दर्द की चालीस साल लंबी कविता !
अपने दौर की एक बेहद भावप्रवण अभिनेत्री और उर्दू की संवेदनशील शायरा मीना कुमारी उर्फ़ माहज़बीं रुपहले पर्दे पर अपने सहज, सरल अभिनय के अलावा अपनी बिखरी और बेतरतीब निज़ी ज़िन्दगी के लिए भी जानी जाती है। भारतीय स्त्री के जीवन की व्यथा को सिनेमा के परदे पर साकार करते-करते कब वे ख़ुद दर्द की मुकम्मल तस्वीर बन गई, इसका पता शायद उन्हें भी नहीं होगा। उन्हें हिंदी सिनेमा का ट्रेजडी क्वीन कहा गया। भूमिकाओं में कुछ हद तक विविधता के अभाव के बावजूद अपनी खास अभिनय शैली और मोहक, उनींदी, नशीली आवाज़ की जादू की बदौलत उन्होंने भारतीय दर्शकों का दिल जीता।1939 में बाल कलाकार के रूप में बेबी मीना के नाम से फिल्मी सफ़र शुरू करने वाली मीना कुमारी की नायिका के रूप में पहली फिल्म "वीर घटोत्कच' थी,लेकिन उन्हें पहचान मिली विमल राय की एक फिल्म क्लासिक फिल्म 'परिणीता से ! अपने तैतीस साल लम्बे फिल्म कैरियर में उनकी कुछ चर्चित फ़िल्में हैं - परिणीता, दो बीघा ज़मीन, फुटपाथ, एक ही रास्ता, शारदा, बैजू बावरा, दिल अपना और प्रीत पराई, कोहिनूर, आज़ाद, चार दिल चार राहें, प्यार का सागर, बहू बेगम, मैं चुप रहूंगी, दिल एक मंदिर, आरती, सांझ और सवेरा, चित्रलेखा, साहब बीवी गुलाम, मंझली दीदी, भींगी रात, नूरज़हां, काजल, फूल और पत्थर, पाकीज़ा और मेरे अपने।
मीना कुमारी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही की दूसरी बीवी के रूप में अपने असफल दाम्पत्य और उस समय के संघर्षशील अभिनेता धर्मेन्द्र के साथ अपने अधूरे प्रेम संबंध की वज़ह से भी चर्चा में रहीं। पति कमाल अमरोही ने अपने हितों के लिए जीवन भर उनका इस्तेमाल किया। मीना जी के जाने के बाद रिलीज कमाल अमरोही की 'पाकीज़ा' तो सुपरहिट रही, मगर ट्रेजेडी क्वीन के पास अपने आख़िरी दिनों में अस्पताल का बिल चुकाने लायक भी पैसे नहीं थे। उनकी गहरी हताशा और बेपनाह भावुकता ने उन्हें नशे की अंधेरी दुनिया में भटकाया, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें मुक्ति दी। उनके जीवन का तमाम संघर्ष और दर्द उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में बखूबी अभिव्यक्त हुआ है। महज़ चालीस साल की उम्र में गुज़र जाने वाली इस अभिनेत्री को हम चालीस साल लम्बी दर्द की कविता भी कह सकते हैं। उनके मरने के बाद उनकी आखिरी इच्छा के अनुरूप उनके मित्र शायर गुलज़ार ने उनकी सैकड़ों डायरियों से निकाल कर उनका दीवान 'मीना कुमारी की शायरी' के नाम से प्रकाशित कराया। दर्द के जीवंत दस्तावेज़ इस दीवान को बेपनाह मकबूलियत हासिल हुई, लेकिन इसे महसूस करने के लिए मीना जी इस दुनिया में नहीं थी। यौमे पैदाईश (1 अगस्त) पर खिराज़े अकीदत उन्ही की एक ग़ज़ल के साथ !
यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे
कांधे पे अपने रखके अपना मज़ार गुज़रे
बैठे हैं रास्ते में दिल का खंडहर सजा कर
शायद इसी तरफ़ से एक दिन बहार गुज़रे
बहती हुई ये नदिया , घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतरे , कोई तो पार गुज़रे
तूने भी हम को देखा हमने भी तुझको देखा
तू दिल ही हार गुज़रा हम जान हार गुज़रे।
[फेसबुक पोस्ट से साभार]
© ध्रुव गुप्त
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