(चित्र साभार :- गूगल)
हां, मैं गाँव हूँ
जिसे आज हर कोई ठुकराना चाहता है
यहाँ हर व्यक्ति
एक ऐसी दुनिया में जाना चाहता है
जो मुझे कष्ट देकर बसाई गई
मैने उन कष्टों को बड़ी शालीनता सहन किया
क्योंकि मैं जानता था
ये तरक्की का उपासक है
कुछ नया गढ़ने का प्रतीक भी
मुझे अफसोस तब महसूस नहीं हुआ
जब ये मुझसे अधिक मूल्यवान हो गया
और न ही तब जिसने नये नये कीर्तिमान रचे
मैं ही इसका प्राथमिक भरण-पोषण रहा-
जब ये संघर्षरत था
मैं जानता था कि मैंने आज इसका साथ नहीं दिया
तो ये कभी भी भटक सकता है उस अपने मार्ग से
आज जब मैं देखता हूँ इसे
ये चकाचौंध से भर चुका है
यहाँ ठिकाना ढूंढने के लिए लोग
मुझे बीच रास्ते में ही छोड़ लम्बी-लम्बी कतार में खड़े हुए है
मैं हमेशा प्रसन्न था कि ये मेरे त्याग का ही प्रमाण है
मैं भ्रम में था कि-
वक्त आने पर ये मुझे याद करेगा
सहारा देगा हर उस मोड़ पर जब मुझे आवश्यकता होगी
मेरे 'अहसानों को कभी ना चुका पाने' को कहकर-
मेरे मान को बरकरार रखेगा हमेशा
आज जब ये बुलंदियों को छू चुका है
इसका व़जूद अब भी मेरे सिवा कुछ भी नहीं है
तब भी ये मुझे बुरा-भला कहने से नहीं चूकता
ये भूल चुका है कि-
मेरे खून-पसीने से ही इसे ये चमक-धमक मिल पाई है
यहाँ जो मुझे छोड़कर इसमें रहने वाले वाशिंदे है
इन्हें इसने ही भ्रमित कर रखा है
वो शायद छूटकर तो आना चाहते है मेरी गोद में
किंतु इसने इन्हें जकड़ रखा है अपने झूठे वादों से
और ये बड़ी ही चपलता से इनसे मुझे धिक्कार भी लगवाता है
उनसे कहलवाता है कि मैने इन्हें दिया क्या है अब तक
मैं आज भी बड़े गर्व से कहता हूँ कि
"मैं गाँव हूँ"
शायद कुछ भी नहीं दे पाया इन्हें
फिर भी मेरे संस्कार आज भी जीवित है इनमें-
कि हमारे यहाँ के लोग अब भी
किसी का थामा हुआ दामन बीच रास्ते में नहीं छोड़ते
चाहे वह अपनी अंतिम स्थिति में ही क्यों ना पहुँच जाए !
[Via- गाँव-देहात]
© शक्ति सार्थ्य
shaktisarthya@gmail.com

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