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सफलता हमारी सोंच की ही एक उपज है : शक्ति सार्थ्य

सफल होना हर किसी का स्वप्न होता है चाहे वह कैसी भी सफलता क्यों न हो ?
समाज का हर वो व्यक्ति जो कहीं न कहीं इस सोंच से जुड़ा रहता है कि धन आदि अर्जित करना ही सफलता का एक बड़ा उदाहरण है। निसंदेह वह गलत सोंचता है। बल्कि सफलता इससे कोसों दूर कहीं एक ऐसी जगह पर अडिग है जहां पर वह पहुंचना तो चाहता है किंतु समझ ही नहीं पाता और सारा श्रेय धन अर्जन की स्थिति को दे बैठता है। धन अर्जित करना एक तरह की बिशेष कला जिसका सफलता से कहीं दूर-दूर तक कोई संबंध ही नहीं है। धन अर्जन करते करते वह व्यक्ति एक तरह की ऐसी आदत बल्कि हम इसे इगो भी कह सकते को डेवलप कर लेता हैं जो समाज को धन का बुनियादी ढांचा समझ लेता हैं और उसे ही सफलता का नाम देने से कतई नहीं चूंकता।
वो इस बात के भ्रम में हैं कि वह सबसे सफल व्यक्ति है। हां धनी जरूर है वह।
सफलता यूं ही हाथ नहीं लगती। इसे पाने के लिए हमें एकाग्रचित होकर जुटना होता है, अपने उस लक्ष्य की ओर जो हमने सफल होने के लिए निर्धारित किया है। शायद ये लक्ष्य इतना विशाल और जटिल होता है कि हमारी एकाग्रता हर-पल हर-मोड़ पर डगमगाने लगती है। जो डट कर सामना करते हैं शायद ही विचलित होतें हों बल्कि उन्हें तो एक तरह की आंनद की अनुभूति है अपने लक्ष्य को भेदते समय। सफलता​ हांसिल करने वाला फल की कभी चिंता नहीं करता। गर वो फल की चिंता करने बैठ जायें तो शायद ही सफल हो पायें। "हर वक्त फल की चाह रखने वाला कभी सफल नहीं होता।" सफल व्यक्ति सफलता के स्वाद को हर पल महसूस करते रहते हैं।
"सफलता असफलताओं से ही जन्म लेती है, तब जब तक की असफलताओं​ से सीख न ली जाये।" हर सफल व्यक्ति असफलताओं के महासागर में डुबकी लगाकर ही सफल होता है। उसे हमेशा सफल होने के सिर्फ सही और मजबूत सोंच की आवश्यकता होती है। सफलता के लिए सोंच का होना जरूरी होता है और वो भी बड़ी सोंच का। हम जब तक अपनी सोंच पर काबू नहीं पा सकते तब तक सफल नहीं हों सकते। सफलता के सही सोंच का होना भी जरूरी होता है।
"सोंच एक तरह से हमारे मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न की गई एक ऐसी स्थिति है जिसे हम अपने ही शारीरिक अंगों के द्वारा अमल में लाने की कोशिश करते हैं वो भी दृढ़ता से।" हमने अक्सर देखा होगा की हम जैसी जैसी सोंच रखते जाते हैं वैसे वैसे हमारे शारीरिक अंग भी कार्य को अंजाम देते जाते है।
उदाहरण के लिए- एक चोर हमेशा दूसरों की चीजों को अपनी बनाने की सोंच रखता है तभी तो वो चोरी के काम को अंजाम दे पाता है। या फिर कोई वैज्ञानिक नये अबिष्कार बनाने की सोंच रखता है तभी तो वो उस पर अमल कर पाता है। ऐसे न जाने कितने उदाहरण दिये जा सकते हैं जो हमारे दैनिक जीवन में आये दिन हमारी सोंच के कारण ही हल हो पाते है।
"इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारी सफलता हमारी सोंच पर ही निर्भर होती है।" आप जब हर उस सफल व्यक्ति से उसकी सफलता पर चर्चा करने बैठेंगे तो पायेंगे कि उस सफल व्यक्ति की सोंच हमारी सोंच या फिर असफल व्यक्तियों​ की सोंच से किस तरह भिन्न थी। उसके साथ चर्चा करने पर आपको ये आभास होगा कि वो किस तरह से अपनी सोंच को जीवन में आई असफलताओं से कैसे सफल बनाया जायें पर जोर देता था। आपने महसूस किया होगा कि कैसे उसकी सोंच तनिक भी विचलित नहीं होती चाहें वो कितनी बार ही असफल क्यों न हुआ हो।
अब आप एक प्रयोग कीजिये- अपनी सोंच को लेकर किसी कार्य को करने के लिए दो तरह से सोंचिये... एक कि आप उस कार्य को आसानी से कर पायेंगे बिना किसी रुकावट के और दूसरा कि आप वो काम शायद ही कर पायेंगे या फिर कर ही नहीं पायेंगे... तब आप पायेंगे कि आपका मस्तिष्क उस काम को लेकर दो अलग-अलग​ तरह से सोंच पर किस तरह से काम करने लगता है।
पहली सोंच है कि मैं उस को आसानी कर जाऊंगा बिना किसी रुकावट के... तब हम देखते हैं कि हमारा मस्तिष्क उस काम को करने के बहुत से नये-नये तरीके ढूंढ ही लेता है चाहें कोई भी कैसी परिस्थिति क्यों न हो। हम देखते हैं कि हमारा मस्तिष्क स्वत: ही सक्रिय हो जाता है उस काम को अंजाम देने के लिए और हम अंत में पाते हैं कि वो काम किस तरह से बिना रुकावट के हो जाता है।
ठीक दूसरी सोंच है कि आप वो काम शायद ही कर पायेंगे या फिर नहीं कर पायेंगे... तब हम देखते हैं कि हमारा मस्तिष्क किस तरह से उस काम के असफल हो जाने के तरीके ढूंढ लाता है अत: हम वो काम सच में नहीं कर पाते है और असफल हो जाते है।
अत: स्पष्ट है कि सफलता हमारी सोंच की ही एक उपज है। जिसे बेहतर तरीके से बेहतर सोंच के माध्यम से आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। सोंचिये कि आप सफल हो रहे है। और आप सफल हो जायेंगे।
© शक्ति सार्थ्य
shaktisarthya@gmail.com



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