कल दफ़्तर से निकल ही रहा था कि मेरी निगाह टीवी स्क्रीन पर पड़ी और मेरे कदम ठिठक गए।
ख़बर चल रही थी कि बड़ौदा में एक दूल्हे की शादी के मंडप तक पहुंचने से पहले ही मौत हो गई। वो अपने दोस्त के कंधे पर था और खुशी से झूम रहा था, अचानक वो बेहोश हुआ और मर गया।
हमारे लिए ये खबर थी। एक सनसनीखेज़ खबर। जब कोई मर जाता है तो हमें लगता है कि ये खबर है। हमें ज़िंदगी में उतना रस नहीं मिलता, जितना मौत में मिलता है। सभी पत्रकारों के लिए ये ख़बर थी, लेकिन मेरे लिए दुख था, अफसोस था, शोक था, क्रोध था।
2 अप्रैल 2013 को मेरे पास पुणे से एक अनजान व्यक्ति का फोन आया था और उसने मुझसे सिर्फ इतना पूछा था कि क्या आप संजय सिन्हा बोल रहे हैं? मेरे हां कहते ही उसने कहा था शायद आपके छोटे भाई की तबियत बहुत खराब हो गई है। वो कुर्सी पर बैठे-बैठे ही लुढ़क गए हैं। फोन करने वाले ने मुझसे कहा नहीं था, लेकिन मैंने सुन लिया था कि वो कह रहा था कि उसकी सांस बंद हो गई है।
मेरा जवान भाई, जो कभी बीमार नहीं पड़ा, साठ सेकेंड में इस संसार को छोड़ कर चला गया था। सबने कहा था, मैंने मान लिया था कि उसे अचानक दिल का दौरा पड़ा था और वो बच नहीं पाया। सबने कहा था मैंने मान लिया था कि जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथ में है।
भाई की मौत को मैं सह नहीं पाया था। मैं कई डॉक्टरों से मिला। अपने दिल का हाल बताया। बताया कि भाई के जाने के बाद मेरी जीने की चाहत ही नहीं बची। डॉक्टरों ने मुझे ज्ञान दिया। मुझे बताया कि होनी को कोई टाल नहीं सकता। और एक डॉक्टर ने मुझसे कहा कि मरना तो एक दिन सबको है, लेकिन सोचिए कि कितनों को ऐसी मौत नसीब होती है, जिसमें कोई तकलीफ नहीं हुई और हंसता-खेलता वो संसार से चला गया।
डॉक्टर ने मुझे समझाने को समझा दिया था, लेकिन मैंने अपने भाई की मौत की सच्ची वज़ह जाननी चाही। मैंने देश-विदेश में कई लोगों से बात की। बीमारी की तह तक गया।
आपको याद होगा कि मैंने पहले भी इस पर कहानी आपको सुनाई थी। मैंने लिखा था कि दिल्ली के पास नोएडा के ग्रेट इंडिया प्लेस मॉल में साल भर पहले एक आईएएस अधिकारी की ऐसे ही मृत्यु हो गई थी। वो अपनी पत्नी और बच्ची के साथ रेस्त्रां में खाना खा रहे थे कि अचानक गिरे, सांस रुकी और दिल सदा के लिए बंद हो गया। उनकी पत्नी ने एंबुलेंस और डॉक्टर को फोन किया था, पर वो बहुत पहले मर चुके थे। ठीक वैसे ही जैसे मेरे भाई की मौत हो गई थी। ठीक वैसे ही जैसे एक दिन बैठे-बैठे फिल्म स्टार संजीव कुमार की हो गई थी। अमजद खान की हो गई थी। शफी इमामदार की हो गई थी। विनोद मेहरा की हो गई थी। पौराणिक कहानियों में सत्यवान की हो गई थी। सत्यान की पत्नी सावित्री तो अपने पति की अचानक हुई मौत को सह नहीं पाई थी और उसकी छाती पर सिर पटक-पटक कर वो खूब रोई थी। कहते हैं कि उसकी चीख-पुकार और शव की छाती पर सिर पटकने से यमराज़ भी घबरा गए थे और उन्हें उसके पति की आत्मा को लौटाना पड़ा था।
सोचिए, सावित्री ने एंबुलेंस को फोन करने में, डॉक्टर को या वैद्य को बुलाने में जरा भी समय ज़ाया नहीं किया था। उसने पति की छाती पर सिर पटकना शुरू कर दिया था। ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारने लगी थी और पति की सांसें लौट आईं थीं। दुनिया ने मान लिया कि वो सती-सावित्री थी, इसलिए वो भगवान से लड़ कर अपने पति की जान लौटा लाई थी।
काश हमारे हुक्मरान पौराणिक कहानियों को पढ़ कर ही सही, उन्हें तर्क की कसौटी पर कसने की सोचते और हमारे बच्चों को ये सब पढ़ाते, तो कल शाम बड़ौदा में दोस्त के कंधे पर नाचते हुए सैकड़ों आदमियों की मौजूदगी में दूल्हे की मौत नहीं हुई होती। मेरे छोटे भाई की मौत फोन करने वाले की आंखों के आगे नहीं हुई होती। संजीव कुमार, शफी इमामदार, अमजद खान, विनोद मेहरा की मौत भी नहीं हुई होती।
काश हमारे हुक्मरान असली पढ़ाई का मतलब समझते और उसे स्कूल की किताबों में पढ़ना अनिवार्य कर देते! काश वो मौत के आगे जीवन के मोल को समझते! अगर वो समझते तो मिडल स्कूल में बच्चों की प्राथमिक चिकित्सा की पढ़ाई के सिलेबस में इसे शामिल करा देते। बच्चों को स्कूल में पढ़ा दिया जाता कि इस तरह अगर किसी की सांस रुक जाए, दिल की धड़कन बंद हो जाए तो इसे हार्ट अटैक नहीं कहते, बल्कि हार्ट फेल होना कहते हैं। इसे सडेन कार्डियक अरेस्ट कहते हैं। ये किसी को भी हो जाए, तो आदमी बच सकता है। पर बचने के लिए कुछ मिनट का ही समय होता है। उसमें करना कुछ नहीं होता, बस सावित्री आसन से उसकी छाती के बीच में दोनों हाथों को बांध कर ज़ोर-ज़ोर से मारना होता है। अधिकतर मामलों में सांस लौट आती है। आदमी जी उठता है।
मैं सुनी-सुनाई बात नहीं कर रहा। मैंने खुद इस प्रयोग को एक बार जयपुर से दिल्ली आते हुए बहरोड में किया है। मेरी बस में सवार एक लड़की मेरी आंखों के आगे खड़ी-खड़ी गिरी थी। भीड़ उसे घेर कर खड़ी हो गई थी। सब लोग कह रहे थे कि कोई डॉक्टर को फोन करो। पर क्योंकि अपने भाई को खोने के बाद मैंने इस विषय को गंभीरता से पढ़ा था और समझा था, तो मैंने उसकी नाक पर हाथ लगाया, सांस बंद हो चुकी थी। दिल तो छू कर देखा तो धड़कन रूकी हुई थी। मैंने एक चांस लिया था कि सावित्री आसन से उसकी छाती के बीच में अपने दोनों हाथों ज़ोर-ज़ोर से मारा। साठ सेकेंड से भी कम वक्त लगा था, यमराज को उसकी जान लौटानी पड़ी थी। पचास लोगों की मौजूदगी में उसका दिल फिर धड़कने लगा था। ये कहानी भी मैं पहले आपको सुना चुका हूं। कुछ देर में ही वहां एक डॉक्टर भी चले आए थे और उन्होंने सबके सामने यही कहा था कि अगर उसके साथ ऐसा नहीं किया जाता तो वो मर ही चुकी थी। उसे सडेन कार्डियक अरेस्ट हुआ था।
मेरी कहानी सुनने के बाद आज आप एक बार फिर गूगल पर जाकर सडेन कार्डियक अरेस्ट और सावित्री आसन के बारे में पढ़िएगा और फिर संजय सिन्हा के इस गुस्से को जायज़ ठहराइएगा कि हमारे हुक्मरान किस तरह ज़िंदगी के पाठ को लोगों को नहीं पढ़ने देते। जो सबक अमेरिका के स्कूलों में हर बच्चे को पढ़ाया जाता है, आम आदमी को ऐसी स्थिति में जिस मशीन से शॉक देना होता है, उस मशीन को चलाना सिखाया जाता है, उसे हम समझने की कोशिश भी नहीं करते। हम अंग्रेजी पढ़ते हैं, पर जीवन को नहीं पढ़ते।
हमारे हुक्मरानों के लिए असल में ज़िंदगी का मोल है ही नहीं। होता तो वो ऐसे विषयों को पढ़ाई में शामिल कराते। पर फुर्सत किसके पास है जीवन का पाठ पढ़ने की। प्रेम का पाठ पढ़ने की। रिश्तों का पाठ पढ़ने की। हमें तो नफरत का पाठ पढ़ाने में मज़ा आता है। हमें मौत का पाठ पढ़ाने में मज़ा आता है।
आप संजय सिन्हा के गुस्से पर मत जाइए। वो तो ऐसी मौत पर पूरी भीड़ को ही हत्यारा मान बैठते हैं। वो हुक्मरानों को हत्यारा मान बैठते हैं। पर उनके मानने से क्या होगा, आप तो टीवी देखिए और मौत के खेल को देख कर उस पर चर्चा कीजिए कि अरे ऐसे कैसे कोई शादी के मंडप में जाने से पहले ही मर गया।
थोड़े से अफसोस के बाद इसे ईश्वर की मर्जी कह कर अपने काम में लग जाइएगा।
आपको नहीं रोना है। रोना उनको है जिनके अपने चले जाते हैं, ज़रा सी अज्ञानता से, ज़रा सी लापरवाही से। जैसे मैं रो रहा हूं।
ख़बर चल रही थी कि बड़ौदा में एक दूल्हे की शादी के मंडप तक पहुंचने से पहले ही मौत हो गई। वो अपने दोस्त के कंधे पर था और खुशी से झूम रहा था, अचानक वो बेहोश हुआ और मर गया।
हमारे लिए ये खबर थी। एक सनसनीखेज़ खबर। जब कोई मर जाता है तो हमें लगता है कि ये खबर है। हमें ज़िंदगी में उतना रस नहीं मिलता, जितना मौत में मिलता है। सभी पत्रकारों के लिए ये ख़बर थी, लेकिन मेरे लिए दुख था, अफसोस था, शोक था, क्रोध था।
2 अप्रैल 2013 को मेरे पास पुणे से एक अनजान व्यक्ति का फोन आया था और उसने मुझसे सिर्फ इतना पूछा था कि क्या आप संजय सिन्हा बोल रहे हैं? मेरे हां कहते ही उसने कहा था शायद आपके छोटे भाई की तबियत बहुत खराब हो गई है। वो कुर्सी पर बैठे-बैठे ही लुढ़क गए हैं। फोन करने वाले ने मुझसे कहा नहीं था, लेकिन मैंने सुन लिया था कि वो कह रहा था कि उसकी सांस बंद हो गई है।
मेरा जवान भाई, जो कभी बीमार नहीं पड़ा, साठ सेकेंड में इस संसार को छोड़ कर चला गया था। सबने कहा था, मैंने मान लिया था कि उसे अचानक दिल का दौरा पड़ा था और वो बच नहीं पाया। सबने कहा था मैंने मान लिया था कि जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथ में है।
भाई की मौत को मैं सह नहीं पाया था। मैं कई डॉक्टरों से मिला। अपने दिल का हाल बताया। बताया कि भाई के जाने के बाद मेरी जीने की चाहत ही नहीं बची। डॉक्टरों ने मुझे ज्ञान दिया। मुझे बताया कि होनी को कोई टाल नहीं सकता। और एक डॉक्टर ने मुझसे कहा कि मरना तो एक दिन सबको है, लेकिन सोचिए कि कितनों को ऐसी मौत नसीब होती है, जिसमें कोई तकलीफ नहीं हुई और हंसता-खेलता वो संसार से चला गया।
डॉक्टर ने मुझे समझाने को समझा दिया था, लेकिन मैंने अपने भाई की मौत की सच्ची वज़ह जाननी चाही। मैंने देश-विदेश में कई लोगों से बात की। बीमारी की तह तक गया।
आपको याद होगा कि मैंने पहले भी इस पर कहानी आपको सुनाई थी। मैंने लिखा था कि दिल्ली के पास नोएडा के ग्रेट इंडिया प्लेस मॉल में साल भर पहले एक आईएएस अधिकारी की ऐसे ही मृत्यु हो गई थी। वो अपनी पत्नी और बच्ची के साथ रेस्त्रां में खाना खा रहे थे कि अचानक गिरे, सांस रुकी और दिल सदा के लिए बंद हो गया। उनकी पत्नी ने एंबुलेंस और डॉक्टर को फोन किया था, पर वो बहुत पहले मर चुके थे। ठीक वैसे ही जैसे मेरे भाई की मौत हो गई थी। ठीक वैसे ही जैसे एक दिन बैठे-बैठे फिल्म स्टार संजीव कुमार की हो गई थी। अमजद खान की हो गई थी। शफी इमामदार की हो गई थी। विनोद मेहरा की हो गई थी। पौराणिक कहानियों में सत्यवान की हो गई थी। सत्यान की पत्नी सावित्री तो अपने पति की अचानक हुई मौत को सह नहीं पाई थी और उसकी छाती पर सिर पटक-पटक कर वो खूब रोई थी। कहते हैं कि उसकी चीख-पुकार और शव की छाती पर सिर पटकने से यमराज़ भी घबरा गए थे और उन्हें उसके पति की आत्मा को लौटाना पड़ा था।
सोचिए, सावित्री ने एंबुलेंस को फोन करने में, डॉक्टर को या वैद्य को बुलाने में जरा भी समय ज़ाया नहीं किया था। उसने पति की छाती पर सिर पटकना शुरू कर दिया था। ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारने लगी थी और पति की सांसें लौट आईं थीं। दुनिया ने मान लिया कि वो सती-सावित्री थी, इसलिए वो भगवान से लड़ कर अपने पति की जान लौटा लाई थी।
काश हमारे हुक्मरान पौराणिक कहानियों को पढ़ कर ही सही, उन्हें तर्क की कसौटी पर कसने की सोचते और हमारे बच्चों को ये सब पढ़ाते, तो कल शाम बड़ौदा में दोस्त के कंधे पर नाचते हुए सैकड़ों आदमियों की मौजूदगी में दूल्हे की मौत नहीं हुई होती। मेरे छोटे भाई की मौत फोन करने वाले की आंखों के आगे नहीं हुई होती। संजीव कुमार, शफी इमामदार, अमजद खान, विनोद मेहरा की मौत भी नहीं हुई होती।
काश हमारे हुक्मरान असली पढ़ाई का मतलब समझते और उसे स्कूल की किताबों में पढ़ना अनिवार्य कर देते! काश वो मौत के आगे जीवन के मोल को समझते! अगर वो समझते तो मिडल स्कूल में बच्चों की प्राथमिक चिकित्सा की पढ़ाई के सिलेबस में इसे शामिल करा देते। बच्चों को स्कूल में पढ़ा दिया जाता कि इस तरह अगर किसी की सांस रुक जाए, दिल की धड़कन बंद हो जाए तो इसे हार्ट अटैक नहीं कहते, बल्कि हार्ट फेल होना कहते हैं। इसे सडेन कार्डियक अरेस्ट कहते हैं। ये किसी को भी हो जाए, तो आदमी बच सकता है। पर बचने के लिए कुछ मिनट का ही समय होता है। उसमें करना कुछ नहीं होता, बस सावित्री आसन से उसकी छाती के बीच में दोनों हाथों को बांध कर ज़ोर-ज़ोर से मारना होता है। अधिकतर मामलों में सांस लौट आती है। आदमी जी उठता है।
मैं सुनी-सुनाई बात नहीं कर रहा। मैंने खुद इस प्रयोग को एक बार जयपुर से दिल्ली आते हुए बहरोड में किया है। मेरी बस में सवार एक लड़की मेरी आंखों के आगे खड़ी-खड़ी गिरी थी। भीड़ उसे घेर कर खड़ी हो गई थी। सब लोग कह रहे थे कि कोई डॉक्टर को फोन करो। पर क्योंकि अपने भाई को खोने के बाद मैंने इस विषय को गंभीरता से पढ़ा था और समझा था, तो मैंने उसकी नाक पर हाथ लगाया, सांस बंद हो चुकी थी। दिल तो छू कर देखा तो धड़कन रूकी हुई थी। मैंने एक चांस लिया था कि सावित्री आसन से उसकी छाती के बीच में अपने दोनों हाथों ज़ोर-ज़ोर से मारा। साठ सेकेंड से भी कम वक्त लगा था, यमराज को उसकी जान लौटानी पड़ी थी। पचास लोगों की मौजूदगी में उसका दिल फिर धड़कने लगा था। ये कहानी भी मैं पहले आपको सुना चुका हूं। कुछ देर में ही वहां एक डॉक्टर भी चले आए थे और उन्होंने सबके सामने यही कहा था कि अगर उसके साथ ऐसा नहीं किया जाता तो वो मर ही चुकी थी। उसे सडेन कार्डियक अरेस्ट हुआ था।
मेरी कहानी सुनने के बाद आज आप एक बार फिर गूगल पर जाकर सडेन कार्डियक अरेस्ट और सावित्री आसन के बारे में पढ़िएगा और फिर संजय सिन्हा के इस गुस्से को जायज़ ठहराइएगा कि हमारे हुक्मरान किस तरह ज़िंदगी के पाठ को लोगों को नहीं पढ़ने देते। जो सबक अमेरिका के स्कूलों में हर बच्चे को पढ़ाया जाता है, आम आदमी को ऐसी स्थिति में जिस मशीन से शॉक देना होता है, उस मशीन को चलाना सिखाया जाता है, उसे हम समझने की कोशिश भी नहीं करते। हम अंग्रेजी पढ़ते हैं, पर जीवन को नहीं पढ़ते।
हमारे हुक्मरानों के लिए असल में ज़िंदगी का मोल है ही नहीं। होता तो वो ऐसे विषयों को पढ़ाई में शामिल कराते। पर फुर्सत किसके पास है जीवन का पाठ पढ़ने की। प्रेम का पाठ पढ़ने की। रिश्तों का पाठ पढ़ने की। हमें तो नफरत का पाठ पढ़ाने में मज़ा आता है। हमें मौत का पाठ पढ़ाने में मज़ा आता है।
आप संजय सिन्हा के गुस्से पर मत जाइए। वो तो ऐसी मौत पर पूरी भीड़ को ही हत्यारा मान बैठते हैं। वो हुक्मरानों को हत्यारा मान बैठते हैं। पर उनके मानने से क्या होगा, आप तो टीवी देखिए और मौत के खेल को देख कर उस पर चर्चा कीजिए कि अरे ऐसे कैसे कोई शादी के मंडप में जाने से पहले ही मर गया।
थोड़े से अफसोस के बाद इसे ईश्वर की मर्जी कह कर अपने काम में लग जाइएगा।
आपको नहीं रोना है। रोना उनको है जिनके अपने चले जाते हैं, ज़रा सी अज्ञानता से, ज़रा सी लापरवाही से। जैसे मैं रो रहा हूं।
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(फेसबुक से साभार)
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©संजय सिन्हा
[Executive Editor AajTak]
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