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कविताएँ: जीवन की अदृश्य धारा

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कविताएं क्यों जरूरी है हमारे जीवन में ?

कविताएं क्यों जरूरी हैं हमारे जीवन में? कविता, भावनाओं को शब्दों में पिरोने की एक अद्भुत कला है। यह न केवल हमारे विचारों को सुंदरता के साथ व्यक्त करती है, बल्कि हमारे भीतर छिपी संवेदनाओं को भी जगाती है। आज जब दुनिया भागदौड़ से भरी हुई है, ऐसे में कविताएँ हमें रुकने, सोचने और महसूस करने का अवसर देती हैं। आइए समझते हैं कि हमारे जीवन में कविताओं का महत्व क्यों है। _________________________ 1. भावनाओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम कई बार हम अपने दिल की बातें सीधे शब्दों में नहीं कह पाते, लेकिन कविता के माध्यम से हम गहरी भावनाओं को भी सहजता से प्रकट कर सकते हैं। प्रेम, दुख, खुशी, आशा — हर भावना को कविता एक खूबसूरत आकार देती है। ________________________ 2. आत्मा का पोषण करती हैं कविताएँ सिर्फ शब्द नहीं होतीं, ये हमारी आत्मा का भोजन हैं। जब हम कोई अच्छी कविता पढ़ते या सुनते हैं, तो हमारे भीतर एक सुखद अनुभूति होती है। यह अनुभूति हमें अंदर से मजबूत और संतुलित बनाती है। ___________________________ 3. सोचने और कल्पना करने की शक्ति बढ़ाती हैं कविताएँ हमारे सोचने के ढंग को गहरा और व्यापक ...

तलाश जारी है (कविता) - शक्ति सार्थ्य

(PC:- Sanjay Kanti Seth) तलाश जारी है/ मैँ नहीँ था जमाने से जुदा वक्त की लकीरोँ नें मुझे अपने जैसे था खींचा, मैँ अनजान था मुझे क्या पता की ये वक्त भी शैतान था, मैँ मंझा इसी में और घुल-मिल गया इसी शैतान में जो गुनाह हुए वक्त बेवक्त- उसका हिसाब रखपाना आसान न था, क्या करता मैं- इस शैतान जहाँ में, मुझे तो ढला गया.., छला गया... मैँ हूँ, सोचता हूँ कि मेरा वजूद है- या वजूद पाने की जद्दोज़हद... बड़ा मुश्किल है अब अपने को स्थापित कर पाना, कहीँ खो-सा गया हूँ- इस भीड़ में, तलाश जारी है- क्या पता अब कब अपने आप से मिल पाऊँ ! [04-Mar-2014] - शक्ति सार्थ्य ShaktiSarthya@gmail.com

दर्द की चालीस साल लंबी कविता - ध्रुव गुप्त

दर्द की चालीस साल लंबी कविता ! अपने दौर की एक बेहद भावप्रवण अभिनेत्री और उर्दू की संवेदनशील शायरा मीना कुमारी उर्फ़ माहज़बीं रुपहले पर्दे पर अपने सहज, सरल अभिनय के अलावा अपनी बिखरी और बेतरतीब निज़ी ज़िन्दगी के लिए भी जानी जाती है। भारतीय स्त्री के जीवन की व्यथा को सिनेमा के परदे पर साकार करते-करते कब वे ख़ुद दर्द की मुकम्मल तस्वीर बन गई, इसका पता शायद उन्हें भी नहीं होगा। उन्हें हिंदी सिनेमा का ट्रेजडी क्वीन कहा गया। भूमिकाओं में कुछ हद तक विविधता के अभाव के बावजूद अपनी खास अभिनय शैली और मोहक, उनींदी, नशीली आवाज़ की जादू की बदौलत उन्होंने भारतीय दर्शकों का दिल जीता।1939 में बाल कलाकार के रूप में बेबी मीना के नाम से फिल्मी सफ़र शुरू करने वाली मीना कुमारी की नायिका के रूप में पहली फिल्म "वीर घटोत्कच' थी,लेकिन उन्हें पहचान मिली विमल राय की एक फिल्म क्लासिक फिल्म 'परिणीता से ! अपने तैतीस साल लम्बे फिल्म कैरियर में उनकी कुछ चर्चित फ़िल्में हैं - परिणीता, दो बीघा ज़मीन, फुटपाथ, एक ही रास्ता, शारदा, बैजू बावरा, दिल अपना और प्रीत पराई, कोहिनूर, आज़ाद, चार दिल चार राहें, प्यार का सा...

प्रेमचंद के फटे जूते - हरिशंकर परसाई

प्रेमचंद के फटे जूते: हरिशंकर परसाई प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूँछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं। पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं। दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है। मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ—फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है। मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तु...

वक्त, मैं और किस्मत - शक्ति सार्थ्य

वक्त, मैं और किस्मत/ मैं परेशां हूँ अपने आप से या वक्त के प्रकोप से या फिर किस्मत के चले जाने से यूँ जिन्दगी को जीना किसी बड़े जोखिम से कम नहीं गर वक्त पे पकड़ मजबूत हो या फिर किस्मत का साथ हो, तो कहा जा सकता है सबकुछ इस बंद मुठ्ठी में समाहित है- समाहित है वो स्वप्न, जो अक्सर हमें एक नई दुनिया में ले जाता हमारा आज क्या? कल भी सफल होता है, मैं इसी उधेड़-बुन में हूँ कि वक्त कब आयेगा अपने रंग में कि किस्मत कब लौट आयेगी अपने घर में, मैं एक सकरी सी उम्मीद पर भी औधें-मुहँ मात खाता मेरा आज, आज नहीं कल का क्या भरोसा? कुछ रूठ के चले जाते है किंतु आने की उम्मीद तो छोड़ जाते है- वक्त का रूठना किस्मत का रूठ के जाना अनहोनी को घर का सदस्य होने जैसा- ये कहा जा सकता है कि अनहोनी प्रत्यक्ष रुप से व्युत्क्रमानुपाती होती है वक्त और किस्मत के और जिसका मैं शिकार हूँ ! -शक्ति सार्थ्य [12-July-2014] खूबसूरत पेंटिंग साभार :- Mayank Chhaya सर

सुनो... कभी मिलोगी मुझसे (कविता)- नरेश गुर्जर

(चित्र साभार:- नरेश गुर्जर जी की फेसबुक वॉल से) "सुनो.... कभी मिलोगी मुझसे!? "ना....कभी नहीं! उसने दो टूक शब्दों में मना कर दिया! उसे एकबारगी तो विश्वास नहीं हुआ कि क्या यह वही है जो अभी प्रेम की बरसात कर रही थी! उसकी आंखें भर आई! "हैलो... क्या हुआ, आप सुन रहे हैं!? उसने अपने आप को संयत करते हुए मोबाइल कान से लगाया और कहा! "हैलो, हां मैं सुन रहा हूँ! "देखिए, आप ऐसा वैसा कुछ मत सोचिए! "नहीं, तुम चिंता ना करो,मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता हूँ.. यह तो बस यूं ही निकल गया मुंह से! "हूं...ठीक है, फिर भी मैं चाहूंगी कि आप ऐसा कुछ न सोचे! "जी,कवि और प्रेमी कभी सोचते नहीं है, क्योंकि सोच कर ना तो प्रेम किया जाता है और ना ही कविताएं लिखी जाती है इसलिए सोचना छोड़ दिया है! "समझदार हैं आप! "हूं...कह सकते हैं! "ठीक है, अब फोन रखिए.. समय मिला तो फिर बात होगी! कहते हुए उसने उसकी हां ना सुने बगैर ही फोन काट दिया! उसने सर उठा कर चांद की तरफ देखा जो आज उसे अधिक ही उदास लग रहा था! दूर किसी ट्यूबवेल से गाने की आवाज आ रही थी...