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इरोम : एक नायिका की चूक | शायक आलोक

इरोम : एक नायिका की चूक
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इरोम का सौ से कम वोट पाना अप्रत्याशित नहीं है.
अप्रत्याशित यह है कि उन्होंने अब कभी चुनाव न लड़ने की कसम खा ली.
यह उनकी नई चूक है.
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मैंने 30 मई, 2014 को एक टिप्पणी में कहा था कि
‘’आप मुझे उजबक मान सकते हैं अगर मैं कहूँ कि इरोम शर्मीला के दिमाग के पेंच ढीले हैं .. उनका संघर्ष भी दिशाहीन है और प्रतिरोध की उनकी समझ भी .. जो वे इतने सालों से अपने साथ करती रही हैं वह दोयम दर्जे के अपराध के सिवा कुछ नहीं .. ‘’
जाहिर तौर पर वे वे प्रतीकात्मक संघर्ष की नायिका रही हैं तो लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं. कुछ लोगों को चिढ़ हुई मेरी टिप्पणी से. मैंने बात स्पष्ट करते हुए अगले दिन यह कहा –
‘’ लोग उम्मीद करते हैं कि फेसबुक पर ही मैं पूरा रिसर्च ग्रंथ लिखकर उन्हें पढ़ा दूँ .. इरोम शर्मीला पर मेरी टिप्पणी पर यूँही कुछ लोग इमोशनल हो गए .. होना यह चाहिए कि भैया शायक ने कुछ बात कही तो उसे गुना जाय .. अफ्स्पा कानून क्या है वह पढ़िए .. 14 साल में इरोम के आन्दोलन की उपलब्धियां क्या रही वह देखिए .. इरोम ने ही कहा था कि मैंने गांधी के तरीके से आन्दोलन शुरु किया है तो फिर गांधी का तरीका क्या होता है वह पढ़िए समझिये .. इस बीच कितनी बार चुनाव हुए मणिपुर में वह गिन लीजिये .. वोटिंग परसेंटेज देखिए .. इंसरजेंसी में क्या बदलाव आया वह देखिए .. मणिपुर के लोगों को इरोम के साथ ढूंढिए ..
पर नहीं .. ये सब क्यों करेंगे .. मेरे खिलाफ अंट शंट बकिए .. मुझे बुद्धि सिखाइए .. और नहीं तो मेरे खिलाफ जो कुछ लिखा पढ़ा जाता है उसे लाइक करते घूमिए ‘’ ..
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21 अगस्त 2014 को फिर मैंने यह टिप्पणी की –
इरोम, साध्य और साधन
इरोम ने अपने आंदोलन से अचीव क्या किया .. चौदह साल हो गए .. उनकी वही जिद .. वही तरीका .. वही संवाद की चूक .. वे रचनात्मक होतीं तो अपने देशकाल को बेहतर संवाद दे पातीं .. नाक में पाइप लगा 'न खाती न भूखी रहती' इरोम से बेहतर वह इरोम होती जो सड़क गली मोहल्ले में दौड़ लगाती अपने जनमानस को सौ हजार सवालों पर संवाद देती .. इरोम अपने लोगों को मोबिलाइज करने में असफल रहीं .. उनके उद्देश्य से ज्यादा बड़ा सवाल हमेशा उनके स्वास्थ्य को लेकर उत्पन्न चिंता रही .. इरोम की उपलब्धियों से ज्यादा उपलब्धियां तो हमारे जिले के माले जिला सचिव की रही होगी जिसने आम सवालों पर अपने जनमानस के लिए ज्यादा सार्थक संघर्ष चलाया..
गांधी के अहिंसात्मक आंदोलन में (जिसे मंडेला, लूथर, सू की आदि ने अपने आंदोलन के लिए प्रयोग किया) रचनात्मकता पर बहुत बल दिया गया है .. रचनात्मकता आंदोलन के समानांतर चलती रहती है .. गांधी यह मानते थे कि आंदोलन अपने साध्य के हिसाब से आगे बढ़ना चाहिए .. चौरी चौरा के २२ पुलिसकर्मियों की मौत पर आंदोलन समेट लेने वाले गांधी १९४२ के आंदोलन की कई हिंसक घटनाओं पर भी सकारत्मक रुप से तटस्थ बने रहे .. गांधी के अहिंसक आंदोलन का केंद्र बिंदु यह था कि जनता की भागीदारी और ऊर्जा में विस्तार हो .. उन्होंने अपने हर आंदोलन की बुनावट इस लिहाज से की कि अन्ततः आंदोलन अपने साध्य को पहुंचे .. कल्पना कीजिये कि आज़ादी की मांग को लेकर 1920 में भूख हड़ताल पर बैठ गए गांधी लगातार अनशन करते रह 1930-32 तक ही राष्ट्रीय आंदोलन के लिए वह अचीव कर पाते जो उन्होंने किया ..
गांधी थोड़े भारी हैं और इरोम को आसानी से समझ में न आते हों तो मेधा पाटकर से ही प्रेरणा ग्रहण कर लेतीं .. नर्मदा बचाओ आंदोलन से अपना सफ़र शुरु कर पीपल मूवमेंट तक पहुँचीं मेधा .. और आगे फिर सिंगुर, लवासा, जैतापुर में उनका हस्तक्षेप .. आगे फिर जनलोकपाल आंदोलन में शरीक हुईं .. गोलीबार में मात्र ४३ घरों व 200 लोगों का सवाल था पर मेधा उसे भी उतना ही महत्त्व देती हुई अनशन पर बैठी .. और अंत में यहाँ तक कि मेधा ने सीधे चुनाव लड़ सीधी भागीदारी तक का प्रयास किया .. और मेधा की इन पूरी गतिविधियों के दौरान इरोम का आंदोलन क्या कर रहा था .. उनका आंदोलन अपने नाक में पाइप लगाए बिस्तर पर पड़े हुए सरकारी राशन व दवा पी रहा था ..
कोर्ट ने अपने ताजा फैसले से इरोम को एक नया उत्प्रेरण दिया है .. अभी भी वक़्त है कि इरोम अपने आंदोलन का कुछ नहीं पा सकने वाला तरीका छोड़ रचनात्मक आंदोलन के रास्ते पर आएं ..
इरोम को अपना साध्य देखना चाहिए .. और जाहिर तौर पर साधन भी. ‘’
***
28 जुलाई 2016 को फिर मैंने यह लिखा जब इरोम ने अपने जिंक्स को तोड़ दिया.
‘’इरोम आखिर उसी निर्णय पर पहुंची जिसकी अपेक्षा मैंने अपने किसी पोस्ट में दो साल पहले जताई थी. उन्होंने अपने आंदोलन को गांधी का तरीका कहा था जिसपर मेरी कड़ी आपत्ति थी. बस उपवास गांधी का तरीका नहीं है. मैंने यह कहा था कि गांधी के आंदोलन में रचनात्मकता एक अनिवार्य तत्त्व था जहाँ जब खुला आंदोलन नहीं चल रहा होता था तब भी रचनात्मक योगदान जारी रहता था. गांधी के लिए साध्य महत्त्वपूर्ण था जिसके लिए उन्होंने सब साधन अपनाए. जिस गांधी ने चौरीचौरा की हिंसक घटना पर असहयोग समेट लिया था वे भारत छोड़ो की कई हिंसक घटनाओं के बाद भी अडिग बने रहे थे. चरखा कातना तक इस रचनात्मकता का ही एक विराट प्रतीक था. किन्तु इरोम धैल जिद्दी रास्ते पर थीं जहाँ सरकारी राशन नली के रास्ते उनके अंदर उतरता रहता था. मैंने कहा था कि वे बिस्तर पर पड़ी रहने के बजाय सड़कों पर विभिन्न विषयों पर उतरती ज्यादा सकारात्मक और असरदार भूमिका निभा सकती थीं. मुझे याद है कि तब इंडियन एक्सप्रेस के एक पत्रकार ने मुझे गाली भी बकी थी. इरोम देर से दुरुस्त आयद हुई हैं. निर्णय पर टिकी रहें तो बेहतर. ‘’
***
लेकिन इरोम ने आज फिर अब कभी चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर फिर एक बचपना और जल्दबाजी दिखाई है. चुनावी लोकतंत्र के हिसाब से इरोम अभी तैयार नहीं हैं. बेहतर यह होता कि इरोम खुद को पांच साल तैयार करतीं, जनता से प्रत्यक्ष जुड़ती, विभिन्न स्थानीय विषयों पर संवादरत होतीं, और फिर जनता से अपेक्षा रखतीं. उनका साध्य पवित्र है लेकिन उन्हें साधन को साधना नहीं आता.
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©शायक आलोक
[फेसबुक से साभार]
*original photo by Oinam Anand in Indian Express.

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