अब यदाकदा ही मुस्कुरा पता हूँ मैं/
अब वक्त पहले जैसा नहीं रहा
और न ही हमारा शरीर
हम वक्त से पहले बूढ़े हो चुके है
और वक्त हम से आगे निकल चुका है
और न ही हमारा शरीर
हम वक्त से पहले बूढ़े हो चुके है
और वक्त हम से आगे निकल चुका है
हमारा यूँ रोजमर्रा का जीना अब जीना नहीं रहा
ऐसा लगता कि जैसे हम हर-दिन मर रहे हो
ऐसा लगता कि जैसे हम हर-दिन मर रहे हो
हां मेरी दादी कहती थी मुझसे
वो अब भी कहती है जब मैं मिल पाता हूँ उनसे
वो अब भी कहती है जब मैं मिल पाता हूँ उनसे
बेटा हमारे जमाने में ये भागते हुए लोग नहीं थे
और न ही बेलगाम भागता समय
सभी बड़े आराम से रहते थे एक साथ
पक्षियों का सुबह अपने घर से आकर हमारे यहाँ रहना
और शाम को वापस अपने यहाँ चले जाना
बेटा तब दिखावे का कुछ भी नहीं था
जो होता सामने दिखाई पड़ता था
और न ही बेलगाम भागता समय
सभी बड़े आराम से रहते थे एक साथ
पक्षियों का सुबह अपने घर से आकर हमारे यहाँ रहना
और शाम को वापस अपने यहाँ चले जाना
बेटा तब दिखावे का कुछ भी नहीं था
जो होता सामने दिखाई पड़ता था
न ही हवा में इतनी गर्मी थी
न ही ये मौसम इतने रूठे हुए रहते थे
छायादार वृक्षों के नीचें हमारी चौपाले लगती थी
हम घंटों बातें करते
जो जैसी चाहे, वैसी बातें करते थे
बूढ़े-बच्चे-जवान सभी कायदे में रहते थे
न ही ये मौसम इतने रूठे हुए रहते थे
छायादार वृक्षों के नीचें हमारी चौपाले लगती थी
हम घंटों बातें करते
जो जैसी चाहे, वैसी बातें करते थे
बूढ़े-बच्चे-जवान सभी कायदे में रहते थे
आज जब मैं ये वक्त देखता हूँ
दंग रह जाता हूँ
न तो इस वक्त में किसी को रिझाने की कला है
और न ही किसी से ठहर के बतियाने की
ये भागा जा रहा है
अनवरत, बिना किसी मकसद के
सिर्फ डर के कारण, कहीं ये पीछे न छूट जाये
हां, आगे तो बहुत निकल चुका है ये
किंतु सुकून अब भी नहीं है इसके भीतर
दंग रह जाता हूँ
न तो इस वक्त में किसी को रिझाने की कला है
और न ही किसी से ठहर के बतियाने की
ये भागा जा रहा है
अनवरत, बिना किसी मकसद के
सिर्फ डर के कारण, कहीं ये पीछे न छूट जाये
हां, आगे तो बहुत निकल चुका है ये
किंतु सुकून अब भी नहीं है इसके भीतर
अब यदाकदा ही मुस्कुरा पाता हूँ मैं
क्योंकि मेरी सभी मुस्कुराहते इस भागते हुए वक्त में
कहीं पीछे छूट गई है
जिनकी गूंज अभी सिर्फ यदाकदा मुस्कुराहत में नज़र आती है
जो शायद ही कभी पूरी तरह से वापस मिल पायें मुझे
क्योंकि मेरी सभी मुस्कुराहते इस भागते हुए वक्त में
कहीं पीछे छूट गई है
जिनकी गूंज अभी सिर्फ यदाकदा मुस्कुराहत में नज़र आती है
जो शायद ही कभी पूरी तरह से वापस मिल पायें मुझे
मैं अब पहले जैसा नहीं रहा
शायद मतलबी हो चुका हूँ
क्योंकि मुझे भी इस वक्त के साथ दौड़ना है
गर नहीं दौड़ा तो अपनी पहचान ही खो बैठूँगा
या फिर स्वंय को खो बैठूँ
मैं दौड़ रहा हूँ
ये मेरी इच्छा के विपरीत होने के बावजूद भी
मुझे दौड़ना पड़ रहा है
शायद यही नियति है आज के इस वक्त की !
शायद मतलबी हो चुका हूँ
क्योंकि मुझे भी इस वक्त के साथ दौड़ना है
गर नहीं दौड़ा तो अपनी पहचान ही खो बैठूँगा
या फिर स्वंय को खो बैठूँ
मैं दौड़ रहा हूँ
ये मेरी इच्छा के विपरीत होने के बावजूद भी
मुझे दौड़ना पड़ रहा है
शायद यही नियति है आज के इस वक्त की !
© शक्ति सार्थ्य
shaktisarthya@gmail.com
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