होना चाहती है। स्त्री व पुरूष दोनों ही समाज व परिवार की रीढ़ होती है। एक दूसरे के समन्वय से ही घर परिवार चलते है वैमनस्य से नहीं। मुश्किल तब पैदा होती है जब समानता का पलड़ा एक तरफ झुक जाता है। लेकिन तराजू के दोनों पलड़े समान हो तभी तराजू सही मानी जाती है।
आज स्त्री विमर्श पर विपुल साहित्य रचा जा रहा है लेकिन 21 वीं सदी में चांद, सितारे, अंतरिक्ष, हिमालय छूकर लौटी शिक्षित व आधुनिक स्त्री का पति आज भी उसके रसोई में खाना बनाने की राह देखता है। समाज का असली चेहरा आज भी सामंती है। आज का पुरूष भी स्त्री को गुलाम बना कर ही अपनी आज़ादी का लुफत उठाता है। उसे यह नही मालूम कि स्त्री को दबा कर वह स्वतंत्र नहीं हो सकता। स्त्रियां आज इस यातना से तो एकाकी भी रहने को तैयार हैं परंतु अंकुश में रहने को नहीं। क्योंकि उसे भी खुली हवा चाहिए सांस लेने को। आज औरत प्यार से खुशी खुशी सब कुछ करने को तैयार लेकिन स्वतंत्रता के साथ, गर्व के साथ, पुरूष की सहभागी बन कर। आज स्त्रियों की मुक्ति पर कई पहलुओं पर विचार करने की जरूरत है। जिस तरह मीरा ने समूचे स्त्री समाज को पराधीन और व्यक्तित्वहीन बना कर रखने वाली सामंती चुनौतियों का सामना किया। हमें आज फिर से मीरा की राह को चुनना होगा। मीरा पर नये सिरे से विचार कर नई दृष्टि से देखना होगा।
तथा हमें यह भी देखना होगा कि आधुनिक विचारों से युक्त महादेवी की प्रासंगिकता आज कितनी बढ़ गई है अन्ततः उन श्रृंखला की कड़ियों को काटना ही होगा जो एक रिश्तों का समंजस्य व बेहतर समाज व परिवार न बना सकें। ऐसी कड़ियों को जोड़ना होगा जो एक समानता का समाज व परिवार बना सकें। जो मनुष्य मनुष्य में तथा स्त्री-पुरूष में कोई भेद ना रखे।
संदर्भ ग्रंथ-
सीमन्तनी उपदेश, लेखिका- एक अज्ञात हिन्दू औरत, संपादक- डा. धर्मवीर
श्रृंखला की कड़ियां, लेखिका- महादेवी वर्मा
लेखिका
मनीषा जैन
संपर्क : 165-ए, वेस्टर्न एवेन्यू
सैनिक फार्म
नई दिल्ली- 110080
फोन - 09871539404
स्त्री का संघर्ष और चिंतन
(मीरा और श्रृंखला की कड़ियों के संदर्भ में)
आज हमें यह परखने की जरूरत है कि क्या महिलाएं अपनी सामाजिक-आर्थिक रूढ़ियों से स्वतंत्र हो सकी हैं? यदि हां तो कितनी? और यदि नहीं हो सकी हैं तो क्यों? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए हमें बार-बार अपना इतिहास याद आता है और वे ऐतिहासिक नारियां याद आती हैं। मीरा, सुभद्रा कुमारी चौहान, झांसी की रानी, महादेवी वर्मा आदि जिन्होंने सामाजिक विरोध का सामना करते हुए अपना जीवन यापन किया और नारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। आज हमें इन्हीं से अपनी प्राणशक्ति प्राप्त करना होगी और इन्हीं के कर्मो को अपने जीवन में उतारना होगा। तभी हमें संघर्ष करने की शक्ति प्राप्त हो सकती है।
अक्सर स्त्रियां सामाजिक आर्थिक रूप से संघर्ष करती हुई मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या तक करने के उतारू हो जाती है। लेकिन यह कोई समाधान नहीं है। हम स्त्रीयों को संघर्ष करके ही जीना होगा। आज हमें मीरा जैसी सशक्त व संघर्षशील महिलाओं की जरूरत है तथा हमें आज मीरा को अपने अंतर में उतारने की जरूरत है। आज मीरा को स्त्री विमर्श में शामिल किया जाने लगा है, मीरा आज सबसे ज्यादा प्रासांगिक है। जब मीरा को राणा जैसे राजा या कहें कि पूरे सामंती समाज ने कष्ट व उलाहना दिए, तब मीरा ने आत्महत्या की कोशिश नहीं की, बल्कि उनके खिलाफ संघर्ष किया। मीरा को आज से कहीं ज्यादा सामंती समाज मिला था। मीरा के पति भोजराज की मृत्यु के बाद समूचा राणा राजपरिवार उनका अभिभावक बन बैठा। मीरा के कृष्ण भक्ति व साधु संगति उन्हें रास नहीं आयी। वे मीरा के प्रति निमर्म होते चले गए। किंतु मीरा एक निर्भीक चेतनापूर्ण नारी थीं। उन्होंने अडिग रह कर राणा के अत्याचारों का सामना किया।
आज के संदर्भ में कहते है कि स्त्री का रूप बदला है स्त्री नई व बदली हुई नज़र आती है। लेकिन स्त्री की नयी छवि में एक पुरानी दबी-ढकी, डरी हुई स्त्री उसके साथ खड़ी रहती है तथा कदम कदम पर उस पुरानी स्त्री को संघर्ष करते हुए चलना पड़ता है। विख्यात लेखिका सिमोन द बोउआर का कथन ‘मुक्ति की शुरूआत बटुए से होती है’ का अर्थ सिर्फ आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है। आज स्त्री यह नहीं चाहती कि वह मुक्त हो कर अकेली रहे। आज नारी स्वतंत्रता को गलत अर्थ में लिया जाता है कि वह मुक्त होकर अकेली रहना चाहती है भारत में नारी मुक्ति को पश्चिम की नारी मुक्ति से जोड़ कर देखा जाता है जैसे अमेरिका में स्त्रियों ने स्वतंत्रता के लिए अपनी ब्रा को हाथों में लेकर प्रर्दशन किया था, भारत में वैसी स्वतंत्रता की मांग नहीं है। वैसा उन्मुक्त स्वछंद जीवन तो भारत की स्त्रियों को मंजूर ही न हो। भारत की सामाजिक परिस्थितियां पश्चिम के समाज से भिन्न हैं। क्यों हम मीरा के संघर्ष को नहीं देखते? नारी के संघर्ष को यदि हम मीरा के संदर्भ में देखेगें तो ही समझ पायेंगे कि मीरा जैसी राजघराने की बेटी और राणा के परिवार की पुत्र-वधू ने संघर्ष को जो रास्ता अपनाया और उसी पर अडिग रहीं। कृष्ण भक्ति के अपने मनचाहे रास्ते पर चलने के लिए उन्होंने राणा का भेजा हुआ विष तक का पान किया। क्यों? क्योंकि उनमें कृष्ण के प्रति सच्ची श्रद्धा थी। कृष्ण की लगन थी। राणा ने उन्हें तरह तरह से बांधने की कोशिश की लेकिन मीरा में मुक्ति की छअपटाहट इतनी तीव्र थी कि वे किसी बंधन में न बंध सकी और कृष्ण में ही लीन रहीं। आज उनकी वही चेतना आज की स्त्री के लिए प्रेरक है
‘सिमोन द बोउआर’ का एक अन्य कथन कि- ‘‘औरत पैदा नहीं होती, औरत बनायी जाती है’’ लेखिका या यह कथन मीरा पर सटीक बैठता है। समाज, परिवार ने उन्हें भी संस्कार में बंधी, मर्यादा में रहने वाली औरत ही बनाया था लेकिन मीरा ने अपनी इस स्थिति को अस्वीकार कर दिया। यदि मीरा सामंती समाज की रूढ़ियों के नीचे दब कर औरत बन जाती तो मीरा न बन पाती। लेकिन मीरा को सामंती समाज में औरत बनना मंजूर ना था। पितृसत्तात्मक व्यवस्था तो अपने हितों के लिए समाज में औरत बनाने का काम करती ही है। कहते हैं कि औरत के लिए ज़माना, समाज कभी नहीं बदलता, लेकिन मीरा जैसी दृढ़प्रतिज्ञ स्त्रियां आज इसे बदल कर दिखा रही हैं। जिस तरह तत्कालीन सामंती प्रथाओं और जड़ पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरोध में मीरा का स्वर विद्रोही हुआ, आज की समकालीन स्त्रियों का स्वर क्यों मुखर नहीं हो सकता। मीरा भगवद् प्रेम के द्वारा क्रांति का बिगुल बजाना चाहती थीं। मुक्ति की चाह ने ही मीरा को एक विद्रोही स्त्री का रूप दिया। उन्होंने न परिवार न समाज की परवाह की।
हर रचना अपने परिवेश व युग का आईना होती है। मीरा भी अपने उसी सामंती युग की देन हैं। स्त्रियों के प्रति कू्रर समाज में ही मीरा का निर्माण हुआ था तथा उन्होंने सामंती समाज से लोहा लिया और अपने परिवेश की स्त्रियों में नृशंस व्यवस्था से छुटकारा पाने की अलख जागायी। राणा का कोई भी यत्न उन्हें कृष्णभक्ति से नहीं रोक पाया। यहां तक कि राणा ने अपने स्वतंत्र आचरण की घोषणा करने वाली मीरा को बदनाम करने की पूरी कोशिश की लेकिन कृष्ण के प्रति दृढ़ अनुरक्ति ने मीरा के व्यक्तित्व को अद्भुत आत्मविश्वास दिया। तभी मीरा ने कहा- ‘‘राणा जी म्हाने या बदनामी लागे मीठी
कोई निन्दो कोई बिन्दो मैं चलूंगी चाल अनूठी।’’
मीरा अपने समय के समाज का सामंती पतनशीलता से संर्धष करती हुई एक निर्भीक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में भक्तिकाल में अपनी अलग छाप छोड़ती हैं। उनमें एक असाधारण स्त्री के गुण व त्याग का विवेक है। उनका संघर्ष असत्य, अन्याय व असहिष्णुता से है और राणा में ये तीनों ही गुण थे। इस तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए जब मीरा जैसी राजसी लेकिन असहाय अकेली स्त्री ने संघर्ष किया तो आधुनिक नारी के पास तो सुविधायें मौजूद हैं, वह अपनी इच्छाशक्ति के बल पर नारी मुक्ति के स्वप्न को साकार कर सकती है। इसी मुक्ति की जीवनधारा को हासिल करने के लिए आज मीरा का स्मरण करना होगा। मीरा जैसी मुक्ति की इच्छाशक्ति आज की स्त्री के पास भी है इसलिए मीरा आज ज्यादा प्रसांगिक हैं। आज की स्त्रियों को मीरा से नयी चेतना व नया संदर्भ प्राप्त करने ही होंगे व एक बार फिर से नई मीरा बनना ही होगा। आज न जाने कितनी मीराओं की जरूरत है यूं तो प्रत्येक नारी में मीरा छिपी हुई है बस उसे पहचानने भर की देर है।
1942 में लिखी गई महादेवी वर्मा जी की कृति ‘श्रृंखला की कड़ियां’ नामक पुस्तक आज इतनी प्रासांगिक है कि आज के सारे प्रश्न महादेवी ने अपने समय में ही खड़े कर दिए थे। उन्होंने अपनी पुस्तक की ‘अपनी बात’ में कहा-‘‘कि वास्तव में अंधकार स्वंय कुछ न होकर आलोक का अभाव है इसी से तो छोटे से छोटा दीपक भी उसकी सघनता को नष्ट कर देने में समर्थ है’’ अर्थात् स्त्री पर अमानवीयता या अत्याचार तभी तक हो रहा है जब तक वह स्वयं मातहत बन कर अत्याचार सहेगी। उसे अपना दीपक स्वयं ही बनना होगा जैसे डा0 अम्बेडकर ने कहा-अप्पः दीपो भव। आज स्त्री को यह अपेक्षा नहीं रखनी होगी कि कोई आ कर उसके जीवन का अंघेरा दूर करेगा और जिस दिन स्त्री ने यह बीड़ा उठा लिया उस दिन कोई उसे रोक नहीं पायेगा। महादेवी जी ने इस पुस्तक में आज की स्त्रियों के अनेक प्रश्न उठाये हैं साथ ही उनका समाधान भी दिया है। उन्होंने सबसे ज्यादा बड़ा प्रश्न स्त्रियों के लिए सम्पत्ति के स्वामित्व का माना अर्थात जब तक स्त्री को संपत्ति का अधिकार व आर्थिक स्वतंत्रता नहीं मिलेगी उसका सर्वोन्मुखी विकास संभव ही नहीं है। यदि स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम होगी तब वह किसी के उपर भार स्वरूप नहीं होगी। क्योंकि पुरूष को यही दंभ सबसे ज्यादा होता है कि वह उसका पालन पोषण करता है और स्त्रियों की आर्थिक दासता ही उनकी मानसिक दासता में तब्दील हो जाती है और वह दासों की तरह सुबह से शाम तक घर के कामों में जुटी रहती है। जब किसी स्त्री की मानसिक दासता नहीं होगी तब ही वह अपने अधिकारो के विषय में सोच सकती है और फिर कोई भी वस्तु उसके लिए अप्राप्य नहीं ही होगी।
कहते हैं मनुष्य सबसे जयादा संघर्षशील होता है वह यह क्षमता लेकर उत्पन्न होता है। लेकिन नारी पुरूष से ज्यादा संघर्षशील होती हैं। आज स्त्री घर व बाहर दोनों जगह संघर्ष कर रही है। भारतीय परिवारों में धीरे धीरे लड़कियों को कमजोर बनाया जाता है कि तुम तो लड़की हो, वहां नहीं जा सकती या जाओगी, फंला मेहनत का काम नही कर सकती। भारतीय समाज में लड़के व लड़की को अलग-अलग आर्शीवाद दिए जाते हैं। लड़की खुलकर हंसे तो उस पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं। भारतीय समाज की रूपरेखा, समाज में नारी की स्थिति, उसके अधिकारों का आधार नारी की शिक्षा पर निर्भर करता है यदि नारी शिक्षित होगी तो वह समाज में अपने अधिकारों को रेखांकित कर पायेगी। महादेवी जी ने अपनी पुस्तक श्रृंखला की कड़ियां में कहा-‘‘जब तक हम अपने यहां गृहणियों को बाहर आकर इस क्षेत्र में कुछ करने की स्वतंत्रता नहीं देगें तब तक हमारी शिक्षा में व्याप्त विष बढ़ता ही जायेगा’’ अर्थात महादेवी जी ने अपने समय में ही स्त्रियों को बाहर निकल कर काम करने की प्रेरणा दे दी थी, लेकिन पुरूष को स्त्री के बाहर निकलने से डर है। क्या उसे लगता है कि वह बाहर निकलेगी तो वह बिगड़ जायेगी? जैसा कि वह स्वयं बिगड़ा हुआ है या कि उसकी इज्जत करना छोड़ देगी? यदि पुरूष का व्यवहार सौहार्दपूर्ण है तब स्त्री उसकी इज्जत करेगी ही करेगी। पुरूष में असुरक्षा की भावना घर करती जा रही है इसलिए पुरूष स्त्री को घर की चारदीवारी में ही देखना चाहता है लेकिन आज स्त्री को घर व बाहर दोनों जगह संघर्ष करना पड़ता हैं। आज के परिदृश्य में स्त्री को घर से ज्यादा बाहर की दुनिया में कई तरह के संघर्ष से गुजरना पड़ता है। सबसे वड़ा प्रश्न उसकी सुरक्षा का है। जो मुंह बाय खड़ा है और उसका समाधान नज़र नहीं आता।
यों तो हिन्दी साहित्य अपनी नींव से ही स्त्री विषयक विशलेषणों से भरा हुआ है लेकिन 1857 में बाबा पदमनजी का ‘यमुना पर्यटन’ मराठी भाषा का पहला स्त्री विषयक उपन्यास माना जाता है। इसमें एक स्त्री को यात्रा के दौरान किस प्रकार प्रकार समाज और परिवार द्वारा प्रताड़ित विधवा स्त्रियों के दुखों का दर्शन होता है, उससे वह कैसे भीतर से कैसे बदलने लगती है। यानि कि वह यात्रा उसकी आध्यात्मिक यात्रा भी बनती है। यमुना के विधवा होने पर कर्मकांड के अनुसार उसकी सास उसके केशवपन की व्यवस्था करती है। लेकिन दृढ़ता हासिल कर चुकी यमुना चुपचाप घर छोड़ती है और पति के एक ईसाई मित्र के घर में आश्रय लेकर पुनर्विवाह भी करती है यानि उस समय भी लेखक इतना आधुनिक हो सकता है यह सोचने की बात है और बेड़ियों में जकड़ी स्त्री का ऐसा चित्रण बहुत ही साहस की बात हो सकती थी। इसके बाद 1870 में प0 गौरी दत्त की कृति ‘‘देवरानी जिठानी की कहानी’’ हिन्दी का पहला स्त्री विषयक उपन्यास है इसमें घर परिवार के सारे विषय समाहित है, मसलन, बहुओं की समस्या, स्त्री शिक्षा की जरूरत, बाल विवाह आदि अनेक विषय स्त्रियों की दशा का विवरण देती है। फिर 1882 में आई ‘‘सीमान्तनी उपदेश’’। एक अज्ञात स्त्री के द्वारा उस समय की स्त्री की दशा का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। सीमान्तनी उपदेश की लेखिका ने अपनी पुस्तक में औरतों की करूण दशा का करूण आवाज़ में चित्रण किया है और खासकर विधवा स्त्रियों की दशा का। किताब के शुरूआती पन्नों में लेखिका ने खुदा से जो प्रार्थना की है-‘‘हे खुदा! स्त्रियों की खबर ले’’ इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस वक्त स्त्रियों पर जुल्म की कितनी इंतहा हो चुकी होगी। क्योंकि जब किसी पर जुल्म की इंतहा हो चुकी होती है तब ही वह ईश्वर, खुदा, भगवान को याद करता है। स्त्री की यदि दिशा और दशा ठीक हो तो वह अपने काम में मशगूल रहती है। इस तरह की फरियाद करते समय लेखिका व उस समय की तमाम स्त्रियों को कितने दुख मिल चुके होगें तथा लेखिका उस समय की स्त्रियों के हालात से बावस्ता थीं। वे कहती हैं-
‘इस कैद में हम जिन्दगी काटेगी कब तलक;
रहबर कोई नहीं ऐ रब तू ख़बर ले’ ( सीमन्तनी उपदेश पृ. 40)
यह आवाज़ उस अज्ञात स्त्री के अन्तःकरण से निकली आवाज़ है जो उस समय अपना नाम भी उजागर नहीं कर सकती थी। इसमें कितना दर्द है और यह आवाज उस समय की सभी स्त्रियों की स्थिति का पता देती है। सीमन्तनी उपदेश की वह स्त्री तो यहां तक कह देती है कि ‘‘हे जगत पिता! क्या तूने हमको पैदा नही किया, क्या हमारा पैदा करने वाला कोई और है’’ इस संवाद से जाहिर होता है कि स्त्रियों के साथ भेदभाव प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। जब सभी एक ही तरीके से पैदा हुए है तथा एक ही पिता की संतान है तो यह भेदभाव कैसा? इसी भेदभाव की परम्परा आज तक चली आ रही है। फिर प्रेमचंद जी ने तो अपने सभी उपन्यासों में भारतीय स्त्री का सर्वस्व उतारा ही। साथ ही अनेक साहित्यकारों ने स्त्री जीवन की व्यथा कथा कही।
आज तक निर्ममता पूर्ण अत्याचार लड़कियों पर बचपन से ही शुरू हो जाते हैं। उस परिवार व समाज का कौन रखवाला हो सकता है जहां स्त्रियां सिर्फ भगवान भरोसे होती हैं। स्त्रियों को दुख सहने की असीम शक्ति ईश्वर ने प्रदान की है। अभी हाल ही का एक समाचार बिलासपुर में महिलाओं की नसबंदी के दौरान लापरवाही का किस्सा हृदयविदारक है। सोचकर ही कलेजा मुंह को आता है कि औरत में कितनी सहनशक्ति होती है तभी धरती को मां और मां को धरती कहा गया है। धरती की तरह दुख सहने वाली मां ही धरती हो सकती है।
महादेवी वर्मा ने अपनी पुस्तक श्रृंखला की कड़ियां के अध्याय ‘हिन्दू स्त्री का पत्नीत्व’ नामक अध्याय में बहुत बड़ी बात कही-‘‘भारतीय पुरूष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंगबिरगें पक्षी पाल लेता है; उपयोग कि लिए गाय या घोड़ा पाल लेता है उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही वह उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है।’’ कितनी महत्वपूर्ण बात कही महादेवी जी ने यानि स्त्री एक बंधुवा जानवर की तरह होती है जैसे पशु को हांका जाता है पुरूष स्त्री को भी ऐसे ही हांकना चाहता है और हांका भी है। यह पुरूष के विवेकहीन होने का प्रमाण है। कुछ पुरूष आज भी स्त्री को इसी नज़र से देखते हैं। भारत गावों का देश है यहां हर पांच किलो मीटर पर एक गांव बसता है शहर से दूर इन गावों में इस तरह की कुप्रथायें फलफूल रही हैं और शायद शहरों में भी। ये कैसा समाज है ? जहां कोई भी सामाजिक प्राणी अपनी आवश्यकता के अनुसार किसी भी दूसरे व्यक्ति की खुशीयों का गला घोंट दें। पुरूष स्त्री को घर व कपड़ा दे कर उसे सारी उम्र के लिए अपने आधीन नहीं रखता है? यही पुरूषवादी सोच समय समय पर मनुष्य के पतन का कारण बनती है। वर्तमान समय में वह स्त्री को मानसिक तौर से भी ऐसा दंड देता है कि जिसके दाग जन्मजन्मान्तर तक रिसते रहते हैं। पुरूष को यह नहीं मालूम कि स्नेह ही मानवता के मंदिर का देवता है और स्नेह से ही वह अपने परिवार को वंचित रखता है। स्त्री की कोमल भावनाएं कुचल जाने पर जब स्त्री के हृदय से स्नेह खत्म हो जाता है तब स्त्री भी विद्रोहिणी बन जाती है जिससे समाज, घर परिवार में कलुषता की व्याप्ति होती है।
भारतीय समाज पुरूष प्रधान है। पुरूष प्रधान क्यों बना रहना चाहता है शायद अपनी दुर्बलता छुपाने के लिए। परन्तु पुरूष की दुर्बलता का दंड स्त्री भोगती है। इस प्रकार स्त्री न जाने कितने अभिशाप लेकर जीती चली जाती है। महादेवी ने स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता को सर्वोपरि माना। समाज, परिवार में स्त्री की धार्मिक व सामाजिक स्थिति चाहे कितनी भी उन्नत हो जब तक वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होगी वह विश्वास से नहीं भर सकती। आर्थिक परवशता ही उसे प्रेरणा शून्य, संज्ञा शून्य तक बना डालती है।
महादेवी वर्मा का स्त्री विशलेषण आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक व आधुनिक है। जीवन में किसी भी वस्तु का अभाव मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता। इसलिए प्राचीन काल से स्त्री दबती आई है और जब दबने की इंतहां हो गई तब उसे विद्रोहिणी होना ही था। अतः स्त्री आज अपने अधिकारो के प्रति सचेत हुई है। परन्तु आज भी वह धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से उन्नत होने पर भी आर्थिक दृष्टि से विपन्न ही है। महादेवी अपनी किताब के अध्याय ‘स्त्री की अर्थ-स्वातंत्रय का प्रश्न’ में कहती हैं-‘‘निरन्तर आर्थिक परवशता भी जीवन में उसी प्रकार प्रेरणा शून्यता उत्पन्न कर देती है। किसी भी सामाजिक प्राणी के लिए ऐसी स्थिति अभिशाप है जिसमें वह स्वावलम्बन का भाव भूलने लगे, क्योंकि इसके अभाव में वह अपने सामाजिक व्यक्तित्व की रक्षा नही कर सकता।’’ समाज व परिवार में पूरी तरह से स्वतंत्रता तो नहीं मिल सकती लेकिन समानता का अधिकार तो मिल ही सकता है। और परिवार में स्त्री, पुरूष, बच्चों का विकास तब ही संभव है जब समानता का व्यवहार प्रयोग में लाया जाए। यही आज का स्त्री विमर्श है। जिसे गलत अर्थो में प्रयुक्त कर नारी को बदनाम किया जाता है कि नारी स्वतंत्र होना चाहती है। स्त्री व पुरूष दोनों ही समाज व परिवार की रीढ़ होती है। एक दूसरे के समन्वय से ही घर परिवार चलते है वैमनस्य से नहीं। मुश्किल तब पैदा होती है जब समानता का पलड़ा एक तरफ झुक जाता है। लेकिन तराजू के दोनों पलड़े समान हो तभी तराजू सही मानी जाती है।
आज स्त्री विमर्श पर विपुल साहित्य रचा जा रहा है लेकिन 21 वीं सदी में चांद, सितारे, अंतरिक्ष, हिमालय छूकर लौटी शिक्षित व आधुनिक स्त्री का पति आज भी उसके रसोई में खाना बनाने की राह देखता है। समाज का असली चेहरा आज भी सामंती है। आज का पुरूष भी स्त्री को गुलाम बना कर ही अपनी आज़ादी का लुफत उठाता है। उसे यह नही मालूम कि स्त्री को दबा कर वह स्वतंत्र नहीं हो सकता। स्त्रियां आज इस यातना से तो एकाकी भी रहने को तैयार हैं परंतु अंकुश में रहने को नहीं। क्योंकि उसे भी खुली हवा चाहिए सांस लेने को। आज औरत प्यार से खुशी खुशी सब कुछ करने को तैयार लेकिन स्वतंत्रता के साथ, गर्व के साथ, पुरूष की सहभागी बन कर। आज स्त्रियों की मुक्ति पर कई पहलुओं पर विचार करने की जरूरत है। जिस तरह मीरा ने समूचे स्त्री समाज को पराधीन और व्यक्तित्वहीन बना कर रखने वाली सामंती चुनौतियों का सामना किया। हमें आज फिर से मीरा की राह को चुनना होगा। मीरा पर नये सिरे से विचार कर नई दृष्टि से देखना होगा।
तथा हमें यह भी देखना होगा कि आधुनिक विचारों से युक्त महादेवी की प्रासंगिकता आज कितनी बढ़ गई है अन्ततः उन श्रृंखला की कड़ियों को काटना ही होगा जो एक रिश्तों का समंजस्य व बेहतर समाज व परिवार न बना सकें। ऐसी कड़ियों को जोड़ना होगा जो एक समानता का समाज व परिवार बना सकें। जो मनुष्य मनुष्य में तथा स्त्री-पुरूष में कोई भेद ना रखे।
संदर्भ ग्रंथ-
सीमन्तनी उपदेश, लेखिका- एक अज्ञात हिन्दू औरत, संपादक- डा. धर्मवीर
श्रृंखला की कड़ियां, लेखिका- महादेवी वर्मा
लेखिका
मनीषा जैन
संपर्क : 165-ए, वेस्टर्न एवेन्यू
सैनिक फार्म
नई दिल्ली- 110080
फोन - 09871539404
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