वक्त, मैं और किस्मत/
मैं परेशां हूँ
अपने आप से
या वक्त के प्रकोप से
या फिर किस्मत के चले जाने से
यूँ जिन्दगी को जीना
किसी बड़े जोखिम से कम नहीं
गर वक्त पे पकड़ मजबूत हो
या फिर किस्मत का साथ हो,
तो कहा जा सकता है
सबकुछ इस बंद मुठ्ठी में
समाहित है-
समाहित है वो स्वप्न, जो अक्सर
हमें एक नई दुनिया में ले जाता
हमारा आज क्या?
कल भी सफल होता है,
मैं इसी उधेड़-बुन में हूँ
कि वक्त कब आयेगा अपने रंग में
कि किस्मत कब लौट आयेगी अपने घर में,
मैं एक सकरी सी उम्मीद पर भी
औधें-मुहँ मात खाता
मेरा आज, आज नहीं
कल का क्या भरोसा?
कुछ रूठ के चले जाते है
किंतु आने की उम्मीद तो छोड़ जाते है-
वक्त का रूठना
किस्मत का रूठ के जाना
अनहोनी को
घर का सदस्य होने जैसा-
ये कहा जा सकता है कि
अनहोनी
प्रत्यक्ष रुप से
व्युत्क्रमानुपाती होती है
वक्त और किस्मत के
और
जिसका मैं शिकार हूँ !
-शक्ति सार्थ्य
[12-July-2014]
खूबसूरत पेंटिंग साभार :- Mayank Chhaya सर
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